गुरुदेव श्री राम शर्मा ने 1960-61 में हिमालय प्रवास (अपनी अराध्य सत्ता के मार्गदर्शन में) के दौरान “साधक की डायरी के पृष्ठ’ नामक अपना लेखन संग्रह तैयार किया, जो बाद में “सुनसान के सहचर’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। एकांत में कैसे कोई साधक चिंतन करता है, वह भी दुर्गम हिमालय में, जहॉं दूर-दूर तक कोई भी न हो, मात्र प्रकृति के घटक ही चारों ओर हों। ऐसे में लगभग एक वर्ष नौ माह वे हिमालय में रहे। उन्होंने जो लिखा, वह उनकी अपनी बेबाक अभिव्यक्ति है। लेखनी के लालित्य व लेखन-कला की पराकाष्ठा का द्योतक है। वे लिखते हैं –
“”जाड़े की रात लंबी होती है। नींद आज जल्दी पूरी हो गयी। चित्त चंचल था। इस विचार-प्रवाह में न भजन बन पड़ रहा था और न ही ध्यान लग रहा था। शीत अधिक थी, पर गंगा माता की गोद में बैठने का आकर्षण भी कौन कम मधुर है। तट से लगी एक विशाल शिला जलधारा में भीतर तक धॅंसी पड़ी थी। वहीं जा बैठा। तारों ने बताया, दो बजे हैं। गंगा का कल-कल, हर-हर शब्द भी मन को एकाग्र कर रहा था। वातावरण ही इतना सौम्य है कि यह ध्वनि-लहरी भी किसी नादयोग से कम नहीं। शिला की आत्मा से आवाज सुनायी दी, “”साधक! क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता, जो सिद्घि की बात सोचता है। लक्ष्य प्राप्ति से क्या यात्रा-मंजिल कम आनंददायक है। मिलन से विरह क्या कम गुदगुदा है? तू इस तथ्य को समझ। सिद्घि वह है, जब भक्त कहता है, मुझे सिद्घि नहीं, भक्ति चाहिए। सफलता नहीं, कर्म में आनंद है।” मुझे लगा, मेरे प्रश्र्न्नों का समाधान वातावरण के सुनसान सहचर ने दे दिया।
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