महाभारत युद्घ का प्रारंभ शंखध्वनि से होता है। सबसे पहले कौरव पक्ष की ओर से कुरुओं में वयोवृद्घ भीष्म शंख बजाकर युद्घ प्रारंभ करने का संकेत देते हैं। साथ में, दुर्योधन की सेना भी तुमुलध्वनि से सिंहनाद में शामिल होकर अपनी तत्परता का प्रमाण देती है।
यहॉं “सहसा’ शब्द इस तथ्य का द्योतक है कि प्रकृति किस ढंग से कार्य करती है? प्रकृति में पुण्य या पाप की वृद्घि को धारण करने की पर्याप्त नम्यता है। किन्तु जब किसी का प्रभाव सीमा से अधिक बढ़ जाता है और प्रकृति उसे धारण रखने में असमर्थ हो जाती है, तब सहसा टूटने की कगार पर आ जाती है। भीष्म का सहसा सिंहनाद और समस्त सेना की तुमुलध्वनि प्रकृति के महारुदन की द्योतक है, जो दुर्योधन और उसके समर्थकों द्वारा संचित अगणित पापों का घड़ा भरने की घोषणा करती है।
इतिहास साक्षी है कि युद्घ निर्दोषों पर अत्याचार के पूंजीभूत प्रभाव का परिणाम होते हैं। लोग दूसरों को यह जाने बिना सताते रहते हैं कि वातावरण में उनके अत्याचारों की वृद्घि से उनका अपना विनाश भी अवश्याम्भावी हो जाता है। व्यक्ति अपने कर्मों का फल स्वयं भोगता है।
ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।।14।। परवर्ती श्लोक में भीष्म के शंखनाद और कौरव सेना के तुमुलध्वनि के विरोधी सेना पर प्रभाव का वर्णन किया गया है। तब श्र्वेत अश्र्वों से जुते भव्य रथ में बैठकर माधव (भगवान श्रीकृष्ण) और पाण्डु-पुत्र अर्जुन भी अपने दिव्य शंख फूँकते हैं।
इस श्र्लोक में “ततः’ शब्द का विशेष महत्व है। इससे स्पष्ट होता है कि पाण्डव, अर्जुन और उनका पक्ष युद्घ की पहल नहीं कर रहे, बल्कि केवल कौरवों की करनियों का प्रत्युत्तर दे रहे हैं।
सत्यमार्गी लोगों का यह स्वाभाविक आचरण है। वे आाामक नहीं होते हैं। यदि वे कभी ऐसा करते हैं, तो केवल दैव (भाग्य) के उपकरण के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे होते हैं। पाण्डवों को चुनौती दी जाती है और उन्हें युद्घ का निमंत्रण स्वीकार करना पड़ता है। किन्तु वे युद्घ का पहला संकेत नहीं देते। जब वे दूसरे पक्ष से संकेत पाते हैं, तो उसका उत्तर देने के लिए बाध्य होते हैं और जब वे उत्तर देते हैं, तो उनका प्रत्युत्तर और अधिक शक्तिशाली होता है, क्योंकि उसमें सत्य की शक्ति भी सम्मिलित है।
श्र्लोक में “रथ’ शब्द का भी विशेष अभिप्राय है। रथ का अभिप्राय कायिक रचना शरीर से है। जीवन की युद्घभूमि में रथ विकास की स्वाभाविक प्रिाया का वाहन होता है। शरीर की इन्द्रियां अश्र्व हैं, जो शरीर रूपी रथ में जुती हुई हैं। “श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते’ अर्थात् श्र्वेत अश्र्वों से जुता हुआ, यहॉं श्र्वेत सत्य या पवित्रता का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कि रथ सत्यता के प्रभाव से चालित है। अब आत्मचेतना दिशा देती है, तब शरीर सत्व के प्रभाव से आगे बढ़ता है। भगवान् श्रीकृष्ण आत्मचेतना की प्रतिमूर्ति हैं। इस दृष्टि से वे जिस रथ को हॉंकें उसमें श्र्वेत अश्र्व ही जुते होने चाहिए। इस प्रकार रथ का पूरा स्वरूप ही उसके उद्देश्य को व्यक्त करता है।
“माधव’ का अर्थ सौभाग्य का देवता या मधु नामक राक्षस का हन्ता है। इस नाम का प्रयोग प्रकृति पर भगवान श्रीकृष्ण के नियंत्रण का संकेत देता है। यह स्पष्ट करता है कि सात्त्विक शक्तियों के समर्थकों के लिये श्रीकृष्ण सौभाग्य के देवता और पापाचार बढ़ाने वालों के लिये राक्षस के हन्ता सिद्घ होंगे। भगवान् श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के बीच निरापद होकर खड़े हैं। वे अपना शंख बजाकर उद्घोषणा करते हैं कि वे उन सभी के लिये हैं, जो उनकी उपस्थिति का लाभ उठा सकते हैं।
– महर्षि महेश योगी
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