हैदराबाद की समृद्घशाली ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हमेशा से ही यहॉं रहने वालों तथा देश व दुनिया के लोगों के लिए कौतूहल का विषय रही है। हैदराबादी तहजीब हो या यहॉं की गंगा-जमुनी संस्कृति, वास्तु, कला अथवा निजाम के अजीबोगरीब किस्से-कहानियॉं, सदैव लोगों में दिलचस्पी जगाती हैं और कुछ जानने की। इस बारे में उर्दू व अंग्रे़जी में कई संग्रहणीय किताबें आईं हैं, जिन्हें लोगों ने हाथों-हाथ लिया। किन्तु हिन्दी के पाठकों को इस बारे में कम ही पढ़ने को मिलता है। सो, अपने पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत है श्री नरेन्द्र लूथर द्वारा अंग्रे़जी में लिखित किताब “हैदराबाद ए बॉयोग्राफी’ का हिन्दी अनुवाद-
अहमदनगर ने मुगलों के दक्कन में घुसने को कई सालों तक रोके रखा, लेकिन चांद बीबी और उसके बाद अम्बर मलिक व अहमदनगर के हब्शी जनरल की राजनीतिक हत्याओं के बाद मुगलों का रास्ता साफ हो गया। उसके बाद मुगलों के हाथ बरार लगा और बरार के हाथ लगते ही उनका आमना-सामना हुआ गोलकोन्डा से। इससे पहले हालांकि मोहम्मद कुतुब शाह ने शाहजहां, जो उस समय बागी राजकुमार था, की मदद भी की थी, लेकिन बादशाह बनते ही उसने गोलकोन्डा उसके हवाले करने पर जोर डालना शुरु कर दिया। उसने सुल्तान के शासन में हो रही खामियों को उजागर करते हुए आदेश जारी कर दिया। इस आदेश के अन्तर्गत, शुावार को मस्जिदों में खुतबा के बाद बारह शिया इमामों और उसके बाद ईरान के शाह का नाम लिया जाना और मुगलों को दिये जाने वाले सालाना शुल्क की रकम अदा न करना, ऐसी विदेश नीति का अनुसरण करना जिससे मुगलों का नुकसान होता था- जैसे मुद्दों को उछाला गया था। सन् 1636 में अब्दुल्लाह ने उनकी हर बात को मानते हुए मुगल शासक के साथ आधीनता की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।
सुन्नी प्रथा के अनुसार शुावार का खुत्बा मुगल सम्राट के नाम पर पढ़ा जाने लगा। साथ ही चार खलीफाओं का नाम भी लिया जाने लगा। नए सिक्कों पर भी मुगल सम्राट का नाम अंकित किया जाने लगा। विदेशी मामलों में आपसी मित्रता का खास ख्याल रखा गया। इन सबके लिए शाहजहां से अब्दुल्लाह को शाबाशी मिली। तीन दिन के बाद राजकुमार औरंगजेब को दक्कन का वाइसराय नियुक्त कर दिया गया।
यहां सबसे रोचक बात यह है कि जहां एक तरफ अब्दुल्लाह मुगलों के सामने कमजोर पड़ता जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ वह दक्षिण में अपने साम्राज्य को फैला रहा था। उसने 1642 में अपनी सेना को कर्नाटक पर आामण करने के लिए भेजा। इस सेना का प्रमुख था मोहम्मद सईद। उसने देखते ही देखते उदयगिरी, कड़प्पा, चेन्नई, तिरुपति और चन्द्रागिरी पर कब्जा कर लिया। विजयनगर के बचे-खुचे शासन का पूरी तरह से सफ़ाया करके वह सान थोम और चेन्नई की तरफ बढ़ गया। इस सबसे खुश होकर अब्दुल्लाह ने सईद को मीर जुमला (प्रधानमंत्री) की पदवी दे दी। गोलकोन्डा और बीजापुर की सेनाओं के छोटे-से टकराव के बाद ये फैसला हुआ कि जीते हुए हिस्सों को आपस में बांट लिया जाए। एक तिहाई गोलकोन्डा को तो दो-तिहाई बीजापुर को।
मीर जुमला द्वारा कर्नाटक की जीत गोलकोन्डा के लिए शुभ शगन के रूप में श्राप बनकर सामने आई। पूरे घटनााम के कारण मीर जुमला को यश और र्कीति तो मिली ही, साथ ही वह यकायक बहुत धनी भी हो गया। इतना मान-सम्मान, धन-दौलत मिलने पर उसकी उच्चाकांक्षाओं ने सिर उठाना शुरु कर दिया और उसने अलग से अपनी सेना तैयार कर ली। गोलकोन्डा की सेना का मुखिया तो वह पहले से ही था। उसने अपना मुख्य कार्यालय कड़प्पा में गन्डीकोटा में स्थापित कर लिया और एक संप्रभु शासक की तरह बर्ताव भी करने लगा। उसने अपने स्वामी अब्दुल्लाह की जड़ें काटने के लिए औरंगजेब से भी संबंध बढ़ाने शुरु कर दिए।
इन सबके कारण मीर जुमला में अभिमान आना स्वाभाविक था, लेकिन उसके घरवालों का घमंड सबकी समझ से बाहर था। एक दिन उसका पुत्र मोहम्मद अमीन नशे की हालत में अपना घोड़ा लेकर गोलकोण्डा के राजमहल में घुस गया। सिपाहियों ने जब उसे रोकने की कोशिश की तो उसने न केवल उनके साथ दुर्व्यवहार किया, बल्कि उल्टे राज-सिंहासन पर बैठकर उल्टी कर दी। इस हरकत से गुस्से में आए अब्दुल्लाह ने तुरंत उसके पिता को उसके सामने पेश करने का हुक्म दिया। अपनी आज्ञा के पालन को पक्का करने के लिए बेटे को बंदी बनाकर उसकी जायदाद को अपने कब्जे में ले लिया।
मीर जुमला जानता था कि उसकी किस्मत गोलकोन्डा के साथ बंधी है। साथ ही वह अपनी बेशुमार दौलत और सेना की ताकत से भी वाकिफ था। ये दोनों ची़जें दक्कन में मुगलों के सपने को पूरा करने में काफी सहायक हो सकती थीं। औरंगजेब के द्वारा मीर जुमला ने मुगल शहंशाह शाहजहां के साथ औपचारिक मुलाकात का समय पक्का कर लिया।
व्यावहारिक सलाम करने के बाद उसने एक बड़ा पेकिट शाहजहां के सामने खोल कर रख दिया। एकाएक पूरा हॉल उस रोशनी से जगमगा गया। शाहजहां ने हैरानगी से पूछा, “”ये क्या है?”
“”मेरी तरफ से एक छोटा-सा उपहार।”
“”हमने आज तक इतना बड़ा और शानदार हीरा नहीं देखा।”
“”मैं इसीलिए तो इसे यहां लेकर आया हूं ताकि ये उसके पास रहे, जिसके पास उसे होना चाहिएहिंदुस्तान के शहंशाह के ताज पर।”
शाहजहां ने झुककर उसे हाथ लगाया, “”वाकई यह अद्वितीय है।”
“”जहांपनाह ठीक फरमा रहे हैं, इस जैसा दूसरा है भी नहीं।”
“”लेकिन तुम्हें ये कहां से मिला, मीर जुमला?”
“”गोलकोन्डा की खदानों से। इसे कोहे-ए-नूर के नाम से बुलाया जाता है, जिसका मतलब है रोशनी का पहाड़।”
“”कोहे-ए-नूर, हमने इसके बारे में सुना था, लेकिन फिर लगा, शायद किसी किस्से-कहानी की बात है। हम तुम्हारे इस तोहफे से खुश हुए। इस खुशी के मौके पर हम पांच हजार सैनिक दलों की कमान तुम्हारे सुपुर्द करते हैं।”
मीर जुमला ने सात बार झुककर शहंशाह को र्फशी सलाम कहा। “”आपका ये सेवक दुनिया के शहंशाह के लिए अपने खून का आखिरी कतरा देने से भी नहीं हिचकिचाएगा।”
“”इस खुशी के मौके पर हम तुम्हें मौअज्जम खान का खिताब देते हैं। अब जरा हमें बताओ कि कुतुब-उल-मुल्क के क्या हालचाल हैं।”
“”हालांकि दुनिया के सरताज ने उन्हें काफी ठीक कर दिया है, लेकिन अभी भी पूरी तरह नहीं। अब्दुल्लाह को लगता है कि वह आज भी आपके सामने आपकी आदेश की अवहेलना कर सकता है। उसने मेरे बेटे को तो छोड़ दिया है, लेकिन उसकी जायदाद आज भी उसके कब्जे में ही है।”
“”तुम चिन्ता मत करो। हम तुम्हारा ह़क तुम्हें वापस दिलवाएँगे।”
उसी समय अब्दुल्लाह को मीर जुमला के बेटे को रिहा करने और उसकी जायदाद वापस देने का हुक्म करने का आदेश जारी किया गया। दक्कन के वाइसराय शाहजहां के बेटे औरंगजेब को इस बात का निर्देश दिया गया कि वह गोलकोन्डा जाकर सुनिश्र्चित करे कि शाहजहां के आदेश का पालन हो। औरंगजेब को भेजने के पीछे एक और वजह भी थी और वह थी अब्दुल्लाह द्वारा सालाना कर का भुगतान न किया जाना।
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