अष्टावा गीता

आत्माऽज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।

शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे।।2।।

जैसे सीप दृष्टि भ्रम से – चांदी जैसी लगती है।

आत्मा के अज्ञान से – विषयों में प्रीति होती है।।

आश्चर्य कि जैसे सीपी में चांदी की भ्रान्ति में लोभ पैदा होता है, वैसे ही आत्मा के अज्ञान से विषय-भ्रम के पैदा होने पर राग पैदा होता है।

रस्सी पड़ी देखी और समझा कि सांप है, तो भय पैदा हो जाता है। सांप है नहीं और भय पैदा हो जाता है। सांप तो झूठा, भय सच्चा। तुम भाग खड़े होते हो। तुम घबराहट में गिर भी सकते हो। भागने में हाथ-पैर तोड़ ले सकते हो और वहॉं कुछ था नहीं, सिर्फ रस्सी थी। सांप के भ्रम ने भयभीत कर दिया।

अष्टावा कहते हैं- ऐसे ही सीपी में कभी चांदी की झलक दिखाई पड़ जाती है। सीपी पड़ी है, सूर्य की किरणों में चमक रही है। लगता है चांदी! चांदी वहॉं है नहीं, लगता है चांदी है। चांदी जैसे लगने से उठाने का भाव पैदा होता है। चांदी के भ्रम से लोभ पैदा होता है। आश्चर्य कि भ्रम में भी लोभ पैदा हो जाता है। अष्टावा कहते हैं- आश्चर्य कि जैसे सीपी में अज्ञान से चांदी की भ्रान्ति से लोभ पैदा होता है, वैसे ही आत्मा के अज्ञान से विषय भ्रम के होने पर राग पैदा होता है। हे जनक! कहीं तेरे भीतर राग तो नहीं बचा है? कहीं थोड़ा-सा भी मोह तो नहीं बचा, लोभ तो नहीं बचा।

तुमने बहुत बार सुना है कि लोभ छोड़ो, मोह छोड़ो, ाोध छोड़ो, राग छोड़ो। परन्तु आत्मज्ञान हो तो राग, मोह, लोभ, ाोध अपने आप छूट जाता है। वह परिणाम है ज्ञान का। अन्धेरे को थोड़ी छोड़ना है। प्रकाश लाना पड़ता है, अन्धेरा अपने आप छूट जाता है। इसीलिए अष्टावा कह रहे हैं- आत्मज्ञान हो गया जनक! तेरी घोषणा से लगता है आत्म ज्ञान हो गया। अब मैं तुझ से पूछता हूँ- जरा खोज, कहीं राग तो नहीं। अभी भी कहीं पुराने भ्रम पकड़े हुए तो नहीं हैं।

– परसराम डालमिया

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