“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ की विशिष्ट संस्कृति, परंपरा, मान्यता वाले भारत में आज पल-पल सर्वत्र नारी शोषित-उत्पीड़ित हो रही है। नवरात्र में जिस अबोध-मासूम बच्ची को गोद में उठाये, कंधे पर बिठाकर पूजा हेतु ले जाते हैं, उसी आयु वर्ग की बच्चियों को लोग अपनी शैतानी हवस का शिकार बना रहे हैं। ऐसी खबरें रोज-ब-रोज अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। इन पर समाज के मौन का कारण समझ नहीं आता। इसमें दो राय नहीं कि आज भौतिकता ने नैतिकता को निगल लिया है। न आज मानवता रही, न संस्कार रहे, न चरित्र और न ही वे आदर्श जिनके लिए समूची दुनिया में यह देश जाना जाता था। एक समय वह था जब कभी-कभार ही बलात्कार की खबर सुनने को मिलती थी। करीब डेढ़ दशक पूर्व तक यह स्थिति बनी रही। लेकिन अब यह आये दिन की बात हो गई है। पहले बलात्कारी दूर-दराज का राहगीर या फिर अपराधी प्रवृत्ति का व्यक्ति होता था। दुश्मन की पत्नी, बेटी या बहन से बलात्कार का समाचार कभी-कभी सुनने को मिलता था। नब्बे के दशक से इन अपराधों ने रिश्तों की मर्यादा तक को तार-तार कर दिया। चाचा, ताऊ, मामा आदि इन अपराधों के दोषी पाए जाते थे। लेकिन फिर पुत्री को जन्म देने वाला बाप और उसकी रक्षा की कसम खाने वाला भाई ही रिश्ते को कलंकित करने लगा। अब तो ऐसा लगता है कि हम ऐसे समाज के अंग बन चुके हैं, उसमें जी रहे हैं; जहॉं नैतिकता और संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। इसके अलावा जिन पर देश व समाज की रक्षा का दायित्व है, सेना व पुलिस और जो न्याय व व्यवस्था के अलम्बरदार हैं, देश के भाग्यविधाता हैं, लोकतंत्र के सजग प्रहरी हैं, जिन्हें रोगी अपना भगवान मानता है वे यदि इस तरह का आचरण करें कि “जब बाड़ ही फसल खाने लगे’ तो उस हालत में आखिर न्याय की आशा किससे और कैसे की जा सकती है।
इस साल का आगा़ज ही स्त्री अस्मिता से खिलवाड़ के साथ हुआ और आज लगभग साढ़े छः माह बाद भी बलात्कार की इन घटनाओं में कमी नहीं आई है। केरल, गोवा, उत्तर-पूर्वी सीमांत या अन्य राज्य हों या फिर राजधानी दिल्ली, मासूम अबोध तीन वर्षीय बच्ची, नाबालिग बालिका, युवती या प्रौढ़ा कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। जब पिता बेटी से मुंह काला करने में हिचक महसूस नहीं करता तो सौतेले पिता की बात ही क्या। दामन को दागदार करने में प्यारे अंकल, मामा, ससुर, दोस्त, प्रेमी और सबसे ज्यादा पड़ोसी पाये जा रहे हैं। ऐसे में बच्चियां और महिलाएं कैसे सुरक्षित रह सकती हैं। जब चारदीवारी में मौजूद रक्षक ही भक्षक बन जाये और ईंट-पत्थरों से बना घर, ऑफिस के सहकर्मी या उच्च पदों पर आसीन अधिकारी जिन पर उसकी सुरक्षा-संरक्षा का दायित्व है, से अप्रिय आचरण की आशंका रहे, ऐसी हालत में वह घर, ऑफिस और सड़क पर अजनबियों के बीच कैसे सुरक्षित रह पायेगी। सबसे बड़ी चिंता की बात यही है। अकेले देश की राजधानी दिल्ली में बीते 4 सालों में हुए बलात्कारों में पड़ोसी ही अधिक संलिप्त पाये गए हैं। दिल्ली के बीते साल के आंकड़े भी गवाह हैं कि 581 मामलों में 9828 फीसदी बलात्कार की शिकार महिलाएं आरोपियों से परिचित थीं। इनमें पकड़े गए 340 आरोपी पड़ोसी, 94 दोस्त, 62 रिश्तेदार, 6 मकान मालिक या किरायेदार थे जबकि सिर्फ दस अजनबी थे। इनमें 3 फीसदी सहकर्मी थे। मुंबई के जे.जे. अस्पताल और ग्रांट मेडिकल कॉलेज में वर्ष 2004 में कराये गए अध्ययन में खुलासा हुआ कि वहॉं कार्यरत 249 नर्सों में से 12.39 फीसदी अस्पताल में काम के दौरान अक्सर शारीरिक शोषण की शिकार हुईं। हमारी पूर्व केन्द्रीय मंत्री व वन्य जीव प्रेमी मेनका गांधी भले यह दावा करें कि देश से गिद्घ खत्म हो रहे हैं, हकीकत में देश में मानव गिद्घों की बहुतायत है जो मौका मिलते ही स्त्री का मांस नोचने को टूट पड़ते हैं।
असलियत में बलात्कार मानवीयता और नैतिकता की दृष्टि से जघन्य और अक्षम्य अपराध है। फिर बच्चियों के साथ बलात्कार निस्संदेह हैवानियत और नीचता की पराकाष्ठा है। इन घटनाओं में तेजी से हो रही वृद्घि चिंताजनक है। कोई भी समाज न तो बलात्कार की अनुमति देता है और न बलात्कारी को माफ कर सकता है। जाहिर है, अति विकसित समाज का नियंत्रण राज्य के पास होने से बलात्कार एक असामाजिक जघन्य अपराध न होकर तकनीकी अपराध माना जाता है। गौरतलब है कि बलात्कार, वह चाहे बच्ची के साथ किया गया हो या कि वयस्क या अवयस्क के साथ, भूल-अज्ञानतावश या धोखे में किया जाने वाला अपराध नहीं है। यह तो निश्चित है कि बलात्कार स्थान, समय, सुरक्षा आदि का ध्यान रखते हुए योजनाबद्घ साजिश के तहत पूरे संज्ञान में किया जाने वाला अपराध है। बलात्कारी कोई भी क्यों न हो, उसके लिए सौंदर्य और आयु की कोई कसौटी नहीं है। कसौटी तो यही है कि वह आसानी से हमला कर अपनी ताकत का वहॉं प्रदर्शन करे जहॉं उसका कोई प्रतिवाद न कर सके।
इसमें दो राय नहीं कि हमारे यहॉं बलात्कार की कोई कड़ी सजा नहीं है। इस मामले में छात्र, शिक्षक, बुद्घिजीवी और आमजन सभी की एकमुश्त राय है कि देश में लचीली कानून व्यवस्था होने के कारण ऐसे अपराधों में वृद्घि हो रही है। पकड़े जाने के बाद कड़ी सजा नहीं होने के कारण कुछ दिनों बाद ही अपराधी छूट जाता है। जब तक ऐसी सजा का प्रावधान नहीं होगा जिससे अपराधियों में भय बना रहे, तब तक ये अपराध इसी तरह होते रहेंगे और बलात्कारी बेखौफ खुलेआम घूमते रहेंगे, पीड़िता को धमकाते रहेंगे और बलत्कृत लड़की व उसके परिजन समाज में बदनामी से बचने की खातिर घर-बार छोड़, शहर छोड़ नगर-नगर, दर-दर भटकते रहेंगे। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार द्वारा बलात्कार रोकने की दिशा में आज तक कोई सार्थक प्रयास नहीं किये गए हैं। और तो और ऐसे लोगों को वोट की खातिर अन्याय और अत्याचार की उपेक्षा कर राजनेता संरक्षण देते हैं। पिछले कई बरसों से की जा रही बलात्कारियों को मृत्युदण्ड दिये जाने की मांग भी राजनीति की भेंट चढ़ चुकी है। महिला आयोग की राष्टीय अध्यक्ष डॉ. गिरिजा व्यास द्वारा बलात्कार की परिभाषा बदले जाने की मांग पर सरकार का मौन समझ से परे है। विभिन्न संगठनों तथा घरेलू-नौकरीपेशा सभी महिलाओं की राय है कि जब अपनी बेटी तक को लोग अपनी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकते और उससे मुंह काला करते समय अपना मुंह नहीं ढांपते, तो फिर ऐसे नीच व्यक्ति को उस समय मुंह ढांपने की इजाजत कदापि नहीं देनी चाहिए जब वह कोर्ट में पेश होने जा रहा हो। उसका तो मुंह काला करके ही कोर्ट में ले जाना चाहिए। आजकल जो मामले उजागर हो रहे हैं, वे लड़की की सहेली, बहनों, परिचितों या उसकी मॉं के साहस के कारण ही सामने आ सके हैं। लड़की की शादी न हो पाने का भय और दबंगों के दबाव के चलते सैकड़ों-ह़जारों मामले सामने आ नहीं पाते। इससे बलात्कारियों के हौसले और बढ़ रहे हैं।
जरूरत है कि इस बाबत संविधान में संशोधन किया जाये और इस अपराध के लिए कड़े दंड का प्रावधान किया जाये। इस प्रवृत्ति पर अुंकश लगना ही चाहिए, कानून में संशोधन कर इसकी सजा मौत या सरेआम फांसी अथवा मौत तक कोड़े मारने की सजा निश्र्चित करनी चाहिए ताकि भय बना रहे। इसके लिए संसद, विधान मंडलों, समाजसेवी संस्थाओं, महिला संगठनों, खासकर महिला आयोग को सरकार पर दबाव डालना चाहिए। वैसे अब जनता खुद अपराधियों यथा चोरों-हत्यारों को दंड देने लगी है। पता नहीं वह दिन कब आयेगा जब बलात्कारियों को भी पकड़कर खुद जनता दंड देने लगे। नैतिकता, मानवता और संवेदनहीन नेतृत्व व व्यवस्था से इसकी आशा ही व्यर्थ है। इसके लिए समाज और एक हद तक हम भी दोषी हैं।
– ज्ञानेन्द्र रावत
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