मनमोहन सरकार और वामपंथियों के बीच पिछले करीब साढ़े चार साल से चल रहे गठबंधन का अंत हो गया है। परमाणु करार पर तकरार इतना बढ़ा है कि सत्ता के लिए कांग्रेस का साथ देने वाले वाम मोर्चा ने सरकार से किनारा कर लिया। बात-बेबात, मुद्दा-बेमुद्दा मनमोहन सरकार को आँखें दिखाने वाले कामरेडों के बिदक जाने पर अब समाजवादियों ने सरकार की बैसाखी बनकर उसे संभालने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली है। कल तक देश के लिए सत्ता के गलियारों में अपरिहार्य माने जाने वाले वामपंथी आज एकाएक “निरर्थक’ हो गये हैं, जबकि कल तक एक-दूसरे के लिए सार्थक होने का दम भर रहे थे।
दिल्ली में सियासी बिसात बिछ चुकी है, राजनीतिक मोहरे सज गये हैं। शह और मात का खेल शुरू हो गया है। सरकार को गिराने व उठाने की रणनीतियॉं बनने लगी हैं, जोड़-जुगाड़ तैयार हो रहा है। इस सबके बीच एक ऐसा चेहरा उभरा है, जिस पर टिकी हैं देश ही नहीं, दुनिया भर की निगाहें, एक ऐसा शख्स जो मनमोहन सरकार की बलि लेने को प्यासे लाल झंडा बरदारों के आगे दल-बल सहित आकर खड़ा हो गया है। कांग्रेस द्वारा टुकड़ा-टुकड़ा जोड़कर खड़ी की गई केंद्र की संप्रग सरकार से वामपंथियों के समर्थन वापस ले लेने पर संकटमोचक बनकर जो नेता उभरा है, वह कोई और नहीं, बल्कि वही जाना-पहचाना, गोल-मोल, कभी हंसमुख तो कभी धीर-गंभीर चेहरा है, जिसे अमर सिंह के नाम से जाना जाता है।
उत्तर-प्रदेश के अलीगढ़ जिले में 26 जनवरी, 1956 को हरीशचंद्र और शैल कुमारी के घर में जन्मे अमर सिंह ने बड़े निचले स्तर से ऊपर उठते हुए बुलंदियों को छुआ है। कुशल राजनीतिकार और जोड़-तोड़ में माहिर माने जाने वाले अमर सिंह ने चाहे स्कूली शिक्षा कोलकाता में हिन्दी माध्यम के स्कूल से ली, लेकिन उच्च शिक्षा की उनकी ललक और लगन के चलते उन्होंने प्रतिष्ठित अंग्रेजी माध्यम से कॉलेज में दाखिला लिया। यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ ला, कोलकाता से कानून में ग्रेजुएट अमर सिंह ने इसी शहर से ही राजनीति में कदम रखा। उन्होंने शुरूआत चाहे बड़ा बाजार कांग्रेस कमेटी के सचिव पद से की हो, लेकिन वह राजनीति की सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते हुए, आज सत्ता के गलियारों में अपरिहार्य नेता के रूप में उभरे हैं।
किसी जमाने में कट्टर कांग्रेसी नेता के रूप में पहचाने जाने वाले अमर सिंह को उत्तर-प्रदेश के राजनीतिक और औद्योगिक गलियारों में पहचान दिलाने में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की खासी भूमिका रही है। व्यापार के क्षेत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा भी अमर सिंह के मददगार रहे हैं। आर्थिक रूप से संपन्न और जान-पहचान बढ़ाने में माहिर व्यक्ति के लिए राजनीति की सी़ढियॉं चढ़ना आसान होता है और अमर सिंह के मामले में दोनों ही बातें कारगर बनी हैं। तत्कालीन कांग्रेस नेता माधव राव सिंधिया की मदद से अमर सिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में जगह पाने में कामयाब हुए थे। वीर बहादुर सिंह के शासनकाल में ही अमर सिंह की नजदीकियां तत्कालीन विपक्ष के नेता मुलायम सिंह यादव से बढ़ीं और वे अमर सिंह को सपा में ले आये तथा राज्यसभा तक पहुँचाया। राजनीति, व्यापार और ग्लैमर की दुनिया में पहचान बनाने वाले अमर सिंह को रिश्ते बनाने और फिर उन्हें निभाने की कला भी खूब आती है। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव हों या व्यापारी दिग्गज अनिल अंबानी, सहारा श्री सुब्रत राय या फिर फिल्मकार अमिताभ बच्चन, अमर सिंह ने जब एक बार दोस्ती का दामन थामा तो उसे आज तक निभाया भी है, फिर मौका चाहे खुशी का रहा हो या गम का, घड़ी हार की रही हो या फिर जीत की, अमर सिंह दोस्तों के लिए दुश्मनों से जूझे भी हैं, विरोधियों से उलझे भी हैं। हालांकि अमर सिंह सपा के महासचिव पद पर बैठे हैं, लेकिन मुलायम सिंह को उत्तर-प्रदेश में मुख्यमंत्री की गद्दी तक ले जाने में उनकी “किंग मेकर’ की भूमिका रही है। अमिताभ बच्चन आर्थिक संकट में फंसे तो अमर सिंह उनके लिए मददगार बनकर उभरे। जया बच्चन की राज्यसभा सदस्यता को लेकर विवाद हो या अमिताभ की जमीन का मुद्दा, अमर सिंह हर मौके पर दोस्तों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले हैं। अमर सिंह का मानना है कि उनकी सफलता के पीछे दोस्तों का बहुत बड़ा हाथ है। उनका यह भी कहना है कि वह जल्दी किसी को अपना दोस्त नहीं बनाते, लेकिन दोस्ती होने पर उसे अंत तक निभाते हैं। उनके मुताबिक हालांकि दोस्ती में दरारें डालने की कोशिशें दुश्मन बहुत करते हैं, लेकिन मुलायम, अमिताभ, अंबानी से मेरे रिश्तों को कोई ताकत नहीं तोड़ सकती। आज अमर सिंह अपनी पत्नी और दो जुड़वां बेटियों के साथ सम्पन्न जिंदगी बिता रहे हैं। उनका मानना है कि आज उनके पास जीवन की हर सुख-सुविधा है, लेकिन उन्हें इस बात का मलाल है कि राजनीति और व्यापार की भागदौड़ से भरी जिंदगी में उनके पास सुख भोगने का वक्त ही नहीं है।
अमर सिंह का रिश्ता विवादों से भी खूब रहा है। कभी उनकी रंगीन मिजाजी के चर्चे हुए हैं, तो कभी उन पर सत्ता का दलाल होने के आरोप लगे हैं। महाराष्ट में उत्तर भारतीयों पर हमले का मामला हो या शाहरूख खान के साथ टकराव का मुद्दा रहा हो, अमर सिंह ने बड़े मुखर होकर आवाज उठायी है। कभी उन्होंने सोनिया गांधी को विदेशी बहू का खिताब देकर प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठने से रोका तो कभी अपने तथा मुलायम सिंह के टेलीफोन टेप किये जाने के आरोप उछाले। वैसे अमर सिंह अपने विरोधियों के खिलाफ तीखे हमले करने और तल्ख तेवर अपनाने के लिए भी खूब जाने जाते हैं।
चार साल पहले सोनिया के दरबार से उपेक्षा के कड़वे घूंट पीकर बेआबरू हुए अमर सिंह आज सोनिया के वरदहस्त वाली मनमोहन सरकार को संकट से बाहर निकालने के लिए अपने दल-बल सहित जुट गये हैं। परमाणु करार पर सरकार को समर्थन देकर सपा ने वामपंथियों को चारों खाने चित कर दिया है। यह माना जा रहा है कि साढ़े चार साल तक सत्ता से जुड़े रहकर सुख भोगने वाले कामरेड महंगाई, निरक्षरता, आतंकवाद जैसे जनहितों के मुद्दों पर तो कभी जूझते दिखे नहीं और आज जब देसहित से जुड़े परमाणु करार पर सरकार आगे बढ़ रही है तो सरकार के पांव तले से जमीन खिसका दी। कहा जाए कि वामपंथियों ने इस मुकाम पर आकर सरकार से समर्थन वापस लेकर राजनीतिक रूप से आत्महत्या की है तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। उत्तर-प्रदेश में मायावती-राज से त्रस्त समाजवादियों ने परमाणु करार के भंवर में डूबती-इतराती मनमोहन सरकार को सहारा देकर कई निशाने साधे हैं। आगामी लोकसभा तथा कुछ विधानसभाओं के निकट भविष्य में होने वाले चुनावों के लिए सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन का संकेत देकर राजनीतिक समझदारी का तो परिचय दिया ही है, साथ परमाणु समझौते को देश के उद्घार के लिए जरूरी बताकर संप्रग सरकार के लिए तारनहार बनकर नायक की छवि भी हासिल कर ली है। अब यह देखना होगा कि अमरसिंह एंड पार्टी के रूप में उभरे ये नये नायक देश की राजनीति को क्या दिशा देते हैं?
– सुनील प्रभाकर
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