बंधुओं… वह क्या है कि अपने भारत महान को यदि थोड़ा गंभीरता से ताड़ें, तो एक सच आसानी से पा जाएँगे कि अपना इंडिया दि ग्रेट एक “भीड़ प्रधान’ देश है। जरा निज नैनन से बिलोकें, तो इस सत्य के दर्शन कमजोर से कमजोर दृष्टि वाले को, गंभीर से गंभीर नंबर का चश्मा धारण करने वाले को भी आसानी से हो सकते हैं। हर तरफ भीड़ ही भीड़ है, जिधर नजर घुमाइये… उधर सिर ही सिर का हजूम दिख जाएगा। चहुंओर भीड़ का साम्राज्य भ्रष्टाचार के मानिंद स्वस्थ व चौंचक रूप में दिख सकता है, बिना किसी खास मेहनत के। “क्यू’ ही “क्यू’, बस हर दिशा में यही मंजर हमारे और आपके लिए स्वागत करने को तैयार खड़ा है।
भीड़ के मामले में अक्सर यही कहा जाता है कि भीड़ के पास न तो दिल होता है और न ही दिमाग, वह तो बस सिरों ही सिरों का रेला होती है। पर, हमारी स्वदेशी भारतीय भीड़ के साथ ऐसा हरगिज भी नहीं है। उसके पास दिल भी है और दिमाग भी। साथ-ही-साथ बौद्घिक-सांस्कृतिक संपदा संपन्न है और कल्पनाओं की लंबी उड़ान की कूवत है अपनी इंडियन भीड़ के पास। यही तो खासियत है अपनी हिन्दुस्तानी भीड़ की कि उसके पास एक दर्शन है… एक फलसफा है… और दिमाग की एक बेजोड़ उड़ान है। एक ऐसी उड़ान, जिसमें कि साक्षर-निरक्षर होने, बौद्घिक व अंगूठा छाप होने का सारा अंतर मिट जाता है और सबके सब एक ही प्लेटफार्म पर आ जाते हैं। कभी किसी क्यू का अध्ययन गंभीरता से करने की जहमत करें अर्थात् आसान शब्दों में कहें तो यह कि गहनता से तोड़ें, तो बहुत कुछ देखने-समझने व जानने को मिलेगा, उपलब्धि के तौर पर। चाहे राजनीति की बातें हों या फिर सिनेमा की, िाकेट के वन-डे मैच की चर्चा हो या फिर सरकारी दफ्तरों में बाबुओं की कार्यशैली की, व्यवस्था की बात हो या फिर बेईमानी-भ्रष्टाचार की, नेताओं के चरित्र की चर्चा हो या चाहे बढ़ती महंगाई का जिा… भीड़ का हर सिर, “क्यू’ की हर खोपड़ी अपने में एक कुशल व ओजस्वी वक्ता हो जाती है। न जाने किस चिंतक-दार्शनिक व समीक्षक की भटकती आत्मा का प्रभाव उनके सबके सिर चढ़कर बोलने लग पड़ता है। अपने आप में “एक्सपर्ट कमेंट’ का बड़ा भंडार समेटे रहते हैं सबके सब। फिर चाहे वह पनवाड़ी हो, हज्जाम हो, कर्मचारी हो या मजदूर, अफसर हो अथवा व्यापारी, रिक्शा हांकने वाला हो या कार चलाने वाला, बुद्घिजीवी हो या फिर निरा अंगूठा टेक… जब “क्यू’ में आकर लगते हैं, तब पता नहीं आखिर कौन-सी चमत्कारिक व अलौकिक ज्ञान-शक्ति प्राप्त हो जाती है कि सबके सब एक ही वैचारिक चबूतरे पर आ कर खड़े होते हैं। बहस का मुद्दा चाहे जितना गंभीर हो, गरिष्ठता लिये हो, कोई फर्क नहीं पड़ता, बौद्घिक उफान अपने चरम रूप में दिखाई देने लग पड़ता है, तो फिर ऐसे में आखिर कैसे कहा जा सकता है कि भीड़ तो बस सिरों का हजूम मात्र है, जरा सोचिए तो श्रीमान्-बंधुवर।
अब जिा चाहे “नेता’ नाम के महाप्राणी के सदाबहार व हरियाए से ईमान का हो या फिर बढ़ती हुई महंगाई और नीचे गिरते चरित्र का हो, राजनीति की महिलाओं का गान हो या फिर बेईमान घोटालों की अंतहीन-सी चर्चा, ठंडी सांसें लेते हुए, आहें भरते हुए और आाोश का लावा उगलते हुए तथा अपने बौद्घिक-विस्फोट को उगलते हुए अपनी भारतीय भीड़ को आसानी से देखा-बिलोका जा सकता है। भीड़ के बारे में अक्सर यह भी कहा जाता है कि भीड़ सिर्फ गुस्सा होना ही जानती है। केवल तोड़-फोड़ व अराजकता ही कर सकती है। हिंसा का तांडव ही कर सकती है वगैरह, वगैरह। पर, यकीन मानिए भाई लोगों, अपनी इंडियन भीड़ के मामले में यह पूर्ण सत्य नहीं है, हमारी भारतीय भीड़ संवेदनशील हो जाती है, भावुक हो जाती है तथा यदा-कदा और तमाम नाजुक मौकों पर धीर-गंभीर भी हो जाती है। समस्याओं व विषमताओं को लेकर चिंताग्रस्त भी हो जाती है, माना कि भीड़ तमाशा पसंद भी है जनाब, पर उसे हल्व लेने की भूल कतई भी नहीं की जा सकती है। इसकी सोच बेहद विस्तृत, खुली व उदार होती है और व्यापक दर्शन की धनी होती है यह। समाज के ठेकेदारों और तरह-तरह की स्वार्थ-मंडियों को चलाने व उसमें व्यापार करने वाले सौदागरों के घिनौने विचार-दर्शन से काफी भिन्न व उजला होता है भीड़ महान का चरित्र और मजे की बात तो यह है भाई लोगों कि इसकी एक पहचान व रूप भेड़-बकरियों के मानिन्द हांके जाने का भी है, सो नाना प्रकार के रूपों की धनी है हमारी महान भारतीय भीड़। भीड़ को भारत से प्यार है, भारत को भी अपनी भीड़ प्यारी है और भीड़ भी कोई ऐसी-वैसी, नत्थू-गैरी नहीं, बल्कि एक बौद्घिक, जागरुक व संवेदनशील भीड़।
भीड़ का भी अपना एक आकर्षण होता है, एक शो होता है, कह लें कि एक चाहत होती है, सिर्फ एक अदद भीड़ जुटाने की। इस मामले में तो अपने प्यारे चमन आई मीन अपने भारत महान के कहने ही क्या, एक से एक नये-नये व धांसू गुल खिलते रहते हैं। न जाने कितनी बिरादरियां इसी भीड़ की ऑक्सीजन पर जिंदा हैं। भीड़ कम हुई नहीं कि मूड खराब, सारा नजला भीड़ न जुटा पाने वाले आयोजक बेचारे पर गिरता है, सारी प्लानिंग चौपट होकर रह जाती है, सिर्फ एक स्वस्थ व मुटियाई भीड़ न होने की वजह से। सारे का सारा नेताई जीवन इसी भीड़ की ऑक्सीजन पर निर्भर होता है। भीड़ न हो तो बड़े से बड़े नेता का मूड उखड़ जाता है। वह तो उसी ऑक्सीजन पर ही जीता है। ऑक्सीजन की कमी हुई नहीं कि तड़पन व तकलीफ बढ़ने लगती है, माथे की रेखाएं गहरा जाती हैं और एक बड़ी भीड़ को जुटाने की जरूरत जोर मारने लगती है। भीड़ जुटी नहीं कि हरियाली फिर लौटने लगती है और नेताई-मन में तमाम फूल खिलने शुरू हो जाते हैं और जहां भीड़ जुटाना, जय-जयकार का गान करने वालों का हुजूम लगना एक पेशे का रूप ले चुका हो, तो वहां फिर भीड़ की माया के क्या कहने, जैसा दाम वैसी भीड़, और वैसे ही जय-जयकार की गूंज व तालियों का वजनदार शोर। हर टाइप की, हर स्टैंडर्ड का ोश व दमदार माल मिलेगा, इसकी सौ फीसदी गारंटी है। कसम अपनी हिन्दुस्तानी भीड़ की, सब माल टनाटन व टंच मिलेगा जनाब। भीड़ के मामले में इस बंदे की सोच को तगड़ा सपोर्ट तो तब मिला, जब वैचारिक समानता के मामले में मुझसे छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले मित्रवर गणेशीलाल ने मेरी हां में हां मिला दी। उनके इस रुख से छोटी-छोटी पार्टियों के टेंपरेरी बाहरी समर्थन की-सी उपलब्धि का अहसास हुआ। एक लंबी सांस खींचकर वे फूटे, “”भीड़ के बिना तो आप अपने आज के भारत महान की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं। दुनिया का इतना बड़ा लोकतंत्र होने का दर्जा कोई क्या ऐसे फोकट में ही मिल गया है? ऐसी कौन-सी वैराइटी है भीड़ की, जो अपने यहां न हो प्यारे!” बस… गणेशी लाल का बेहद दुर्लभ व मूल्यवान समर्थन का प्राप्त होना… फिर तो कहने ही क्या थे, भीड़ के महान महात्म्य ने मेरे अंदर के अंधकार को हर कर ज्ञान का प्रकाश भीतर तक जो फैलाया, इससे मैं खासा प्रफुल्लित हो चुका था।
– संदीप सक्सेना
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