कैन्टीन में चाय पीते समय एक दस वर्षीया लड़की ने मेरा ध्यान बरबस ही खींच लिया था। उसे मैंने पहली बार देखा था। उसकी मंद मुस्कुराहट एवं ताजगी ग्राहकों को आकर्षित किये बिना नहीं रहती थी। तभी तो मैं हर रोज कैन्टीन की तरफ खिंचा चला जाता था। बड़ा सुकून मिलता था वहां।
मैंने मौका देखकर उसे अपने पास बुलाकर पूछा था, “”क्या नाम है बेटी, तुम्हारा?” “”जी, मधु” कहते हुए वह चली गयी थी, जैसे उसे सभी का ध्यान रखना था। मैं उससे और बातें करना चाहता था, पर वह शायद इससे ज्यादा मौका किसी को भी नहीं देती थी। एक-दो बार कोशिश भी की, पर वह इतनी चालाकी एवं खुशामदी से टाल जाती थी कि गुस्सा भी नहीं आता था, किन्तु उसके बारे में अधिक न जान पाने पर खीझ भी होती।
मैं उसमें कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा था और अंदर ही अंदर भयभीत भी था कि कहीं बार-बार बुलाने व बात करने पर कैन्टीन का मालिक नाराज न हो जाये। उसके बारे में तरह-तरह की कल्पना करते हुए मैं कहीं खो गया था। तभी वह आकर पूछने लगी, “”जी, आपको क्या दूं?”
“”हां, एक कप चाय।”
“”जी, चाय के साथ भी कुछ लेंगे?” शायद आज पहली बार उसने बिना मांगे पूछ लिया था। हालांकि मैं चाय के साथ कभी कुछ लेता नहीं था, पर आज न जाने क्यों उसकी बात पर कुछ लेने के लिए मचल उठा। “”तुम कुछ भी ले आओ”, जैसे मैंने उससे बात का सिलसिला जारी रखने का बहाना ढूंढा। वह पूछे बिना नहीं रह सकी कि “”जी क्या दूं, सामान तो बहुत है।” मुझे सामान का चुनाव करने में समय लग रहा था। वह मुस्कुराते हुए यह कह कर चली गई कि “”सोचकर रखिए, मैं फिर आऊँगी।”
उस दिन, मौका देखकर बात करने के लिए उसे पास बुला लिया था। वह मासूम चेहरा मना नहीं कर सका था। इसके पहले मैंने जब भी उससे जानना चाहा कि भला वह इस उम्र में ऐसे काम क्यों कर रही है, तो वह हंसकर टाल देती थी। मैं उसकी बुद्घि की दाद देता था कि इतनी कम उम्र में उसे इतनी समझ भला आयी कैसे? मैंने भी कसम खा रखी थी कि मैं उसकी सच्चाई जान कर ही रहूंगा।
आज वह नन्ही-सी मूरत फफक-फफक कर रो ही पड़ी, जैसे वर्षों की पीड़ा उड़ेल देना चाहती हो। मुझे बेहद अफसोस हुआ कि मेरे कारण बेचारी को रोना पड़ा। अच्छा था कि कैंटीन मालिक वहां नहीं था। दूसरे सहयोगी नौकर उससे पूरी सहानुभूति रखते थे। मुझे मन ही मन टीस-सी हुई कि भला मैंने उससे ये सब बातें क्यों पूछीं? इतनी गहराई में जाने की क्या जरूरत थी? अब जबकि सारी स्थिति स्पष्ट थी, तो मैं उसकी क्या मदद कर सकता था? दूसरे का दुःख देखकर हमदर्दी जताना अलग बात है, पर उसे दूर करना अलग। मैं किसी तरह उसे आश्र्वासन देकर आ गया था।
मैं मन ही मन बेचैन रहने लगा था, जैसे मेरी कोई बहुत प्यारी-सी चीज खो गयी हो। कभी-कभी अपने आपसे प्रश्र्न्न करने लगता कि भला मैं उसे इतनी बेताबी से क्यों खोजने लगा हूँ? वह मेरी क्या लगती है। स्मृति-पटल पर उसका चेहरा घूमने लगा था। इसे दया का नाम दूं या स्नेह का, पर मेरा मन उसे भुला नहीं पा रहा था।
आज हफ्ते भर बाद मैं वहां जा पाया था। मेरे मन में चोर समाया था। नजरें झुकाये बैठा था कि कहीं उससे सामना न हो जाये। दरअसल, मैं बड़ा डरपोक निकला। मन ही मन सोचता, मधु ने सोचा होगा कि आये थे बड़े तीसमारखां बनने, सारी जीवन-कहानी सुन ली, जैसे कोई फिल्म तैयार करनी हो और हमदर्दी दिखा के हो गये उड़नछू। मन में थोड़ी राहत मिली कि अभी वह नहीं आयी थी, पर भला इतनी देर तक मैं उससे कैसे बच सकता था। मैं बेचैन हो उठा। तमाम तरह की अटकलों को अंजाम देने में लग गया। नहीं-नहीं, लगता है वह यहां नहीं है, तो फिर वह गयी कहां? उससे मुझे मिलना ही पड़ेगा। ढेर सारे प्रश्र्न्न मन में पानी के बुलबुले की तरह बनने और बिगड़ने लगे। धैर्य की सारी सीमाएं तोड़ कर कैंटीन के मालिक से मैंने प्रश्र्न्नों की बौछार शुरू कर दी, पर उस निर्दय-हृदय से आशा के विपरीत उत्तर पाकर मैं और भी अधीर हो उठा।
आखिरकार पता चल गया था कि एक कप-प्लेट तोड़ देने के जुर्म में उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। अब वह जाएगी कहां? कैसे बीमार मां की देखभाल व इलाज कर सकेगी? नहीं-नहीं उसका पता करना ही पड़ेगा। पर समस्या उसका पता मालूम करने की थी। शुा था, उसके सहयोगी नौकर का, जिसने मुझे उसके घर ले चलने का आश्र्वासन दिया। मैं व्याकुल मन से उसके घर की तरफ चल पड़ा। पर, यह क्या? उसके घर के सामने भीड़ कैसी? मैं सहम गया। सारा मामला स्पष्ट था, उसकी मां अब इस दुनिया में नहीं रही। लगता है, बेचारी यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी थी। मधु तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो, शून्य में निहार रही थी। उसे काटो तो खून नहीं। मेरा मन अंदर तक हिल गया था।
अब मुझे शीघ्र निर्णय लेने की जरूरत थी। पर मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं? ढेर सारी बातें दिमाग में तस्वीर की तरह आतीं और चली जातीं। रह-रहकर श्रीमती जी की आदतें भी शामिल हो जाती थीं। उस दिन मधु का एक बार जिा भर कर देने से वह कितनी चिढ़ गयी थीं। “”तुम्हें अपने बच्चों की परवाह नहीं है क्या, जो चले हो भिखारियों की जमात इकट्ठी करने।” उस दिन ले-देकर किसी तरह पीछा छुड़ा लिया था। आज, दोबारा इस बात पर उनका ध्यान कर थोड़ा सहम गया था। अगर कोई निर्णय लेता भी हूं तो भला श्रीमती जी के सहयोग के बिना मैं क्या कर पाऊँगा।
मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका था। इसी उधेड़बुन में समय का ख्याल ही नहीं रहा। लोग मेरी तरफ घूरने लग गये थे कि मैं कौन हूं तथा यहां क्यों इतनी देर से खड़ा हूं। इस दौरान मैं श्रीमती जी की परवाह किये बिना उसे स्कूल में दाखिला दिलाने का निर्णय ले चुका था, वह भी ऐसे स्कूल में जहां रहने व खाने-पीने की व्यवस्था हो। हालांकि स्वाभिमानी मधु इनकार करती रही। अपने नियमित मासिक से उसके लिए अलग व्यवस्था कर दी थी, जो उसे हर माह मिल जाता था। मेरे लिए वह एक स्नेह का पात्र बन गयी थी।
समय का चा चलता रहा। इसी बीच मेरा तबादला बनारस हो गया। पर मैंने यादों में उसे बराबर बनाये रखा। श्रीमती की अस्वस्थता एवं बच्चों की पढ़ाई की वजह से मैं उसे कब भूल गया, पता ही नहीं चला। इस तरह समय के 18 वर्ष गुजर गये। इस दौरान मैं भी अस्वस्थ रहने लगा। श्रीमती जी चिन्तित रहने लगी थीं। बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित हो रही थी। तभी मेरे सीने में तकलीफ बढ़ गयी। श्रीमती जी ने मुझे सिविल अस्पताल में भर्ती करा दिया। मैं एकदम हताश हो चला था। मुझे लग रहा था, शायद मैं न बच पाऊँ। महिला डॉक्टर की देखरेख में मेरा इलाज चल रहा था। पता नहीं क्यों, भर्ती के दिन से ही मुझमें आशा की किरण प्रबल हो चली थी। डॉक्टर की दवा, दुआ व उसकी लगन ने वाकई जादुई असर दिखाया और मैं अब स्वस्थ होने लगा था।
मैं उस डॉक्टर से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। वह मेरे लिए एक आदर्श बन गयी थी। अस्पताल में भर्ती के दिन से लेकर रोजाना किसी न किसी विषय पर मुझसे वह जरूर बात करती थी। बात ही बात में मैं अपनी नौकरी तथा परिवार वालों का जिा भी कर दिया करता था, पर उसके बारे में पूछने पर वह सहजता से टाल जाती थी।
आज मैंने निश्र्चय कर लिया था कि उससे उसके निजी जीवन के बारे में जानकर ही रहूंगा। मेरी जिद के आगे वह कुछ न कर सकी तथा अपनी जिन्दगी के पन्ने-पलटने लगी। अपने दुःख भरे बचपन की दास्तां सुनाते-सुनाते वह रोने लग गयी थी और मैं आश्र्चर्यचकित हो खुशी से बिफर पड़ा। यह वही मधु थी, जिसे मैं बचपन…। मुझे लगा जैसे मैं बिस्तर पर न होकर हवा में तैर रहा हूं। मेरी धड़कन जैसे दौड़ रही हो। मुझे विश्र्वास ही नहीं हो रहा था कि कैंटीन में काम करने वाली लड़की आज एक योग्य डॉक्टर बनकर मेरे सामने खड़ी है। मैं उसे यह नहीं बताना चाहता था कि मेरे कारण वह इस मुकाम तक पहुंची है। पर सच्चाई भी भला कहां छिपती है। वह क्षण भर में ताड़ गयी थी कि कुछ न कुछ बात है जिसके कारण मैं इतना भावुक हो उठा हूं। मैं इसे रहस्य ही रखना चाहता था, पर उसने अपनी कसम खिला दी, जिससे मुझे सब कुछ बताना पड़ा। वह मेरे कदमों में कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ी तथा फूट-फूट कर रोने लगी। अस्पताल के स्टाफ सहित सभी रोगी अवाक् थे। आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैं फिर भी संयत था, लेकिन उस समय मेरे भी सब्र का बांध टूट गया, जब उसने बिलखते हुए कहा, “”पिताजी, आपने अपनी अभागिन बच्ची को क्यों भुला दिया? मैं तो रोज उठते ही आपको याद करती रहती थी कि कभी भगवान मुझे उस नेक इनसान से जरूर मिलाएगा। आज मैं आपको पुनः प्राप्त कर धन्य हो गयी।”
आज इस “अनाम रिश्ते’ की मिठास मेरे और मधु के सिवाय भला और कौन समझ सकता था।
– शेषनाथ तिवारी
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