महाभारत के युद्ध का पन्द्रहवां दिन था। द्रोणाचार्य का वर्चस्व फिर भी पूरे वेग पर था। पाण्डवों को विजय कोसों दूर दिखने लगी। तब श्रीकृष्ण ने सुझाया, “”सेनापति द्रोण का यह प्रण है कि उनके पुत्र अश्र्वत्थामा की मृत्यु होने के बाद वे शस्त्र डाल देंगे। जब वे निःशस्त्र बन जाएँगे, तब उनका काम तमाम करना आसान होगा। पर अश्र्वत्थामा को मार गिराना भी टेढ़ी खीर है, इसलिए मध्यम मार्ग है। मालवपति के गजराज का नाम भी अश्र्वत्थामा है।
अतः महाबली उस हाथी को मारें और युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के पास जाकर जोर से कहें – अश्र्वत्थामा हतः, अश्र्वत्थामा हतः। ऐसा करने से वे इस विश्र्वास से शस्त्र डाल देंगे कि धर्मपुत्र असत्य नहीं बोलता। माधव की यह सारी मन्त्रणा सुनकर धर्मपुत्र चौंके। ऐसा असत्य बोलने में अपनी असमर्थता व्यक्त की और साथ बहुत बड़ा धोखा बताया।
बात की लगाम खींचते हुए श्री हरि ने जैसे-तैसे इतना कहने के लिए युधिष्ठिर को राज़ी कर लिया, अश्र्वत्थामा मर गया, पता नहीं वह हाथी था या मनुष्य। वैसे ही किया गया। भीम द्वारा उक्त हाथी को पछाड़ देने पर सारे पांडव खुशी मनाते द्रोणाचार्य के पास आये और धर्मपुत्र जोर-जोर से पुकारने लगे – अश्र्वत्थामा हतः।” इसके आगे जब वे नरो वा कुंजरो वा” बोलने लगे, तब श्रीकृष्ण ने अपना शंख फूंक दिया। शंख के दिव्य घोष में “”नरो वा कुंजरो वा” तो द्रोणाचार्य सुन नहीं सके।
धर्मपुत्र कभी असत्य नहीं बोलते हैं, ऐसा दृढ़-विश्र्वास था। बस, इसी निर्णय पर पहुँचे कि मेरा पुत्र मर गया और शस्त्र डाल दिये। निःशस्त्र बने द्रोणाचार्य को मारने में क्या लगता था? खैर, द्रोणाचार्य पराजित कर दिये गये। विजय पांडवों को मिल गई। पर इतने से छलपूर्वक असत्य से सत्यभाषी युधिष्ठिर का रथ, जो सत्य के प्रभाव से जमीन से चार अंगुल ऊँचा रहता था, वह धड़ाम से पृथ्वी पर आ पड़ा। ऐसा कहा जाता है। सच है, व्यक्ति सबको धोखा दे सकता है, पर अपने आपको नहीं।
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