महापुरुषों का कथन है कि मनुष्य-जन्म श्र्वास लेने, भोजन करने, आहार पचाने, चिन्तन करने, अनुभव करने, जानने, इच्छा करने और ऐसे ही अन्य अनेक तथाविध कार्यों की प्रिाया मात्र नहीं है। जीवन पूर्णतया इन्हीं सब कार्यों के लिए तथा अन्त में बिना कुछ वास्तविक प्राप्त किये ही काल-कवलित होने के लिए नहीं मिला है। मानव-जन्म ईश्र्वरीय कृपा की बहुमूल्य देन तथा वास्तविक भागवतीय उत्तराधिकार है। यह जीवन एक परम उद्देश्य की पूर्ति हेतु मिला है। वस्तुतः यह एक उन्नत लक्ष्य, दिव्य पूर्णता, स्थायी शांति तथा सुख की प्राप्ति के लिए है। हम तभी सार्थक जीवनयापन करते हैं, जब हम मानवता के कल्याण के लिए एक महान उद्देश्य की पूर्ति में रत रहते हुए मन का संतुलन तथा उच्चतम आध्यात्मिक साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए शौर्यपूर्वक प्रयास करते हैं। मालपुआ, मलाई-मक्खन तथा मिठाई, भड़कीले परिधान, राजप्रसाद तथा मोटर-कार, मदिरापान में संलग्नता-ये सब वस्तुतः जीवन के घटक नहीं हैं। जिस मानव की संरचना की कल्पना भगवद् रूप होने की जाती है, ये सब उसके जीवन के चरम उद्देश्य नहीं हैं।
केवल ऐन्द्रिक, वास्तव में मात्र पशु जीवन है। अहंकार, लौकिक कामनाएँ तथा वैषयिकता- ये अज्ञानता के घटक हैं और गहन भ्रम से उद्भुत हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि मानव की भौतिक सुख-सुविधाएँ कभी सच्चा सुख प्रदान नहीं कर सकतीं। केवल स्थूल शरीर का योगक्षेम आत्मिक सांत्वना, शांति, आनन्द तथा शाश्र्वत पूर्णता नहीं दे सकता। मनुष्य परम सत्य का अंश है। अतः जीवन के उद्देश्य की सत्यता का अनुभव करना उसका परम कर्त्तव्य है। इन क्षणभंगुर ऐन्द्रिक सुखों के सिर चकराने वाले जलावर्त तथा निरंतर क्षुब्ध बनाने वाली कामनाओं में जीवन के वास्तविक उद्देश्य तथा उसके यथार्थ लक्ष्य को विस्मृत करना कहॉं तक न्यायोचित कहा जा सकता है। असत्य को सत्य और अनित्य को नित्य मानने की भूल करने तथा जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आत्म-साक्षात्कार को विस्मृत करने से बढ़कर मानव की अन्य कोई बड़ी भूल नहीं है। जब व्यक्ति पशु की श्रेणी में रहने में ही, सहज-उद्भुत, भावनात्मक रूप से अस्थिर तथा मिथ्या प्रज्ञीय स्तर पर िायाशील होने में संतुष्ट है तो इससे अधिक अज्ञानता, इससे अधिक दुःख की बात क्या हो सकती है? दुर्लभ अवसर की अनदेखी करके व्यक्ति भारी कीमत अदा करता है। महापुरुषों ने मनुष्य की इस भूल की ओर संकेत करते हुए कहा है –
नर तन पाया, यूँ ही गॅंवाया।
भूल गया भगवान,
कि दुनिया झूठी है।।
संत मनीषी कहते हैं कि अपने अहंकार के कारण मनुष्य अपने मूल स्वरूप परमात्मा को भूला हुआ है, जबकि इस अहंकार का कोई न्यायोचित आधार उसके पास नहीं है। जब आप शिशु थे तो आप असहाय थे, जब आप रोगी होते हैं, तब आप असहाय होते हैं, जब जल-प्रलय, भूकम्प, चावात जैसी प्रबल आपदाएँ आपको आाांत करती हैं, तब आप असहाय होते हैं, जब आप जरा-जर्जरित होते हैं तब आप असहाय और दुःखी होते हैं, जब आपके किसी प्रियजन की अकस्मात मृत्यु होती है तब आप रो-रोकर बेहाल हो जाते हैं। फिर आप इतने अभिमानी तथा अहंकारी क्यों हैं? परन्तु मनुष्य कभी इस बात पर विचार नहीं करता कि उसकी जो भी उपलब्धियां हैं, वे सब ईश्र्वर की कृपा की देन हैं। वे उपलब्धियां कभी भी वापस ली जा सकती हैं। इसलिए अहंकार का प्रश्र्न्न कहां उठता है? वस्तुतः अहंकार का कोई औचित्य नहीं है, यह तो मन की विकृति मात्र है। विवेक रूपी शीतल जल द्वारा इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
तत्त्वदर्शी संतों का कहना है कि मनुष्य मोह-जाल से ऊपर उठे तथा विवेक और वैराग्य से, आत्मविश्लेषण और अपने वास्तविक आत्मस्वरूप की जिज्ञासा से परम श्रेयस को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करे। “मैं कौन हूं?’ इसकी खोज करे और आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करने का प्रयास करे। तब वह अपने शरीर तथा मन से परे चला जायेगा और ईश्र्वरत्व को प्राप्त करने में सफल होगा। तभी वह वास्तव में मुक्त और सुखी हो पायेगा। सद्गुण शांति तथा ज्ञान का पथ है। धर्मपरायणता आत्म-साक्षात्कार का गुप्त कारण है। पवित्रता पूर्णता का मार्ग है। भलाई धार्मिकता की ओर ले जाती है। निष्कपटता के अभाव में सभी कुछ आडम्बर है। आध्यात्मिक साधक को भलाई का साकार रूप होना चाहिए। विचार, वाणी तथा कर्म में भला बनना चाहिए।
संत बार-बार यही समझाते हैं कि जितनी बार संभव हो सके, उतनी बार प्रभु का स्मरण कीजिए। वे हमारे अन्तरवासी हैं। अपने स्वभाव को पवित्र बनाने तथा उनका साक्षात्कार करने में आपकी सहायता करने के लिए प्रभु से विनम्रता तथा भक्तिपूर्वक साग्रह प्रार्थना करनी चाहिए। हमारा जीवनयापन भगवान के लिए होना चाहिए। जीवन को प्रभु में दृढ़ आस्था और विश्र्वास रखते हुए वीरता, साहस एवं सच्चाई पूर्वक व्यतीत करना चाहिए। हाथी की पीठ पर बैठकर व्याघ्र का आखेट करना अथवा किसी नगर पर बम बरसाना वास्तविक वीरता तथा साहस के कार्य नहीं हैं। अपने मन तथा इन्द्रियों को नियंत्रित करने तथा आत्म-स्वामित्व की प्राप्ति द्वारा काम, ाोध तथा अहंकार को पराजित करने में भी मानव की सच्ची वीरता है।
आत्मवेत्ताओं, मनीषियों का कथन है कि मनुष्य नश्र्वर शरीर नहीं है और न अशुद्घ मन ही। वह शाश्र्वत सत्य-नित्य-मुक्त, नित्य-पूर्ण तथा आनन्दमय अमर आत्मा है। वह स्वरूपतः सच्चिदानन्द आत्मा है। वह अविनाशी है। यह उसका वास्तविक भव्य स्वरूप है। तब यह शरीर और मन में बद्घ अहं, तुच्छ बुद्घि, अल्पज्ञान और बाह्य चर्म तक सीमित सौन्दर्य कहां है? एक ही परमात्मा सभी प्राणियों में निवास करता है। श्र्वेताश्र्वतरोपनिषद् में कहा गया है –
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे
सर्पेरिवार्पितम।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्
ब्रह्मोपनिषद् परम्।।
(1/16)
अर्थात् वह सर्वव्यापक परमात्मा संसार की वस्तुओं में उसी प्रकार विद्यमान है, जिस प्रकार दूध में घी समाया रहता है। आत्मिक विद्या तथा तप का मूल कारण वही ब्रह्म है और वही सबके लिए उपासनीय है। अतः हम उसकी उपस्थिति सर्वत्र अनुभव करें। पूर्वाग्रह उत्पन्न सभी विभेदों तथा मतभेदों को तिलांजलि दे डालें। ईश्र्वर में पूर्ण श्रद्घा एवं विश्र्वास रखें। अपने अमर स्वरूप को कभी विस्मृत न करें। अपने अज्ञान की दीर्घ निद्रा से जाग जायें और अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करें और लक्ष्य की प्राप्ति तक न रुकें।
जीवात्मा ने अब तक कितने जन्म लिए हैं, कितनी माताओं के गर्भों से बेचारा भटका है, उसकी कोई गिनती नहीं है। योग वशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ महाराज कहते हैं-“”हे रामजी, मेरू के शिखर से लेकर चरणोपर्यन्त गंगा का प्रवाह चले तो उसके बालू के कण चाहे गिने जा सके, परन्तु संसक्त (सांसारिक विषय-वासना में लगे हुए) जीव के शरीरों की संख्या नहीं गिनी जा सकती।” अपने निजधाम यानी परमधाम को खोजते-खोजते युग बीत गये, लेकिन अभी तक मिला नहीं। व्यक्ति अपने घर से निकलता है तो बड़े उत्साह से, लेकिन लौटता है तो अंत में थक कर पहुँचता है। आदमी कहीं भी जाये, लेकिन आखिर अपने घर में ही उसे पहुँचना पड़ता है। इसी प्रकार शरीर रूपी होटल चाहे कितना बढ़िया मिल जाये अथवा शरीर रूपी सराय चाहे कितनी भी सुन्दर और सुहावनी मिल जाये, फिर भी इस जीवात्मा को अपने परमात्मा रूपी घर में पहुंचना ही पड़ेगा। चाहे वह इस जन्म में पहुँचे, दस जन्म के बाद पहुँचे, सौ जन्म, लाख-करोड़ जन्मों के बाद पहुँचे, अन्त में उसको वहां पहुँचना ही पड़ेगा। तो क्यों न उसके लिए अभी से प्रयासरत हुआ जाए?
महापुरुष कहते हैं कि आत्मज्ञान के द्वारा परमात्मा को पाया जा सकता है। परमसंत कबीरदास जी कहते हैं कि बिना ज्ञानी की सहायता के उस परम पुरुषोत्तम प्रभु को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
भटक मुआ भेदु बिना पावे कौन उपाय।
खोजत-खोजत युग गये
पाव कोस घर आय।
समय तीव्र गति से भागा जा रहा है, इसलिए संत हमें सावचेत करते हुए कहते हैं कि संसार रूपी मरूस्थल में भटकने वाले यात्री! सभी दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करें। काम, लोभ और अहंकार को विनष्ट करें तथा अपनी प्रिय जन्मभूमि को शाश्र्वत शांति और आनन्द के धाम को लौट जायें। निम्न प्रकृति, निम्न आत्मा के विरुद्घ पूर्ण मनोयोगपूर्वक संघर्ष द्वारा व्यावहारिक भलाई अर्थात् योगमय जीवन द्वारा इस जीवन में ही आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करें। आप चाहे जिस किसी राष्ट, जाति अथवा समाज के वर्ग से संबद्घ हों, पर आपका महान कर्त्तव्य, आपका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य इस सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक पूर्णता को ही प्राप्त करना है।
सत्-चित-आनन्द आपका जन्म सिद्घ अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति अनजाने में ही अमर होने की कामना करता है, क्योंकि कोई भी मरना नहीं चाहता। इससे यह प्रकट होता है कि व्यक्ति सदा विद्यमान रहना चाहता है, जो कि केवल शाश्र्वत ज्ञान द्वारा ही संभव है। कोई भी व्यक्ति अज्ञानी नहीं माना जाना चाहता है और ज्ञान की अभिलाषा सभी में प्रबल होती है। जब व्यक्ति लौकिक ज्ञान से आध्यात्मिक प्रज्ञा की ओर अग्रसर होता है तो वह परम सुखी बनता है। यही आनन्द की चरम अवस्था है, जिसे कोई भी पार्थिव पदार्थ प्रदान नहीं कर सकता। कोई भी प्राणी दुःखी नहीं होना चाहता। सुख की कामना सामान्य रूप से सभी प्राणियों में विद्यमान होती है। यह मनुष्य के सत्य स्वरूप की पृष्ठभूमि के सत्-चित्-आनन्द की शाश्र्वत अवस्था के सूचक हैं। हे मानव, “तत्त्वमसि’ तू वही है। उस परब्रह्म का अविनाशी स्वरूप है और उसी में विलीन होना ही इस मानव-जन्म की अंतिम परिणति है, उसकी नियति है।
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