जीवन में हर पग पर नया अनुभव होता है। अनुभवों का नाम ही जीवन है। जितना अधिक अनुभव किसी क्षेत्र विशेष का हो जाता है, मानव उस क्षेत्र में उतना ही विद्वान हो जाता है। इसी तरह सफलता भी उसी तांत्रिक-साधक को ही मिलती है, जो अपने किताबी-ज्ञान के साथ उस क्षेत्र विशेष में कर्मकांड का अनुभव भी प्राप्त कर लेता है। बिना कर्म विशेष किए उस मार्ग का सफल साधक बना ही नहीं जा सकता।
क्या बिना व्यावहारिक शव-साधना के मात्र किताबी-ज्ञान से, शव-साधक बना जा सकता है? नहीं, कदापि नहीं। इस नश्वर संसार में ऐसे धूर्त साधकों की भी कमी नहीं है, जो अपनी धूर्तता-पाखंड के सहारे ही रोजी-रोटी चला रहे हैं। लंबा तिलक, तेल चुपड़ी लटें और दाढ़ी-धोती-कुर्ता उनके लिए सफल साधक होने का आइडेंटिटी कार्ड है।
इस साधक चोले की ओट में छोटे ठग छोटा धंधा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर महाठग-महान आत्माओं को ठग रहे हैं। महान मसीहाओं को कभी पुखराज, कभी पन्ना, कभी मोती, कभी मूंगा, कभी रूद्राक्ष पहनने की सलाह देकर, कभी उनके विकास का मार्ग प्रशस्त करने के लिए यज्ञ कराकर, अपने को पूजित करा रहे हैं, ये तथाकथित महाज्ञानी/महातंत्र सम्राट।
मेरे गुरु कहा करते थे, जिस डॉक्टर/पंडित/साधक का विज्ञापन प्रचार माध्यमों में आने लगे, तो समझ लो, उसके पास कुछ नहीं है। जो डॉक्टर, जो पंडित, जो ज्योतिषी अपनी गद्दी छोड़कर, दूसरी जगह व्यवसाय हेतु जाने लगे, जान लो उसके पास कुछ नहीं है। अगर वह योग्य होता, तो अपनी गद्दी पर ही पूजित किया जाता। उसके भगत या रोगी वहीं जाते।
तब, उस आयु में मैं पूज्य गुरुवर की बात पूरी तरह समझ नहीं पाया था। अब स्पष्ट हो चला है, गुरुवर का कथन पूर्णतया ठीक है।
प्रस्तुत आलेख की घटना एकदम सत्य है। एक साधक नवयुवक को दूसरे साधक ने ठग लिया। नवयुवक अनुभवहीन था? साधक की आयु अधिक थी, विशाल अनुभव था। उस धूर्त पंडित ने नवयुवक को ठग लिया, छोड़ दिया इस मायावी संसार में भटकने के लिए। हो सकता है पंडित जी अपनी जगह ठीक हों, पंडित जी का उद्देश्य था- अपने किसी भगत के हित की रक्षा करना। पंडित सफल हो गये नवयुवक के जीवन की राह बदल गई। युवक के जीवन में भयंकर परिवर्तन आ गया।
चंद्रमोहन ही तो नाम था उस नवयुवक का, लगभग 22-23 वर्ष की आयु का सुदर्शन नवयुवक। धार्मिक परिवार से था। नौकरी करता था। लखीमपुर खीरी में कमरा लेकर अकेला रहता था। मां बचपन में ही गुजर गई थी। संसार के थपेड़ों से घबरा कर वह साधना की राह पर चल निकला था। सरकारी नौकरी थी, सो वेतन थोड़ा ही मिलता था। घटना 1970 के आस-पास की है। अच्छा खाना, अच्छा पहनना, यौवन की मस्ती में मस्त, लेकिन मन में भयंकर घुटन। महाकाल भैरव की ओर रूझान हो गया, तो श्मशान जाने लगा। वहां कुछ दोस्त भी मिल गये, साधना की राह पर चलने वाले। कुल मिलाकर जिंदगी मस्ती में गुजर रही थी। जब मन आया, श्मशान घूम आये, नैनीताल घूम आये, हनुमान जी के दर्शन कर आये। जब मन आया, देवी के मंदिर चले गये, कभी मन हुआ तो रामायण पढ़ ली, कभी मन हुआ तो उपन्यास पढ़े, कभी मन हुआ तो फिल्मों के गीत सुने।
कुल मिलाकर मस्ती में मस्त था चंद्रमोहन। यौवन का तकाजा था, खाता-कमाता युवक था। स्वस्थ एवं सुंदर था। उसमें कोई खोट-ऐब नहीं था। हॉं, उसके मन में कामदेव जागृत हो गया। समय की मार से कोई नहीं बच सकता। युवक भी समय की मार का शिकार हो ही गया। नयन लड़ गये एक युवती से। मुझे अभी तक याद है। लता नाम था उस युवती का। धीर, गंभीर इंटर की छात्रा थी वह। उस युवक के प्रेम-जाल में फंस गई। दोनों काफी समय तक छुप-छुप कर मिलते रहे। बात मात्र प्रेम-पत्रों, उपहारों तक ही रही।
दोनों के प्रेम-संबंध आखिर कब तक छुपे रहते? कहते हैं, इश्क और खांसी छुपाये नहीं छुपते। उन दोनों का पवित्र प्रेम भी जग जाहिर हो गया। दोनों केवल शादी की बात ही नहीं सोच रहे थे, बल्कि पूरी तरह से इसके लिए प्रयास भी कर रहे थे। छोटा-सा शहर लखीमपुर, आखिर दोनों कब तक छुपते-छुपाते मिलते? एक दिन फजीता हो गया। दोनों के संबंधों के बारे में एक मित्र ने लता की मां से कह डाला। उधर, चंद्रमोहन भी युवती की मां को अपने संबंध के बारे में बता आया। समझदार मां ने बात संभाल ली और शादी के बारे में निर्णय शीघ्र करने का आश्र्वासन दिया। इसके साथ ही चंद्र को लता से कुछ समय तक न मिलने का वायदा भी करा लिया।
चंद्र ने सारी घटना मुझे बतायी। मैंने भी “प्रतीक्षा करो और देखो’ की राह पर चलने की ही सलाह दी।
शहर में एक पेशेवर पंडित जी अपने शिष्य के साथ आकर टिक गये। हर साल आया करते थे। किराये का मकान लेकर कुछ महीने गुजारते, किसी की जन्मपत्री बनाते, किसी का तावीज बनाते, किसी की लड़की की शादी का अनुष्ठान कराते, किसी को पुत्र प्राप्ति का जुगाड़ बनाकर देते। कुल मिलाकर पंडित जी अपने शिष्य के साथ आते और दो-तीन माह में ही अपने सालभर का खाने-पीने का जुगाड़ कर, अगली यात्रा पर निकल जाते। शहर के मध्यवर्गीय घरों में पंडित जी घुस गये थे।
चंद्र उनकी कोठरी के सामने से रोज निकलता था, लेकिन रूका कभी नहीं। उसने इसकी कोई जरूरत भी नहीं समझी।
लता के पिता पंडित जी के अनन्य भक्त हो गये थे। पंडित जी का आना-जाना उस घर में था। लता भी पंडित जी की प्रशंसक थी।
प्रेम-कहानी तब तक लगभग दो साल पुरानी हो चली थी। शायद दोनों ही पूर्ण रूप से एक-दूसरे को समर्पित हो चुके थे। प्यार तब भी था, शादी करने के लिए भटक रहे थे दोनों।
लता पर परिवार का शिकंजा कस गया था। वह चंद्र से मिलने के लिए छटपटाने लगी। संदेश भी आने-जाने बंद से हो गये। चंद्र भी टूट गया। वह आत्महत्या करने पर आमादा हो गया। लता ने एक दिन घर में रखे सारे आभूषण लेकर भागने का फैसला किया। चंद्र ने बड़ी ही मुश्किल से उस क्षण को टाल दिया। वापस भेज दिया लता को उसके घर अन्यथा सारी कहानी ही समाप्त हो जाती।
लता के पिता ने अपनी समस्या पंडित जी से बताई। पंडित जी ने हस्तक्षेप कर डाला या मेरे शब्दों में उस युवक को ठग डाला।
भारी दोपहर में पंडित ने सड़क से गुजरते हुए चंद्र को रोक लिया। चंद्र को अकेले में अपने पास बैठाकर लता-प्रकरण पर चर्चा की। शायद उसे वशीकरण-स्तंभन से अभिमंत्रित जल भी पिला दिया। चंद्र को लता से ही शादी कराने का पूर्ण आश्र्वासन दे डाला। चंद्र स्तंभित होकर पंडित जी से सब कुछ कह गया। अपना दिल खोलकर रख दिया। पंडित जी ने एक कोरा कागज लेकर उस पर चंद्र से हस्ताक्षर कराये ताकि कागज की पहचान रहे। चंद्र ने कागज के कोने पर अपने हस्ताक्षर कर दिये। कागज मोड़कर एक मोटे से ग्रन्थ में रख दिया गया। चंद्र से अगली दोपहर फिर आने को कहा गया।
सारी रात बेचैन रहा चंद्र। अगली दोपहर को लपक गया पंडित के पास। पंडित ने चंद्र से ही, वह कागज ग्रंथ में से निकालवाया। कागज वही था, वैसा ही था जैसे चंद्र ने लिखा था। कोरा था।
अब पंडित जी ने एक थाली में सिंदूर फैलाकर चंद्र से उस कागज पर सिंदूर मलने के लिए कहा। चंद्र ने कागज पर जब अच्छी तरह सिंदूर रगड़ा तो अक्षर उभरने लगे। कुछ पढ़े जाने योग्य, कुछ स्पष्ट, कुछ अस्पष्ट। हॉं, एक वाक्य पूरा पढ़ा जा सका, “”जितने भी फोटो, पत्र, उपहार लता के तुम्हारे पास हों, सभी पंडित को दे दो। अनुष्ठान किया जायेगा।”
बस इसी वाक्य ने पूरा जीवन-प्रवाह बदल दिया चंद्र का। सम्मोहित-सा अपने कमरे में गया और सारा सामान एक पैकेट में लपेट कर, पूरी निष्ठा, विश्र्वास से पंडित जी को अर्पित कर दिया।
पंडित भी घाघ था। अब चंद्र से उसकी जन्मपत्री की मांग की गई। जन्मपत्री चंद्र के घर थी, लगभग 200 कि. मी. दूर। पंडित जी के आदेश से शाम को ही चंद्र जन्मपत्री लेने घर रवाना हो गया। अगली सुबह 9 बजे तक वापस लौटा तो तब तक देर हो चुकी थी, ठगा गया था चंद्र। जब पंडित जी के कमरे पर पहुंचा तो वहां ताला लगा था। पंडित जी रात में ही कमरा छोड़कर दूसरे शहर को पलायन कर गये।
शायद इसी ठगी से चंद्र का जीवन दर्शन ही बदल गया। सोच-सोच कर पागल हो गया, उन्मादी हो गया। आखिर एक ठगी से उपजे पत्र ने लता को चंद्र से दूर कर दिया।
आज चंद्र उस ठग पंडित की तलाश में है। आज भी उस पंडित से बदला लेने को आमादा है उसका अंतर्मन। पता नहीं लता किस हाल में है, पंडित किस हाल में और चंद्र का पता है मुझे।
– स्वामी बिजनौरी
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