मानव बुद्घिमान प्राणी है, साथ में उसे भावपूर्ण हृदय भी मिला है, यह सृष्टि केवल एक संयोग है, ऐसा वह सहजता से नहीं मान सकता। सृष्टि के पीछे कोई निश्र्चित शक्ति काम करती है, ऐसा सतत् उसे महसूस होता है। उस सृष्टि चालक के स्वरुप और उसके साथ अपने संबंधों के बारे में वह हजारों वर्षों से विचार करता रहा है। शास्त्रों के वाक्य, महापुरुषों के अनुभव और सृष्टि के प्रेरक दृश्य इसकी विचारधारा में सहायक हुए हैं।
निश्र्चय ही सृष्टि का सर्जन हुआ है। उसका पालन हो रहा है और जिसका सर्जन होता है, उसका विनाश भी निश्र्चित है, इस न्याय से सृष्टि का विसर्जन भी होगा, ऐसी उसकी बुद्घि स्पष्ट रुप से कल्पना कर सकती है। इसी कल्पना को सर्जक, पोषक और संहारक के रुप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को साकार रुप में स्वीकार कर, मानव ने ठोस स्वरुप दिया है। प्रारंभ की इस विशुद्घ कल्पना में मानव की अज्ञानता के कारण ये तीनों देव अलग हैं, ऐसा माना जाने लगा। इतना ही नहीं, परन्तु इन तीनों के संबंध अच्छे नहीं हैं, ऐसा साबित करने का भी तत्-तत् देव के उपासकों ने प्रयास किया। वास्तव में ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही शक्ति को दिए गए अलग-अलग नाम हैं। विभिन्न प्रकार के काम करता हुआ कोई व्यक्ति अलग-अलग नाम से पहचाना जाए तो उसे अलग-अलग व्यक्ति मानने की मूर्खता हम नहीं कर सकते। व्यवहार में न चलने वाली यह गलत धारणा धर्म में सहज पैठ कर गई है। वास्तव में सृष्टि के पीछे रही हुई शक्ति एक और अविच्छिन्न है। उसके द्वारा जब अलग-अलग काम होते हैं, तब उसे अलग-अलग नाम देने का शास्त्रकारों का संकेत है।
एक ही चिरंतन शक्ति की शास्त्रकारों ने कभी पुरुष रुप में तो कभी स्त्री रुप में कल्पना की है। वास्तव में वह शक्ति न तो पुरुष है और न ही स्त्री है। उस शक्ति के पौरुष और कर्तृव्य की कल्पना करके हमारे ऋषियों ने उसे पुरुष ठहराया है, तो उसमें रहे प्रेम और कारुण्य को देखकर शास्त्रकारों ने उसकी स्त्री रुप में कल्पना की है। “त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ यहॉं मॉं भी है और पिता भी है। इन दोनों के गुणों का समावेश जिसमें हो, ऐसे रुप की कल्पना करके शास्त्रकारों ने भगवान शिवजी को अर्धनारीश्र्वर का रुप दिया है।
कालिदास ने भी रघुवंश में लिखा है- “जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्र्वरौ’ यहॉं पितरौ शब्द की व्याख्या में माता भी छिपी हुई है। “माता च पिता च पितरौ’। स्त्रीत्व के गुण और पुरुषत्व के गुण एक मानव में एकत्र होते हैं, वही मानव ज्ञान का परमोच्च रुप है। केवल नारी के गुण मुक्ति के लिए उपयोगी नहीं हैं। मुक्ति पाने के लिए नर और नारी के गुण इकट्ठे आने चाहिए। इसलिए द्वैत निर्माण होते ही भगवान में नर-नारी दोनों के गुण एकत्र हुए। उमा-महेश्र्वर में पौरुष, कर्तव्य, ज्ञान और विवेक जैसे नर के गुण हैं, उसके साथ-साथ स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे नारी के गुण भी हैं, इसलिए वह पूर्ण जीवन है।
भगवान को द्विलिंगी प्रजा उत्पन्न करने का कोई कारण नहीं था। भगवान एकलिंगी प्रजा उत्पन्न कर सकते थे। प्राणिशात्र का अभ्यास करने से मालूम होगा कि बहुत-सी प्रजा एकलिंगी है, परन्तु भगवान की द्विलिंगी प्रजा विकसित है, इसलिए बाप भी चाहिए और मॉं भी चाहिए। बालक को बाप के गुण मिलने चाहिए और मॉं के गुण भी मिलने चाहिए, तभी वह विकसित जीव कहा जाता है। स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनना चाहिए, अर्थात् पुरुष में स्त्री के और स्त्री में पुरुष के गुण आने चाहिए। इस तरह मिलकर ही विकास होता है। स्त्री के गुण पुरुष ले और पुरुष के गुण स्त्री ले, यही विकास है। इसीलिए हमें जन्म देने के लिए मॉं और बाप दोनों की जरुरत पड़ी। स्त्री-पुरुष विवाह करने पर ही पूर्ण होते हैं, ऐसा हम कहते हैं। पुरुष के विवेक, कर्त्तव्य, पौरुष, निर्भयता, ज्ञान- ये सभी गुण स्त्री में आने चाहिए और स्त्री के लज्जा, स्नेह, प्रेम, दया, माया, ममता, इत्यादि गुण पुरुष में आने चाहिए। स्त्री-पुरुष के गुणों के मिलने से ही उत्कृष्ट मानव का सर्जन होता है। जब भगवान ने सृष्टि का निर्माण किया, तब भगवान के पास नर और नारी के गुण एक साथ थे। इसका अर्थ यही है कि नरत्व और नारीत्व परस्पर चिपक बैठे। इसलिए “अर्धाङ्गे पार्वती दधौ।’ ऐसा कहा जाता है। भगवान ने आधा अंग पार्वती को दे दिया, इसका कारण यही है। दार्शनिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष के गुण जहॉं एकत्र हों, उसे ही पार्वती-परमेश्र्वर कहते हैं। भगवान सिर्फ कर्त्तव्यवान नहीं, वे कृपालु, दयालु, मायालु, वत्सल और स्नेहीपूर्ण भी हैं। इसी तरह उनमें पौरुष, निर्भयता, विवेक भी है। ये सब मिलकर ही शिवजी होते हैं। उसे ही उमा-महेश्र्वर कहते हैं।
अर्धनारी नटेश्र्वर पुरुष और प्रकृति, उमा और महेश, नर और नारी के संयोग के संयोग का प्रतीक है। स्त्री और पुरुष के श्रेष्ठ गुणों को जोड़कर यदि हम पूर्ण जीवन की ओर प्रस्थान करेंगे, तभी हमने अर्धनारी नटेश्र्वर की, संपूर्ण शिवत्व की पूजा की है, ऐसा माना जाएगा।
– पांडुरंग शास्त्री आठवले
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