मेरा नाम अमीर अली है। उम्र 75 साल। मैंने दुनिया की बहुत गर्मी-सर्दी देखी है। पिछले लगभग चालीस साल से मैं एक ही घर में घरेलू नौकर के रूप में काम करता रहा हूँ। मेरे मालिक का नाम तराब फारूखी था। वह बहुत अच्छे सितार वादक थे और उससे भी अच्छे इंसान थे। गांव में उनकी काफी जमीन थी। मुस्लिम टाउन लाहौर में दो कनाल की कोठी “तराबी हाउस’ में रहते थे। बीवी का बीस-पच्चीस साल पहले देहांत हो गया था। दो बेटे थे, जो इंग्लैंड में रहते थे। कोई नौ साल पहले तराब साहब का इंतकाल हुआ, तो मेरा दिल चाहा कि उस घर को छोड़छाड़ कर कहीं दूर चला जाऊँ, मगर फिर तराब साहब की वसीयत आड़े आई। उन्होंने संसार से विदा होते समय कहा था कि मैं जीवन के शेष वर्ष इन दीवारों की छाया में ही बिताऊँ।
तराब साहब के देहांत के कुछ वर्ष बाद उनके बड़े बेटे नदीम ने पाकिस्तान में रहने का निश्र्चय किया, तो उस पुरानी कोठी को रेनोवेट करने की प्लानिंग की। कहने को तो यह पुरानी कोठी की मरम्मत व सजावट थी, लेकिन वास्तव में एक तिहाई कोठी को गिरा कर नये सिरे से निर्मित किया गया और शेष भवन में भी बुनियादी परिवर्तन कर दिये गये। अब यह दो कनाल की कोठी एक बिल्कुल नया और आधुनिक भवन था।
कोठी की इस कायापलट का काम इंजीनियर अशफाक चौधरी ने सम्पन्न किया था। अशफाक चौधरी ऐसे कामों का माहिर था। इससे पहले वह मुस्लिम टाउन की एक कोठी को “रेनोवेट’ कर चुका था। यह कोठी तराब साहब के स्वर्गीय मित्र मियां आदिल की थी। आदिल साहब और तराब साहब के देहांत में केवल एक वर्ष का अंतर था। आदिल साहब एक बड़े टेक्सटाइल मिल के मालिक थे। उनके इकलौते बेटे ने भी हाल ही में कोठी की मरम्मत व सजावट की थी और उसे काफी हद तक खूबसूरत और आधुनिक बना लिया था। मैं यहां जो घटना बयान करने जा रहा हूँ, उसका संबंध वास्तव में इस दूसरे भवन से ही है। इस भवन को आदिल मंजिल कहा जाता था।
यह दिसंबर की एक सर्द शाम थी। धुंध शाम से पहले ही लाहौर के गली-कूचों में उतर आयी थी। इंजीनियर अशफाक चौधरी आज कोठी के अंतिम मुआयने के लिए आया हुआ था। कोठी का काम पूरा हो चुका था। आज अशफाक चौधरी ने अपनी मौजूदगी में सजावटी लाइट्स भी लगवा दी थीं। मार्बल के फर्श पर लकड़ी का बुरादा बिखरा हुआ था। दरो-दीवार में ताजा रंगों की खुशबू और वार्निश की बास थी। हम ऊपरी मंजिल पर गैस हीटर के सामने बैठे थे। इतने में अशफाक चौधरी के मोबाइल की घंटी बजी। वह कुछ देर तक फोन पर सुनता रहा और स्वीकृति में सिर हिलाता रहा। उसके चेहरे पर खुशी के चिह्न थे। फोन बंद करने के बाद उसने मुझे संबोधित करते हुए कहा, “”चाचा, पता है, यह किसका फोन था?”
“”किसका था?”, “”मियां आदिल साहब के साहबजादे हमजा साहब का।”
“”क्या कह रहे थे?
“”कह रहे थे कि आदिल मंजिल की मरम्मत और सजावट बड़ी सफल रही है, जो हम चाहते थे, वह आखिरकार हो ही गया है।”
मैंने फिर प्रश्र्न्नवाचक नजरों से अशफाक चौधरी को देखा। इसके साथ ही मेरी दृष्टि खिड़कियों से गुजर कर दूर आदिल मंजिल की रोशनियों पर पड़ी, जिसका नया नाम अब आदिल लॉज रख दिया गया था। धुंध में लिपटा हुआ भवन अपने इर्द-गिर्द के भवनों से पृथक नजर आ रहा था। उसके ढांचे में एक खास प्रकार की भव्यता थी।
मैंने कहा, “”मैं समझा नहीं, “मरम्मत और सजावट’ के सफल होने से आपका क्या मतलब है?”
अशफाक चौधरी ने सिगरेट का एक गहरा कश लिया और कहा, “”हमने आदिल मंजिल के साथ जो कुछ किया, उसका एक ही उद्देश्य था कि किसी प्रकार अम्मां जी… यहां से जाने पर रा़जी हो जाएँ और कल वे यहॉं से चली गयी हैं। अपने बेटे हमजा की इच्छा के अनुसार डिफेंस कालोनी की बड़ी कोठी में शिफ्ट हो गयी हैं।”
यह समाचार मेरे लिए भी विस्मयकारी था, लेकिन बहुत अधिक नहीं। जिस वृद्घ महिला को अशफाक चौधरी “अम्मां जी’ कह रहा था, वह स्वर्गीय मियां आदिल की बीवी थी। उनकी आयु सत्तर वर्ष से कुछ अधिक ही होगी। बहुत नेक और दयालु औरत थीं। वह लगभग पचास वर्ष पहले ब्याह कर आदिल मंजिल में आयी थीं। वह और आदिल मंजिल बहुत कम एक-दूसरे से पृथक हुए थे।
मैंने इस समाचार पर विस्मय प्रकट किया, तो अशफाक और भी खुश नजर आने लगा। उसकी भूरी आँखों में गर्वीली चमक उभर आयी। सिगरेट के दो-तीन गहरे कश लेकर बोला, “”चाचा अमीर अली! तुम अम्मां जी के बारे में क्या जानते हो?”
“”हम नौकर लोग हैं जी, कितने भी पुराने हो जाएँ, लेकिन रहते तो नौकर ही हैं। बेशक! हम लोगों के पास जानकारी होती है, लेकिन यह जानकारी अधिक गहरी नहीं होती। जिसे आप अम्मां जी कह रहे हैं, उनका नाम जीनत बेगम है। मुझे तो यही पता है जी कि जीनत बेगम अपने पति मियां आदिल के देहांत के बाद आदिल मंजिल की वारिस थीं। आदिल साहब यह घर उनके नाम कर गये थे। अब जीनत बेगम का बेटा और बेटियां चाहती थीं कि जीनत बेगम डिफेंस वाले नये घर में शिफ्ट हो जाएँ और आदिल मंजिल बेच दी जाये, मगर जीनत बेगम रा़जी नहीं थीं। वह अपनी जिंदगी की आखिरी सांसें यहां आदिल मंजिल में ही लेना चाहती थीं।”
“”तुम्हारी जानकारी सही है, चाचा, लेकिन इससे आगे की बात का शायद तुम्हें पता नहीं। अम्मां जी यानी जीनत बेगम को आदिल मंजिल छोड़ने पर रा़जी करना एक बहुत मुश्किल काम था और यह काम इस सेवक के कारण हो सका है।” अशफाक चौधरी ने अपने सीने पर हाथ रखते हुए कहा।
वह बहुत खुशगवार मूड में था और यों लगता था कि अपने मूड की तरंग में मुझे बहुत कुछ बताना चाहता है। जल्दी ही मेरा अनुमान सही साबित हो गया। सोफे पर लगभग अधलेटा होकर अशफाक चौधरी ने कहना शुरू किया, “”यह लगभग दो साल पहले की बात है, जब मियां आदिल के साहबजादे हमजा से मेरी मुलाकात जिमखाना क्लब में हुई थी। हमारे बीच थोड़ी-सी दोस्ती भी हो गयी। हमजा ने मुझे बताया कि वह अपनी मुस्लिम टाउन वाली कोठी बेचकर डिफेंस की कोठी में शिफ्ट होना चाहता है, लेकिन उसकी बूढ़ी अम्मां पुरानी कोठी छोड़ने पर हरगिज रा़जी नहीं हैं। वह इस समस्या के कारण बहुत परेशान था। मैंने उसे समझाया कि यह एक आम समस्या है और कई घरानों में पायी जाती है। बुजुर्गों ने जिस चारदीवारी में जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा बिताया होता है, वह उसे छोड़ना नहीं चाहते। (ामशः)
वहां उनकी यादें होती हैं। गमी-खुशी के धूप-साये होते हैं। जिंदगी के आखिरी हिस्से में वे उन दरो-दीवार को खोना नहीं चाहते। यह एक खालिस मनोवैज्ञानिक प्रकार की समस्या है और इसे सुलझाने के लिए भी मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाना चाहिए। दूसरी अवस्था में जटिलता पैदा होती है। हमजा मेरी बातों से प्रभावित हुआ और मुझे अपने घर आदिल मंजिल ले आया। यहां मैं हमजा के मेहमान के रूप में दस-पंद्रह दिन रहा। मैंने कभी-कभार अम्मां जी से बात भी की और उनके विचार जानने का प्रयत्न किया। लोगों को समझने में मुझे सदा से दिलचस्पी रही है। यह काम मुझे “कंस्टक्शन’ और “इंटीरियर डेकोरेशन’ की तरह मजेदार लगता है। आदिल मंजिल में अपने आवास के समय मैंने अम्मां जी यानी जीनत बेगम को समीप से जानने का प्रयास किया। उनके बारे में मेरे पचानवे प्रतिशत अनुमान सही निकले। उन्हें आदिल मंजिल से इसलिए प्रेम था कि यहां उनकी और आदिल साहब की असंख्य यादें बिखरी हुई थीं। हर बालकनी, हर कमरा, हर खिड़की, बल्कि पूरी की पूरी इमारत यादों के घेरे में थी और केवल इमारत ही नहीं, उसके इर्द-गिर्द का वातावरण, गलियां, मकान सब उनके दिलो-दिमाग पर अंकित थे। अपने पति की मौत के बाद यह नक्श कुछ और गहरे हुए थे और पिछले आठ-दस वर्षों में बिल्कुल अमिट हो गये थे। मैंने हमजा को समझाया कि यदि वह अपनी वृद्घा अम्मां को अकस्मात् इस इमारत से पृथक करना चाहेगा, तो यह बहुत मुश्किल और हानिकारक होगा। हॉं, वह उन्हें बड़ी सावधानी के साथ थोड़ा-थोड़ा करके पृथक कर सकता है।” हमजा ने पूछा, “”वह कैसे, अशफाक साहब?”
मैंने कहा, “”आदिल मंजिल को बदलते चले जाएँ और डेढ़-दो वर्ष में बिल्कुल बदल दें। बात हमजा की समझ में आ गयी और हमने काम शुरू कर दिया।” कुछ क्षण विराम के बाद इंजीनियर अशफाक चौधरी ने नया सिगरेट सुलगाया और बात जारी रखते हुए बोला, “”तुम्हें याद ही होगा, चाचा अमीर अली। हमने आदिल मंजिल की “रेनोवेशन’ बड़ी धीमी गति से की थी। कभी कोई बालकनी गिरा दी। कभी कुछ खिड़कियॉं बदल दीं। बरसात के मौसम में छत के लीकेज का बहाना करके हमने दूसरी मंजिल के पूरे चार कमरे गिरा दिये थे और वहां संगमरमर के फर्श वाला चौड़ा टैरिस बना दिया था। हम बड़ी सावधानी से, लेकिन निरंतर लगे रहे और लगभग दो वर्ष में हमने आदिल मंजिल का नक्शा ही बदल दिया। यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या का मनोवैज्ञानिक और बड़ा सचेत समाधान था। एक-दो अवसरों पर अम्मां जी ने कुछ प्रतिरोध भी किया, मगर हमने उस प्रतिरोध को संभाल लिया।”
अशफाक चौधरी ने आँखों में बुद्घिमानी की चमक लेकर बात जारी रखी, “”जीनत बेगम का इकलौता बेटा तो अधिकतर देश से बाहर ही रहा था। बेटियां बहुत जल्दी ब्याह कर अपने घर की हो गयीं। जीनत बेगम की जिंदगी का केन्द्र मियां आदिल ही थे। उनकी मौत ने धीरे-धीरे जीनत बेगम को अतीत प्रिय बना दिया था। आदिल मंजिल के सभी नयन-नक्श में उन्हें अपना पति और अपना अतीत नजर आता था, लेकिन जब धीरे-धीरे आदिल मंजिल के सारे नयन-नक्श ही बदल गये, तो वह मोह जाल भी टूट गया, जिसने उन्हें अपनी पकड़ में ले रखा था। चार-छः माह का विलम्ब अवश्य हुआ था, लेकिन नतीजा वही निकला है, जो हमें चाहिए था। अभी हमजा ने फोन पर बताया है कि अम्मां जी अपनी रजामंदी से आदिल मंजिल यानी आदिल लॉज को छोड़कर गयी है।”
अशफाक चौधरी अपनी बात खत्म कर चुका था। मैंने कहा, “”आपको इंजीनियर के बजाय मनोवैज्ञानिक डॉक्टर होना चाहिए था।”
वह चुपचाप धुएं के छल्ले छोड़ता रहा और कुछ फासले पर फौजूद आदिल लॉज की धुंध में लिपटी रोशनियों को देखता रहा। कुछ ही देर बाद उसकी फर्म की गाड़ी उसे लेने आ गयी। वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। इसके बाद ही वह उस खास मूड में से निकल आया, जिसमें होते हुए उसने मुझे यह सारा ब्यौरा बताया था। उसने जरा तीखी नजरों से मुझे देखा, जैसे कह रहा हो, “”नौकर कितना भी पुराना और आदर-योग्य हो जाये, लेकिन नौकर ही रहता है। उसे अधिक कुछ बताना नहीं चाहिए। मैंने तुम्हें जो बता दिया, अब उसे हजम ही रखना।”
हॉं, नौकरों को अधिक कुछ बताना नहीं चाहिए, लेकिन बेखबर होते हुए भी हम जैसे पुराने वफादार नौकरों को बहुत कुछ मालूम हो जाता है, बल्कि अशफाक चौधरी जैसे स्वयं बने विद्वानों-चिंतकों से कुछ अधिक ही मालूम होता है। यह और बात है कि बुद्घिमान नौकर यह सब कुछ अपने तक ही सीमित रखते हैं। मैं अशफाक को विदा करने के बाद अपनी वृद्घ टांगों को घसीटता हुआ दोबारा हीटर के सामने आ बैठा। मैंने एक लम्बी सांस ली और बड़ी उदासी के साथ मन ही मन में मुस्कुरा दिया। अशफाक चौधरी काफी कुछ जानता था, लेकिन बहुत कुछ उसे मालूम नहीं था, जैसे उसे यह मालूम नहीं था कि जीनत बेगम सदा मियां आदिल से अप्रसन्न रही थीं। वह कारोबारी व्यक्ति महीनों घर से बाहर रहता था और जब घर में होता था, तब भी उसके दिलो-दिमाग पर कारोबार का कब्जा ही होता था। अशफाक चौधरी को यह भी मालूम नहीं था कि जीनत बेगम जवानी में बहुत खूबसूरत थीं और तन्हाई का शिकार भी… वह घंटों आदिल मंजिल के फर्स्ट फ्लोर पर एक मेहराबी खिड़की में बैठी रहती थीं और हमारे घर यानी तराबी हाउस की ओर देखती रहती थीं। उसे यह भी मालूम नहीं था कि मेरे साहब तराब अली यहां इस कमरे में बैठकर सितार बजाया करते थे, जहां अब मैं बैठा आग ताप रहा हूँ। सितार बजाते हुए उनकी निगाहें अक्सर आदिल मंजिल की मेहराबी खिड़की पर लगी रहती थीं और अशफाक को यह भी मालूम नहीं था कि जीनत बेगम के यहां से चले जाने का कारण आदिल मंजिल का गिराना और उसमें परिवर्तन करना नहीं था, तराबी हाउस का गिराना और तबदील होना था। जीनत बेगम की आँखों का तारा आदिल मंजिल नहीं, तराबी हाउस था। लगभग पैंतीस वर्ष तक फैली हुई उस खामोश और पाकीजा मुहब्बत की कहानी के बारे में अशफाक चौधरी कुछ भी नहीं जानता था।
– ताहिर जावेद मुगल
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