अंतरिक्ष यात्रा के प्रवर्तक त्सिओल्कोव्स्की

पिछले 100 साल के दौरान रूस राजनीतिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक और साहित्यिक दृष्टि से व्यापक परिवर्तनों के दौर से गुज़रा है। खासकर सोवियत संघ के अस्तित्व के दौरान उसने विभिन्न क्षेत्रों में कई उपलब्धियॉं हासिल कीं, हालॉंकि अमेरिका व यूरोप में इन्हें कोई खास महत्व नहीं दिया गया। शीतयुद्ध काल में तो सोवियत संघ और अमेरिका के बीच पारस्परिक अविश्र्वास की भावना व प्रतिद्वंद्विता चरम पर पहुँच गई थी। स्थिति यह थी कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के हर क्षेत्र में सोवियत संघ ही सबसे पहले बाजी मारता और पश्र्चिमी देश उसकी उपलब्धि को या तो सिरे से ही नकार देते थे या फिर उसे बड़ी मुश्किल से हजम कर पाते थे। इस वजह से विज्ञान व प्रौद्योगिकी के इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण पन्ने हमारी पहुँच से दूर रहे हैं।

दोनों खेमों द्वारा एक-दूसरे पर रौब झाड़ने व उपलब्धियों को नकारने की प्रवृत्ति के बावजूद कुछ बातें ऐसी भी थीं, जिन पर कोई विवाद नहीं था। आज से करीब 150 साल पहले 17 सितंबर, 1857 को सोवियत संघ में जन्मे कॉन्सटेन्टिन एडुआडर्विच त्सिओल्कोव्स्की को दोनों ही पक्ष अंतरिक्ष यात्रा और तरल गैस ईर्ंधन रॉकेट के विकास के जन्मदाता के रूप में स्वीकार करते हैं। अंतरिक्ष उड्डयन (एस्ट्रोनॉटिक्स) के क्षेत्र में अमेरिका व जर्मनी के रॉबर्ट गोडार्ड, हर्मन ओबेथ और वार्नर वॉन ब्रान के कार्यों को मिली व्यापक मान्यता के बावजूद त्सिओल्कोव्स्की इन सबसे कहीं आगे नजर आते हैं।

त्सिओल्कोव्स्की ने अपनी सक्रिय ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण भाग मॉस्को से 220 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे-से शहर कलूगा में बिताया था। उन्होंने ऐसी गणितीय अवधारणाओं का विकास किया, जिससे पृथ्वी की कक्षा में कृत्रिम उपग्रहों को स्थापित करने वाली रॉकेट प्रणाली का जन्म हो सका। अगर डेढ़ सौ साल पहले की परिस्थितियों व उस काल में उपलब्ध वैज्ञानिक सुविधाओं पर नजर डालें तो यह कोई बहुत आसान काम नहीं था।

वर्ष 1903 में राइट बंधुओं ने पहली बार उड़न खटोले यानी विमान का प्रदर्शन किया था। इस प्रकार हवा में काफी तेज गति से उड़ान भरने का सपना देखा जाने लगा। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि इसी साल त्सिओल्कोव्स्की ने “द साइंस रिव्यू’ में “प्रतिक्रिया चालित मशीन के जरिये ब्रह्मांड की खोज’ नामक एक शोध-पत्र प्रकाशित किया था। इसमें बदलते द्रव्यमान वाले रॉकेट की गति का विश्र्लेषण किया गया था। इस रॉकेट का द्रव्यमान बदलता है, क्योंकि इसमें ईर्ंधन कम होता जाता है। इस शोध-पत्र में उन्होंने रॉकेट की गति का विश्र्लेषण करते हुए बताया था कि रॉकेट कितनी ऊँचाई तक पहुँचेगा और कब तक वहॉं बना रहेगा, यह उसमें से निकलने वाली गैसों की गति पर निर्भर है। उनका समीकरण अंतरिक्ष यात्रा की दिशा में महत्वपूर्ण आयाम था। इस शोध-पत्र के अलावा वर्ष 1911, 1912 और 1914 में प्रकाशित त्सिओल्कोव्स्की के कुछ अन्य शोध-पत्रों को अंतरिक्ष यात्रा से संबंधित अवधारणाओं के विकास में मील का पत्थर माना जाता है। उन्होंने बहु-चरण रॉकेट प्रणाली की अवधारणा भी पेश की थी। इस प्रकार विमान में मनुष्य की उड़ान से पहले ही इस रूसी स्कूल शिक्षक ने अंतिरक्ष-यात्रा की कल्पना पेश कर दी थी।

वायुमंडल के बाहरी किनारे या अंतरिक्ष तक पहुँचने वाली पहली मानव निर्मित वस्तु एक कृत्रिम उपग्रह था। “स्पूतनिक-1′ नामक इस उपग्रह को त्सिओल्कोव्स्की के जन्म शताब्दी वर्ष में सोवियत संघ द्वारा प्रक्षेपित किया गया था। विडंबना यह है कि लोग त्सिओल्कोव्स्की से ज्यादा इस उपग्रह के बारे में जानते हैं। पृथ्वी की निचली कक्षा में उपग्रहों को स्थापित करना आज एक बहुत ही सामान्य बात मानी जाती है, लेकिन 50 साल पहले यह वास्तव में एक बड़ी व अद्भुत घटना थी।

इस घटना के केंद्र में था, 85 किलोग्राम वज़नी और 58 सें.मी. व्यास वाला एक गोला, जिसमें से चार एंटेना निकले हुए थे। यह गोला धरती की सतह से करीब 250 किलोमीटर की ऊँचाई पर वायुमंडल की ऊपरी सतह पर स्थापित किया गया था और लगभग 96 मिनट में पृथ्वी का एक चक्कर लगाता था। अपनी कक्षा में पृथ्वी से इसकी अधिकतम दूरी 984 किलोमीटर और न्यूनतम दूरी 241 किलोमीटर थी।

आज हर सप्ताह कोई न कोई देश वैज्ञानिक अध्ययन के लिए इतने आकार वाले उपग्रह को इतनी ऊँचाई पर स्थापित करता है। लेकिन स्पूतनिक-1 का मामला इसलिए अलग था, क्योंकि करीब 50 साल पहले जब उसे प्रक्षेपित किया गया था, तब तक सोलार सेलों का विकास नहीं हुआ था और उपग्रह को ऊर्जा रासायनिक बैटरियों से मिलती थी, जिन्होंने निर्धारित अवधि से पहले ही काम करना बंद कर दिया था। उपग्रह से संकेतों की प्राप्ति और उनका कम्प्यूटरों के जरिये विश्र्लेषण भी आज की तुलना में बिल्कुल अलग हुआ करता था। वैसे स्पूतनिक जब तक अंतरिक्ष में रहा, तब तक उससे संकेत प्राप्त होते रहे।

4 अक्तूबर, 1957 के दिन सोवियत संघ द्वारा स्पूतिनिक-1 उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ ही एक नये युग का आगाज़ हुआ। स्पूतनिक अपनी कक्षा में करीब तीन माह रहा। इसे वापस धरती पर लाने का प्रयास किया गया था, लेकिन जनवरी 1958 में वायुमंडल की निचली सतह में प्रवेश करते ही यह जलकर नष्ट हो गया था। परन्तु तब तक इतिहास लिखा जा चुका था। हालॉंकि यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी, लेकिन आम जनता को इसके महत्व के बारे में कोई अंदाजा नहीं था।

आम लोगों को बाद में पता चला कि उस समय की दो महाशक्तियों अमेरिका व सोवियत संघ ने अपने-अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रखी थी और इनके लिए धनराशि की व्यवस्था राजनीतिक फैसलों के तहत हुआ करती थी, न कि प्रौद्योगिकी मद में।

आजकल इस क्षेत्र में प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों का व्यावसायिक दोहन करने का प्रयास किया जा रहा है। गौरतलब है कि अंतरिक्ष में बस्तियॉं विकसित करने की अवधारणा सबसे पहले त्सिओल्कोव्स्की ने ही दी थी। वर्ष 1911 में उन्होंने लिखा था कि धरती हमारा “पालना’ है, लेकिन हम हमेशा इस पालने में नहीं रह सकते।

त्सिओल्कोव्स्की पोलिश पिता और रूसी माता की संतान थे। बारह साल की उम्र में गंभीर रूप से बीमार पड़ने से उनकी सुनने की क्षमता कम हो गई थी, जिससे स्कूली पढ़ाई बाधित हुई थी। इससे वे बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा नहीं ले पाए, लेकिन उन्होंने ज्ञान की खोज में तीन साल मॉस्को में बिताए। वहॉं वे प्रख्यात रूसी दार्शनिक फेदरोव के संपर्क में आए, जिनका उन पर व्यापक असर पड़ा।

त्सिओल्कोव्स्की की शारीरिक दिक्कतों और औपचारिक डिग्री के अभाव की वजह से ही उन्हें स्कूल में अध्यापन के लिए विवश होना पड़ा था, लेकिन इसके बावजूद वे अपने शोधकार्य और शोध-पत्रों के प्रकाशन में लगे रहे। अपनी विलक्षण गणितीय क्षमता के बूते वे ऐसे समीकरण प्रतिपादित करने में सफल हुए, जो परिवर्तनशील द्रव्यमान वाली वस्तु की गति पर लागू होते थे। रॉकेट की गति के संबंध में भी यही सिद्धांत काम करता है।

हालॉंकि त्सिओल्कोव्स्की ने कभी रॉकेट नहीं बनाया, लेकिन उन्होंने अपने द्वारा विकसित की गई वायु सुरंग (विंड टैनल) में इसके प्रयोग किये थे। उन्होंने गणितीय गणनाओं और रेखाचित्रों के माध्यम से रॉकेट की कार्यप्रणाली की हर प्रायोगिक जानकारी देने की कोशिश की। त्सिओल्कोव्स्की रेखांकन में भी माहिर थे, जिसके जरिये वे अपने विचार समझाने में सफल रहे। यही वजह है कि व्यवहार में रॉकेट विकसित न करने के बावजूद इस क्षेत्र में उनके योगदान को उसी तरह मान्यता दी गई है, जैसे रॉकेट बनाने वाले रॉबर्ट गोडार्ड और वॉन ब्रान को मिली है। संयोग यह भी है कि तीनों ही वैज्ञानिक ोंच लेखक जूल्स वर्ने द्वारा वर्ष 1865 में लिखित पुस्तक “फ्रॉम द अर्थ टु द मून’ से काफी प्रेरित थे।

जिस समय त्सिओल्कोव्स्की का जन्म हुआ था, उस दौरान रूस में जारशाही थी। उन्होंने अपना अधिकांश शोध कार्य जार शासन के काल में किया था, लेकिन उस समय उनके कार्यों को कोई महत्व नहीं मिला था। वे जिस समाज का प्रतिनिधित्व करते थे, उसमें उस दौरान नस्लवाद हावी था और माना गया था कि त्सिओल्कोव्स्की का अंतरिक्ष यात्रा का विचार भी श्रेष्ठ नस्लों के लिए ही था। क्रांति के बाद जब बोल्शेविक सत्ता में आए, तब तक त्सिओल्कोव्स्की 60 साल के हो चुके थे। सोवियत संघ की गुप्तचर पुलिस उनकी गतिविधियों पर लगातार नजर रख रही थी और यहॉं तक कि उन्हें कुछ समय के लिए जेल में भी रहना पड़ा।

दिलचस्प बात यह है कि सोवियत संघ के अंतरिक्ष कार्यक्रम के प्रमुख सर्गेई पावलोविच कोरोलेव अपने छात्र जीवन में अक्सर त्सिओल्कोव्स्की को पत्र लिखकर अंतरिक्ष-यात्रा के बारे में सवाल पूछा करते थे। उनके बीच पत्रों का यह सिलसिला लगातार चलता रहा। समझा जाता है कि दोनों के बीच सीधी मुलाकात कभी नहीं हो पाई।

1935 में त्सिओल्कोव्स्की का देहांत हो गया। उसी साल कोरोलेव अपना अध्ययन पूरा कर एरोनॉटिकल इंजीनियर बन गये। वे भी अंतरिक्ष-यात्रा की संभावना का पता लगाने के प्रति काफी दृढ़-संकल्पित थे। इसलिए कहा जा सकता है कि त्सिओल्कोव्स्की की विरासत एक प्रकार से कोरोलेव के सुरक्षित हाथों में पहुँच गई थी। यह भी संयोग है कि स्पूतनिक-1 को कक्षा में स्थापित करने के कार्यक्रम के प्रभारी कोरोलेव ही थे।

शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ और अमेरिका दोनों ने ही उच्च क्षमता वाले रॉकेटों का विकास शुरू किया था। दोनों देशों ने अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम के साथ राष्ट्रीय अभिमान का ऐसा घालमेल कर लिया था कि वे अपनी-अपनी जनता को यह समझाने में कामयाब रहे कि देश की “सुरक्षा’ के लिए इस प्रकार के कार्यक्रमों पर अमल करना बेहद जरूरी है। इसलिए सोवियत संघ द्वारा कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपित करते ही अमेरिका अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम पर और भी जोर देने लगा, ताकि अगली उपलब्धि उसके खाते में दर्ज हो सके, लेकिन वह इसमें भी विफल रहा।

वर्ष 1961 में सोवियत संघ ने अंतरिक्ष में पहला मानव भेजा। यूरी गगारिन 12 अप्रैल, 1961 को स्पेसक्राफ्ट “वोस्तोक-1′ में बैठकर अंतरिक्ष में गये। उन्होंने अपने इस यान से 108 मिनट में पृथ्वी का एक चक्कर लगाया और उसी दिन सुरक्षित धरती पर लौट आए। अंततः वर्ष 1969 में अमेरिका ने चंद्रमा पर पहले मानव को भेजकर अपना “बदला’ चुकता किया।

स्पूतनिक-1 के प्रक्षेपण के साथ शुरू हुई अंतरिक्ष दौड़ पिछले 50 साल में काफी अहम साबित हुई है। इस दौरान दुनिया में कई प्रमुख घटनाएँ हुईं। जैसे सोवियत संघ का विघटन, अमेरिका का “स्टार-वार्स’ कार्यक्रम और परमाणु हथियारों व हजारों किलोमीटर की मारक क्षमता वाली मिसाइलों का विकास। इसी समय अंतरिक्ष निगरानी पर जोर दिया जाने लगा और विभिन्न देशों ने निचली कक्षाओं में कथित जासूसी उपग्रह स्थापित करने शुरू किये। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन भी स्थापित किया गया और संचार उपग्रहों का विकास व विस्तार हुआ।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) भी स्वदेशी ढंग से अंतरिक्ष कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में सफल रहा। इन सभी आविष्कारों व कार्यक्रमों के प्रेरणा स्रोत रहे कोन्सटेन्टिन एडुअर्डोविच त्सिओल्कोव्स्की, जिनका अंतरिक्ष-यात्रा का स्वप्न सबसे पहले स्पूतनिक-1 के रूप में साकार हुआ था।

– भूपति चक्रवर्ती

You must be logged in to post a comment Login