आखिर हंगामा है क्यों बरपा…

अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट में जॉर्ज बुश प्रशासन के प्रकाशित पत्र पर भारत में जो तूफान खड़ा हुआ, उसका औचित्य साबित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः इस पत्र से विरोधियों को सरकार पर राजनीतिक हमला करने का अवसर मिल गया, अन्यथा इसमें नई बात कुछ भी नहीं है। सच कहा जाए तो इस रवैये से भारत की अपनी आंतरिक कमजोरी ज्यादा उजागर हुई। यह निश्र्चय ही चिंताजनक स्थिति है कि किसी विदेशी अखबार में वहां की सरकार का कोई जवाब प्रकाशित हो और उसको आधार बनाकर भारत के राजनीतिक दल सरकार पर हमला आरंभ कर दें। कोई यह भी सोचने की जहमत उठाने को तैयार नहीं हुआ कि आखिर वियना में नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह की भारत को नाभिकीय व्यापार के लिए हरी झंडी देने के मामले पर आयोजित बैठक के ठीक एक दिन पहले इसे सामने क्यों लाया गया? इससे यह पता चलता है कि हमारे तीखे राजनीतिक मतभेदों का लाभ उठाकर कोई देश चाहे तो यहॉं हंगामा करवा सकता है। वस्तुतः जो कुछ सामने आया उसमें ऐसा कुछ नहीं है जिस पर इतना हंगामा होना चाहिए।

दरअसल, यह समझौते से संबंधित अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों द्वारा पूछे गए 45 सवालों का अमेरिकी विदेश मंत्रालय द्वारा दिया गया जवाब था। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की विदेशी मामलों की समिति के पूर्व अध्यक्ष टॉम लैटोस ने पिछले साल अक्तूबर में ये सवाल विदेश मंत्रालय को भेजे थे और समिति के वर्तमान अध्यक्ष हावर्ड बरमैन ने इसे 3 सितंबर को जारी किया। इसमें मुख्य दो बातों को हमारे खिलाफ कहा गया है। पहला यह कि अगर भारत ने नाभिकीय विस्फोट किया तो अमेरिका को नाभिकीय सहयोग रोकने और समझौता रद्द करने का अधिकार होगा। दूसरा, अमेरिका संवेदनशील तकनीक भारत को आपूर्ति नहीं करेगा। आप अगर समझौते के संदर्भ में अमेरिका की ओर से परीक्षण संबंधी प्रश्र्न्नों पर आए बयानों का रिकॉर्ड उठा लीजिए तो सबमें यही बात आपको मिलेगी। इसका तो एक सिलसिला-सा बन गया था। परीक्षण से संबंधित सवाल पर अमेरिकी राजनेता या अधिकारी का एक बयान आता था और हमारे यहां उसको आधार बनाकर सरकार पर हमला आरंभ हो जाता था। ऐसे बयानों और प्रतििायाओं की पूरी श्रृंखला है। हम जानते हैं कि 123 समझौता में परीक्षण करने या न करने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। लेकिन यह बिल्कुल जानी हुई बात है कि भारत तो क्या किसी भी देश को परीक्षण करने की लिखित आजादी नहीं दी जा सकती। इससे नाभिकीय अप्रसार का पूरा अंतर्राष्टीय ढांचा चरमरा जाएगा। अमेरिका अगर यह स्वीकार कर ले कि भारत को परीक्षण करने का अधिकार है तो फिर नाभिकीय अप्रसार संधि, नाभिकीय परीक्षणों पर प्रतिबंध संधि, प्रक्षेपास्त्र तकनीक नियंत्रण व्यवस्था आदि सब बेमानी हो जाएगा। इसलिए अमेरिकी प्रशासन के किसी भी व्यक्ति से यदि परीक्षण पर प्रश्र्न्न पूछा जाएगा तो उसका उत्तर हमेशा यही होगा।

हां, भारत की दृष्टि से यह चिंता वाजिब है कि अगर हमने भविष्य में परीक्षण किया तो सारे सहयोग रुक जाएंगे, जो भी ईंधन आदि हमें प्राप्त हुए हैं उसे भी वापस लेने की कार्रवाई होगी तथा कई प्रकार के प्रतिबंध भी लगेंगे। किंतु इसका कोई रास्ता नहीं है और यह बात केवल इस पत्र से उजागर नहीं हुई। यह पहले से स्पष्ट है। जहां तक संवेदनशील तकनीक या दोहरे उपयोग वाले तकनीकों की आपूर्ति न करने का प्रश्र्न्न है, तो यह भी पहले से समझा हुआ तथ्य है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के जवाब में संवेदनशील संस्थानों का उल्लेख है। यानी जो संस्थान सामरिक कार्याम से जुड़े होंगे उनके साथ किसी प्रकार का सहयोग नहीं होगा। यह भी नई बात नहीं है। अंतर्राष्टीय आणविक एजेंसी के सुरक्षा मानक समझौते में भी यह शामिल है। केवल असैनिक उपयोग वाले संस्थान, जो सुरक्षा या निगरानी मानक के तहत आएँगे उन्हें ही तकनीक या ईंधन प्राप्त हो सकेंगे। जहां तक पुनर्संसाधन एवं संवर्धन संबंधी तकनीकों का प्रश्र्न्न है, तो अमेरिका जब अपने नाटो मित्र देशों को इनका स्थानांतरण नहीं करता है तो वह भारत को क्यों करेगा? 123 समझौते की धारा 5 (6) के प्रावधान 4 में कहा गया है कि आपूर्ति में बाधा आने पर फिर से आपूर्ति पुनर्स्थापित करने के उपाय करने के लिए अमेरिका एवं भारत मित्र देशों का संयुक्त सम्मेलन बुलाएँगे। विदेश मंत्रालय का जवाब है कि यह प्रावधान केवल भारत की कोई गलती न होने की अवस्था में लागू होगा। परीक्षण करने पर नहीं।

इस प्रकार अमेरिकी प्रशासन का यह स्पष्टीकरण बिल्कुल सही है कि पत्र में ऐसी कोई बात नहीं जिसके बारे में अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों और भारत सरकार को जानकारी नहीं थी। दोनों देशों के बीच समझौता, हाइड कानून, आणविक एजेंसी के साथ समझौता आदि सब सार्वजनिक दस्तावेज हैं। किंतु हमें यह समझना होगा कि वियना में नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी की बैठक के एक दिन पूर्व इस पत्र के जारी होने के कुछ निहितार्थ निश्र्चित हैं। हावर्ड बरमैन भारत विरोधी लॉबी के प्रमुख सदस्य हैं। ये भारत के साथ समझौते के विरोधी हैं। पहले प्रतिनिधि सभा के एक सामान्य सदस्य के नाते इन्होंने इसका विरोध किया था। हाल में उन्होंने विदेश मंत्री कोंडालिजा राइस को पत्र लिखकर चेतावनी दी कि अगर 123 समझौता में परीक्षण सहित कुछ शर्तें नहीं जुड़ीं तो कांग्रेस में इसे पारित कराने में बाधा आएगी। यह लॉबी इस समय काफी सिाय है। पत्र सार्वजनिक करने के पीछे दो संभावनाएँ दिखती हैं। या तो अमेरिका की समझौता विरोधी लॉबी एनएसजी की बैठक के पूर्व ऐसा माहौल बनाना चाहती थी ताकि किसी तरह भारत में राजनीतिक विवाद पैदा हो जाए एवं यह स्वयं हाथ खींचने को मजबूर हो जाए या फिर ये एनएसजी के देशों को संदेश देना चाहते थे कि भले अमेरिका ने समझौते में कुछ शर्तें न जोड़ी हों, आप अवश्य ऐसा करें । इसके अलावा और कोई कारण नहीं हो सकता। कम से कम अच्छे उद्देश्य से तो इसे अभी नहीं ही सामने लाया गया। वैसे यह राय अखबार वाशिंगटन पोस्ट की है कि ऐसी संवेदनशील सूचना से मनमोहन सरकार गिर सकती थी, इसलिए इसे जारी नहीं किया गया। इससे अगर हम यह निष्कर्ष निकाल लें कि बुश प्रशासन मनमोहन सरकार को बनाये रखने के लिए इसे जारी नहीं करना चाहता था तो गलत होगा, क्योंकि किसी अमेरिकी नेता या अधिकारी ने ऐसा नहीं कहा है। यह अखबार के उस संवाददाता का मत है जिसने यह रिपोर्ट लिखी। चूंकि अखबार ने इसे एक बड़े रहस्योद्घाटन के तौर पर पेश किया। इसलिए उसने निष्कर्ष भी उतनी ही सनसनाहट पैदा करने वाले निकाले।

वास्तव में यह तो देश का दुर्भाग्य है कि प्रमुख राजनीतिक पार्टियां नाभिकीय जैसे संवेदनशील मामले पर भी वाणी एवं व्यवहार-संयम का पालन नहीं कर पा रही हैं। सच यह है कि भारत की भावनाओं का ध्यान रखते हुए ही अमेरिका ने समझौते में परीक्षण की शर्त नहीं डाली। विवेक का तकाजा तो यही कहता है कि अमेरिका में होने वाले ऐसे किसी विवाद पर हम खामोश रहें। ठीक इसके विपरीत आचरण करके हम विश्र्व पटल पर भारत का ही पक्ष कमजोर करेंगे।

 

– अवधेश कुमार

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