प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में वैश्र्विक स्तर पर व्याप्त मंदी का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ने की आशंका जताई है। लेकिन उन्होंने इस प्रभाव को अस्थायी माना है और देशवासियों को इसका मुकाबला करने को तैयार रहने को भी कहा है। उन्होंने देश को मजबूत बैंकिंग प्रणाली के प्रति आश्र्वस्त रहने का भी आश्र्वासन दिया है। उनके अनुसार सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में धन जमा करने वालों को पूरी तरह आश्र्वस्त रहना चाहिए कि उनका धन सुरक्षित है और कोई भी बैंक नाकाम होने वाला नहीं है। ़गौरतलब है कि पिछले दिनों देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठापरक बैंक आईसीआईसीआई के डूब जाने की अफवाह बड़ी ते़जी से फैली थी जिससे इस बैंक के खाताधारकों में बड़े पैमाने पर अफरा-तफरी मच गई थी। प्रधानमंत्री का मौजूदा आश्र्वासन इस तरह की फैलने वाली अफवाहों को निरस्त करने की कोशिश ही संदर्भित समझी जानी चाहिये। उन्होंने शेयर बा़जार में हो रही ते़ज गिरावट को एक वित्तीय तूफान का नाम दिया है और कहा है कि इसकी वजह से औद्योगिक देशों में दीर्घकालीन मंदी के बने रहने की संभावना व्यक्त की जा रही है, लेकिन भारतीय प्रणाली पर इसका प्रभाव अस्थाई होगा, क्योंकि हमारे निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पर्याप्त पूंजी है और उनकी वित्तीय प्रणाली भी नियमित तथा मजबूत है।
इतना सारा आश्र्वासन देने के बावजूद हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि इस आर्थिक मंदी का प्रभाव हमें किस सीमा तक प्रभावित करेगा, फिलहाल इसका कोई तथ्यपरक आकलन नहीं प्रस्तुत किया जा सकता। उन्होंने देश को आश्र्वस्त किया है कि सरकार ऋण के प्रवाह की सावधानीपूर्वक निगरानी कर रही है और आवश्यकता के अनुसार इन बैंकों को अतिरिक्त नकदी भी उपलब्ध करायेगी। प्रधानमंत्री का आश्र्वासन देश को किस सीमा तक भरोसा दे पाता है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था संकट में आ गई है, इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता। शेयर बाजार लगातार गोते लगाता जा रहा है और अब तो वह दस ह़जार के मनोवैज्ञानिक आंकड़े से नीचे भी उतरने लगा है। ़गौरतलब है कि इसी वर्ष के शुरुआती दिनों में इसने अपनी उछाल इक्कीस ह़जार से अधिक की दर्ज करायी थी। कई जाने-माने अर्थशास्त्रियों का अनुमान यही है कि एक लंबे अरसे तक शेयर बाजार दस ह़जार की सीमा के आसपास ही बना रहेगा। वैसे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने अपनी रेपो-दर में एक प्रतिशत की कमी कर दी है। यह कटौती आरबीआई ने 2004 के बाद पहली बार की है। इससे बैंक आर.बी.आई. से अब 9 प्रतिशत की जगह 8 प्रतिशत की ब्याज दर पर क़र्ज ले सकेंगे। इसके पहले आर.बी.आई. ने अपने सी.आर.आर. में ढाई प्रतिशत की कमी के साथ अन्य उपाय कर बैंकिंग तंत्र में 1,45,000 करोड़ रुपये डाले थे। वित्तमंत्री ने इस आर्थिक मंदी से उबरने के लिए किये जा रहे उपायों के संबंध में कहा है कि सरकार इस बारे में जागरूक है कि महज बैंकिंग प्रणाली को धन मुहैय्या कराना ही पर्याप्त नहीं होगा, अपितु धन के प्रवाह को उद्योग, व्यापार और व्यवसाय तक भी लेना जाना होगा।
इसमें कोई शक नहीं है कि सरकार की ओर से सारे प्रयत्न किये जा रहे हैं कि अमेरिकी सब-प्राइम संकट से पैदा हुई वैश्र्विक मंदी के प्रभाव को रोका जा सके अथवा इसे कम से कम किया जा सके। फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि इस संकट का प्रभाव किस सीमा तक हमें प्रभावित करेगा, इसका कोई तथ्यपरक आकलन हमारे पास नहीं है। ऐसी हालत में हमें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि ये प्रयास अंधेरे में तीर चलाने जैसे हैं। हमने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि ये संकट मजबूत और कई देशों के लिए आदर्श बनी अमेरिकी अर्थव्यवस्था में किन वजहों से आये। हमें अपनी अर्थव्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए यह जानना बहुत ़जरूरी है कि वे वजहें जिन्होंने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जड़ से हिला दिया है, हमारी अर्थव्यवस्था में भी तो नहीं हैं। कहा जा रहा है कि यह संकट अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सब-प्राइम संकट है। मतलब अमेरिकी बैंकों ने रीयल इस्टेट में अंधाधुंध कर्ज बॉंटे और भारी मुनाफा कमाने के लोभ में ऋण शर्तों में इतनी ढील दे दी कि डिफ़ाल्टरों को भी बड़े-बड़े कर्जों का आवंटन किया गया। इस हालत में बैंकों की पूंजी के डूब जाने का अनुमान और आशंका बहुत पहले जताई गई थी लेकिन मुनाफा कमाने के लोभ ने इस तरह की चेतावनियों पर कान देना उचित नहीं समझा। लिहाजा एक बहुत बड़ी पूंजी डूब गई और दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी लेहमैन तो दिवालिया हो गई। हमको भी इस संदर्भ में सोचने की ़जरूरत है कि हमारे बैंकों ने रीयल इस्टेट के धंधों में किस सीमा तक क़र्ज बांटे हैं। उन कर्जों की अदायगी का रेशियो भी हमें समझना होगा। इसके अलावा भी बैंकिंग प्रणाली को सक्षम बनाये रखने के लिए इस पूरी प्रणाली को इस दृष्टि से समझना ़जरूरी है कि बैंकों ने जिन-जिन मदों में कर्जे बॉंटे हैं उनकी अदायगी किस सीमा तक हो रही है। अगर अमेरिकी आर्थिक संकट से सीख लेकर हमने अपनी बैंकिंग प्रणाली में आवश्यक सुधार नहीं किये तो यह संकट हमें भी नहीं ग्रसेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती।
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