संसार में दो किस्म के लोग होते हैं – पहली किस्म के वे, जो इस दुनिया में आकर समय बिता कर चले जाते हैं, उन्हें दुनिया व दुनिया के लोगों से कोई लगाव नहीं होता। दूसरे किस्म के लोग वे होते हैं, जो इस दुनिया में आने को परमात्मा की देन समझते हैं तथा इन्सानियत या मानवता के लिए कुछ अच्छा कर गुजरने की सामर्थ्य रखते हैं। वे जन-कल्याण व समाज एवं राष्ट की सेवा के लिए समर्पित होते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों को हम सब “महापुरुष’ जैसे शब्द से अलंकृत करते हैं। ऐसे महापुरुषों की श्रेणी में आते हैं, हमारी आस्था के केन्द्र-बिन्दु पूज्य आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज साहेब।
आचार्य श्री ज्ञानी थे, ध्यानी थे, चरित्र निष्ठ थे। धनी हो या निर्धन, साक्षर हो या निरक्षर, संत हो या गृहस्थ, सभी के साथ उनका माधुर्य पूर्ण व्यवहार था। वे गुण अनुरागी थे। किसी में भी उन्हें गुण नजर आते, तो उनका हृदय प्रमोद-भावना से भर जाता था। उन्हें आगम-आगमेत्तर साहित्य का गहरा ज्ञान था। उन्होंने धर्म और साहित्य की गंभीर विवेचना की। कविता व भजन से उन्हें खास लगाव था। दीक्षा के पूर्व आचार्य श्री भजन व गीत गाने में अपना नाम चमका चुके थे। गांव में आचार्य श्री (तत्कालिन नाम नेमीचन्द) के भजनों के बिना कोई कार्याम प्रारंभ नहीं होता था।
प्रायः यह माना जाता है कि मृत्यु के बाद उस व्यक्ति के जीव की महानताएँ उभर कर आती हैं, परन्तु आज हम जिस महापुरुष की 109 वीं जन्म जयन्ती मना रहे हैं, उनकी खासियत यही रही कि उनकी महानताएँ अथवा विशेषताएँ, जो उनकी जीवित अवस्था में थीं, मृत्यु उपरान्त भी बनी हुई हैं। वे एक ऐसे अलौकिक चरित्र थे, जिनकी गरिमा और महिमा, प्रतिभा व प्रतिष्ठा को शब्दों द्वारा व्यक्त करना संभव नहीं है। उन महापुरुषों के आदर्श जीवन में, सरलता व सहजता, संयम व समता, त्याग व वैराग्य, ज्ञान व िाया, दिव्यता व भव्यता, सहिष्णुता व गंभीरता, विश्र्वास व दृढ़ता, निर्लोभिता व निस्पृहिता, सत्य व शील, विवेक व विनय आदि सद्गुण थे। उनके इन्हीं सद्गुणों के कारण भक्त भ्रमर भारत के विभिन्न अंचलों से आकर उनके मुखारविन्द से जिण-वाणी रूपी रस ग्रहण करके अपने आपको भाग्यशाली व पुण्यशाली मानते थे। अगर मैं गलत नहीं हूं तो वे लोग, जिनमें स्वयं मैं भी हूँ – कोई दो राय नहीं है कि जिन्होंने उन्हें करीब से देखा है, सुना है, अपनी आत्मा से अनुभव किया है, वे बड़े भाग्यशाली हैं, शायद आज उस महा-पुरुष को याद करते समय उनके मन की यह दो पंक्तियां हो सकती हैं –
ये नजरों की थी खुशनसीबी कि दर्शन किये करीब से
आज तो लगता है, खुदा मिला था हमें नसीब से
वे यह जानते थे कि केवल शास्त्रीय विवेचन, आगमवाणी, स्त्रोत, सूत्र साधारण श्रोताओं को नीरस एवं उबाऊ प्रतीत हो सकते हैं। इसलिए वे अपने प्रवचनों में लघु-बोध कथाएँ, मुक्तक (जो असर डाले), दोहे या छन्द (जो श्रोताओं के गले में उतरे), या कविता (जो विषय के प्रति रुचि जाग्रत करने सक्षम हो) इन सबके माध्यम से अपनी बात बहुत ही सरल शब्दों में प्रस्तुत करते थे।
इस लेख के लेखक का उनसे पहला परिचय नर्सी से सिकन्दराबाद पैदल विहार, जो 160 कि.मी. के लगभग था, के दौरान हुआ। उस समय मैं कांग्रेस का कैनवासिंग एजेन्ट था। उन्होंने मेरे कांधे पर हाथ रखकर कहा, “”उम्मीदवार के लिए जो भाषण देते हो, उसे कविता में बोलो। इससे समय की बचत होगी, लोगों को प्रभावित कर पाओगे। कम शब्दों में बहुत कुछ कह दोगे।” उनका यह कथन मेरे लिए ब्रह्मवाक्य बन गया और मेरी काव्य-यात्रा का शुभारंभ हुआ। समाज में मेरी कवि एवं मंच-संचालक की पहचान भी बनी।
इस महान् युग-पुरुष के आदर्शों को सुनकर व आचरण देखकर अनेक आत्माएँ सत्पथ पर चलकर साधना की ओर अग्रसर हुईं। आज इनका पार्थिव-देह हमारे समक्ष नहीं है, परन्तु उनके आदर्श एवं गुण हमारे साथ सदा रहेंगे। उनका ज्ञान भण्डार, जो कई टन है अगर आप उसमें से मन भर भी सुने होंगे और उसमें से कण भर भी आचरण में लेंगे तो आपको जीवन जीने की कला आ जायेगी।
उनकी वरिष्ठयोगिता का ज्वलंत प्रमाण यही है कि वे बिंदु से सिंधु के रूप में रूपायित हुए। लघुकाय बीज से विराटकाय वृक्ष के रूप में परिणित हुए।
महाराष्ट प्रान्त के अन्तर्गत छोटे-से चिंचोडी ग्राम में स्थित एक साधारण परिवार में दि. 26 जुलाई, सन् 1900 को पिता श्री देवीचन्दजी व माता श्री हुलसाबाई की कोख से जन्मा था “नेमीचन्द’ नामक यह बालक। 13 वर्ष की आयु में वे दीक्षित हुए। श्रमण संघ के प्रथम आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के देवलोक होने पर चतुर्विध संघ द्वारा अजमेर सम्मेलन में दि. 13 मार्च, सन् 1965 को इन्हें आचार्य पद का प्रतीक “चादर’ समर्पित की गई।
स्वयं आचार्य श्री जी एक महान् संत के साथ-साथ सुलझे हुए विचारक, दार्शनिक, लेखक, कवि, भजन गायक एवं युग-दृष्टा थे। वे मानवता के सन्देश वाहक थे। उनका चिंतन-मनन, अध्ययन-लेखन व उनकी वाग्धारा सभी दिशाओं में प्रवाहमान रही। वे जीवन की सभी दिशाओं को आलोकित करते रहे। सदैव मानव जाति के अभ्युदय को विश्र्वशांति एवं विश्र्वबन्धुत्व के मार्ग को प्रशस्त करने के पक्षधर रहे। आचार्य श्री का व्यक्तित्व व कृतित्व बहुआयामी था। उनमें आनन्द धन की तरह फक्कड़पन था। उनमें यशोविजय जी के साहित्य की तरह माधुर्य था। वे आचार्य हरिभद्रजी की तरह समन्वयवादी थे। आचार्य हेमचन्द्र जी की तरह विराट हृदय के धनी थे। वे हिमालय से ऊँचे, सागर से गंभीर, मिश्री से मधुर व नवनीत से कोमल थे। आचार्य श्री चिन्तामणि की तरह सबकी चिन्ताओं को दूर करते थे। मोमबत्ती की तरह प्रज्वलित होकर जगत को ज्ञान का प्रकाश देते थे। भटके हुए को सन्मार्ग दिखाते थे। इसलिए हम उन्हें “तिन्नाणं-तारयाणं’ कहते हैं।
जिणवाणी का यह सूत्र उन पर बिल्कुल ठीक उतरता है, जिसका भावार्थ इस प्रकार है – सिंह के समान पराामी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर, मेरू के समान निश्र्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिवान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत आश्रयी तथा आकाश के समान निरावलम्ब।
आपकी ज्ञान-गरिमा अगाध थी। आपने लगभग 18 भाषाओं का गंभीर अध्ययन एवं विविध शास्त्रों का मंथन कर जो नवनीत निकाला, वह पुस्तक “भावना-योग’ उनकी अनुपम कृति है, जिससे लाखों लोगों को आध्यात्मिक पोषण मिला, आत्म-शांति प्राप्त हुई। आपने इस ज्ञान को प्रवचनों द्वारा वितरित तो किया ही था, परन्तु पुस्तकों में गद्य-पद्य के माध्यम से भी प्रचारित किया।
आपके सदुपदेशों से विभिन्न स्थलों पर, धार्मिक पाठशालाएँ, छात्रालय, परीक्षा बोर्ड, स्वाध्याय केन्द्र, चिकित्सालय, पुस्तकालय आदि परमार्थिक संस्थाएँ जनता जनार्धन की सेवा में संलग्न हैं। आपके व्यक्तित्व में धर्म की गंगा, संस्कृति की यमुना और साहित्य की सरस्वती की त्रिवेणी का अद्भुत संगम था।
अंत में एक बात कि
वे सभी के होकर भी किसी के न थे और किसी के न होकर भी सभी के थे।
यानी सभी उनके थे और वे सभी के थे।
– जैन मदनलाल मरलेचा
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