पूर्वोत्तर राज्यों में कुछ अशांति तो अर्से से चल रही है लेकिन पिछले दिनों, विशेषकर 30 अक्तूबर को असम में कई जगह जो शोले भड़के, उससे यह ़जरूरी हो गया है कि उस चिंगारी की तलाश की जाए जो समय-समय पर प्रचण्ड ज्वाला बनकर उभरती रही है। कभी पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर स्थित यह राज्य वर्तमान में बांग्लादेश की सीमा पर है और पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बनाने की अभूतपूर्व घटना के परिणामों से इस राज्य को पूरी तरह मुक्त नहीं कहा जा सकता। असम में मूल असमियों की समस्याओं को आड़ बनाकर कई अराजक तत्वों ने संगठन खड़े कर लिए। राजनीतिक उठापटक भी हुई। लेकिन छात्रों का आन्दोलन राजनीति के दांव-पेंच नहीं जानता था, इसलिए असम छात्रसंघ एक बार सरकार बनाकर बिखर गया। इसके बाद कांग्रेस ने सत्ता पर कब्जा किया और वर्तमान विधानसभा में उसे बोडो पीपुल्स ांट का सहारा लेना पड़ा जो अलगाववादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन ांट ऑफ असम (उल्फा) का समर्थक माना जाता है। इस प्रकार सरकार भी उल्फा के कुछ न कुछ दबाव में आ गयी। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के प्रयास उल्फा को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने में असफल रहे। राज्य में अशांति का बीज कहॉं छिपा है, इसकी तलाश करने की फुर्सत ही नहीं मिली। इन्हीं सब लापरवाहियों का नतीजा 30 अक्तूबर को राज्य में 13 भयंकर विस्फोटों में दिखा जिनमें सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 66 लोगों की मौत हो गयी और 470 लोग घायल हुए।
इन विस्फोटों में प्रारंभिक तौर पर बांग्लादेशी आतंकवादी संगठन हूजी का हाथ माना गया। हूजी के आतंकवादी हमारे देश में कई वर्षों से सिाय हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हाईकोर्ट परिसर में बम विस्फोट हुआ था, उसमें भी हूजी के कार्यकर्ताओं का हाथ बताया गया था लेकिन बाद में जयपुर और बड़ोदरा में विस्फोट हुए तो इण्डियन मुजाहिदीन का नाम सामने आया। यह संगठन नया था और यह कहा गया कि पहले से सिाय स्टूडेण्ट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इण्डिया (सिमी) का ही एक बदला हुआ नाम है। आतंकवादियों को नाम बदलने में कोई देर नहीं लगती, लेकिन यह एक रणऩीति थी जिसमें देश की खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों को भटकने के लिए छोड़ दिया गया। कहने की ़जरूरत नहीं कि इस बीच देश की खुफिया एजेंसियों का सारा ध्यान सिमी और इण्डियन मुजाहिदीन की तरफ ही था। दिल्ली की जामिया बस्ती में मुठभेड़ के बाद उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में सिमी के कार्यकर्ताओं की तलाश युद्घ स्तर पर हो रही थी। फलतः हुजी की गतिविधियां नजरंदाज हो गयीं और उसे अपनी कारगुजारी का मौका मिल गया।
अब फिर उलझाव की स्थिति है। असम में आतंकवादी घटनाओं के बाद सबसे पहले उल्फा का नाम उभरता है। उल्फा के कार्यकर्ताओं ने इस बीच कई हिंसक वारदातें भी कीं और गैर-असमियों को परेशान भी किया। एक समय तो उन्होंने अल्टीमेटम दे दिया था कि राज्य के बाहर के लोग व्यापार करते हैं तो गुण्डा टैक्स दें वरना यहॉं से बोरिया-बिस्तर समेट कर चले जाएं। उनकी धमकी के चलते गुण्डा टैक्स की वसूली तेज हो गयी। उल्फा का जुड़ाव वहॉं के गरीबों और मूल निवासियों से है जो उनको प्रश्रय भी देते हैं। इसीलिए उल्फा के कार्यकर्ता भी या तो पुलिस बलों पर हमला करते हैं अथवा पूंजीपतियों का अपहरण करके धन वसूलते हैं। लेकिन उल्फा में भी आपसी गुटबंदी पैदा हो गयी और कई लोग इस पक्ष के थे कि सरकार से वार्ता करके सुविधा प्राप्त की जाए। लेकिन दूसरे गुट के लोग अपने गिरफ्तार नेताओं को छुड़ाना चाहते थे और इसी सिलसिले में वे बांग्लादेश के आतंकवादियों के सम्पर्क में आ गये। हूजी ने उल्फा के कार्यकर्ताओं को बरगलाने में सफलता भी प्राप्त कर ली। जानकारों के अऩुसार श्री तरूण गोगोई ने वर्तमान सरकार के कार्यकाल में जब केन्द्र सरकार और उल्फा नेताओं के बीच शांति वार्ता करायी तो सफलता के काफी आसार दिखाई पड़ रहे थे। लेकिन हूजी के नेताओं ने ही शांति वार्ता को आगे नहीं बढ़ने दिया।
इसका कारण बांग्लादेश की उत्पत्ति से जुड़ा है। हूजी के मुखिया मुफ्ती मोहम्मद हमान और अन्य लोगों के खिलाफ बांग्लादेश में मुकदमा चल रहा है। इन लोगों में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की अगुवाई वाली खालिदा जिया सरकार में शामिल मंत्री अब्दुल सलाम पिंटो भी शामिल हैं। हूजी के इन लोगों ने वर्ष 2004 में पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना पर बम से हमला किया था। यह भी ध्यान देने की बात है कि भारत की मदद से जिन शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश की स्थापना की थी, उनकी भी हत्या की गयी थी। हत्या करने वालों में पाकिस्तान के समर्थक और भारत के विरोधी तत्व ही थे। उनकी जड़ें अभी खत्म नहीं हुई हैं और वे भारत से इस बात का बदला लेने की कोशिश कर रहे हैं। पाकिस्तान को तोड़ने वाले भारत को वे लोग सीधे-सीधे तो सबक नहीं सिखा सकते लेकिन सीमावर्ती राज्यों में अलगाववादियों को भड़काने की भरपूर कोशिश करते रहते हैं। असम में उल्फा को इसीलिए मदद दी जा रही है।
सेना ने अभी पिछले माह ही बांग्लादेश में सिाय आतंकवादियों और वहॉं चल रहे प्रशिक्षण संस्थानों की सूची जारी की थी। सेना ने यह भी बताया था कि बांग्लादेश में सिाय पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से उल्फा के कई नेता हाथ मिला चुके हैं। इसी वर्ष सितम्बर में सिराज अहमद और भूपति दास नाम के दो युवक नलबाड़ी में बस के अंदर से गिरफ्तार हुए थे जिन्होंने इस बात को पुख्ता किया कि आईएसआई के प्रशिक्षण केन्द्रों पर उसे हथियार चलाना सिखाया गया। इस बीच तीन घटनाएं ऐसी हुईं जिनसे आईएसआई के विध्वंसकारी भड़क गये हैं। पहली बात यह कि पाकिस्तान के राष्टपति आसिफ अली जरदारी ने भारत के साथ समझौते की पेशकश करते हुए कश्मीर में अशांति फैलाने वाले लोगों को आतंकवादी की संज्ञा दी और कहा कि उन्हें जेहादी नहीं कहा जा सकता। दूसरी घटना यह हुई कि भारत के निर्वाचन आयोग ने जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव कराने की घोषणा कर दी और तीसरी घटना यह कि भारत में कई राजनीतिक दलों विशेष रूप से भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठनों ने देश में अवैध रूप से रह गये बांग्लादेशियों को खदेड़ने पर जोर दिया। कई शहरों में बांग्लादेशियों की छानबीन भी शुरू हो गयी है।
इस प्रकार आतंकवादियों का मकसद इन तीनों बातों में विघ्न डालने का है। वे नहीं चाहते कि पाकिस्तान की सरकार नरम रवैया अपनाये और भारत से बांग्लादेशियों को खदेड़ा जाए। साथ ही जम्मू-कश्मीर में जनता की चुनी सरकार भी आतंकवादियों को रास नहीं आती। इसलिए आतंकवादियों की धमकी से डरने की ़जरूरत नहीं है और न इस पर राजनीति करने की आवश्यकता है। असम की मूल समस्या को ़जरूर गंभीरता से लेना होगा। वहॉं के मूल निवासी लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। उन्हें किसी प्रकार समाज की मुख्यधारा से जोड़ना होगा और उनके लिए विशेष तौर पर विकास के कार्याम बनाने होंगे। इससे उल्फा जैसे संगठन अपने आप पंगु हो जाएंगे। असम में अशांति की यही चिंगारी है जिसे बुझाना ़जरूरी हो गया है।
– श्वेता
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