अन्नदाता

रोज सवेरे ही उठ जाता,

कंधे पर हल है उठाता।

दो बैलों की जोड़ी लेकर,

दूर कहीं खेतों में जाता।

जाड़ा-गर्मी बारिश सहकर,

खुद प्यासा और भूखा रहकर,

धूल-आंधी से कभी ना डरता,

दिन-रात वह मेहनत करता।

खेतों में अपना पसीना बहाकर,

बंजरधरा में फसल लहराकर,

जब तक पक ना जाये फसल

की बाली,

दिन-रात करता है रखवाली।

सबके लिए वह अन्न उपजाता,

तभी कहलाता है अन्नदाता।

– रवींद्र जोशी

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