आज कविता की ज़रूरत किसको है

खाली व़क्त में फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करते हुए कवि क्या सोचता है? यही कि आज कविता की ज़रूरत किसको है। वह कुछ देर अपने बच्चों के लिए पिता की भूमिका निभाते हुए सरल शब्दों की खोज करता है। वह कभी अपने पिता की ऩकल था तो कभी अपने पुरखों की परछाई और कभी अपनी रोज़ी-रोटी बची रहने की दुआ करता हुआ, सहमा हुआ नौकर। फिर कुछ देर के लिए वह सोचता है-

कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया

फिर उसे सहने की ता़कत जुटाता रहा

मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा

जिनमें मेरी आत्मा नहीं है

जो आततायियों के हैं

और जिनसे ख़ून जैसा टपकता है

कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा

यही मेरा मानवीय पतन था

नयी पीढ़ी के कवियों में मंगलेश डबराल अपनी विशेष पहचान रखते हैं। उनके काव्य-संसार से मेरा पहला परिचय उनकी कविता “पिता की तस्वीर’ और कुछ क्षणिकाएँ पढ़ते हुए हुआ था। “पिता की तस्वीर’ की पारदर्शी आँखों का दृश्य आज भी याद आता है। विशेषकर वह पंक्तियॉं, जब पिता अपनी तस्वीर की बग़ल में आकर खड़े होते हैं, स्मृतियों का हिस्सा बन गयीं।

एक दिन पिता अपनी तस्वीर की बग़ल में

खड़े हो जाते हैं और समझाने लगते हैं

जैसे अध्यापक बच्चों को

एक नक्शे के बारे में बताता है

पिता कहते हैं मैं अपनी तस्वीर

जैसा नहीं रहा

लेकिन मैंने जो नये कमरे जोड़े हैं

इस पुराने मकान में उन्हें तुम ले लो

मेरी अच्छाई ले लो उन बुराइयों से जूझने के लिए

….एक दिन उनकी किताब “हम जो देखते हैं’, पढ़ते हुए, उसमें पिता की तस्वीर के साथ कई तस्वीरें देखने को मिलीं। इन्हीं तस्वीरों में जो मॉं है, वह किसी मुसव्विर ने नहीं बनाई, बल्कि कवि ने उस तस्वीर का ज़िा किया है, जो कभी खींची ही नहीं गयी। क्योंकि जब भी घर में तस्वीर खिंचवाने का मौ़का आता है, मॉं किसी खोई हुई चीज़ को ढूंढती नज़र आती है। उसकी तस्वीर तो जंगल से काटी गयी घास और खाना पकाने के लिए जलाये गये चूल्हे में है।

मैं अक्सर एक ज़माने से चली आ रही

पुरानी नक़्काशीदार कुर्सी पर बैठा रहा

जिस पर बैठ कर तस्वीरें खिंचवाई जाती हैं

मॉं के चेहरे पर मुझे दिखाई देती है

एक जंगल की तस्वीर लकड़ी, घास और

पानी की तस्वीर, खोई हुई चीज़ की तस्वीर

कवि अपने दादा को एक पुरानी तस्वीर में शांत और गंभीर मुद्रा में पानी से भरे बादल की तरह बैठा देख कर सोचते हैं कि शायद उन्हें तस्वीरें खिंचवाने का शौ़क नहीं था या फिर उन्हें तस्वीर खिंचवाने के लिए समय ही नहीं मिला होगा। दादा के बारे में उन्हें बस इतना ही पता है कि वे मांगने  वाले को भीख देते थे। नींद में बेचैनी से करवटें बदलते थे और सुबह उठकर बिस्तर की सलवटों को ठीक करते थे।

मैं तब बहुत छोटा था

मैंने कभी उनका ग़ुस्सा नहीं देखा

उनका मामूलीपन नहीं देखा

तस्वीरें किसी मनुष्य की लाचारी नहीं बतलातीं

मॉं कहती है जब हम

रात को विचित्र पशुओं से घिरे

 सो रहे होते हैं

दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं

कवि ने अपनी तस्वीर बनाने की भी कई बार कोशिश की है। आत्म मुग्धता और मसखरी के बीच कई बार पूर्व से बेहतर तस्वीर खिंचवाने का प्रयास कवि को एक निरर्थक-सी उम्मीद महसूस होता है। कवि पाता है कि चेहरे पर जो शांति है, वह बेचैनी का मुखौटा है, करुणा और ाूरता परस्पर घुले-मिले हैं। थोड़ा-सा गर्व है, लेकिन वह भी गहरी शर्म में डूबा हुआ है। वह देखता है कि लड़ने की उम्र बिना लड़े ही बीती जा रही है। आँखों में किसी युद्ध से लौटने की यातना है और ये वही आँखें हैं, जो बताती हैं कि प्रेम, जिस पर सारी चीज़ें टिकी हुई हैं, संसार में कम होता जा रहा है।

यह एक तस्वीर है

जिसमें थोड़ा-सा साहस झलकता है

और ग़रीबी ढकी हुई दिखाई देती है

उजाले में खिंची हुई तस्वीर के पीछे

इसका अँधेरा छिपा हुआ है

“पहाड़ पर लालटेन’, “घर का रास्ता’ जैसे काव्य-संग्रहों के बाद “हम जो देखते हैं’ कविता-संग्रह के लिए उन्हें “साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। “आवाज़ भी एक जगह है’ ने भी काफी लोकप्रियता अर्जित की।

मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई, 1948 को उत्तर प्रदेश के टेहरी गढ़वाल ज़िले के काफलानी गांव में हुआ। कवि, पत्रकार और अनुवादक के रूप में उन्होंने विश्र्व भर में अपनी खास पहचान बनाई। कई पुस्तकों का संपादन भी उन्होंने किया है।

– एफ.एम. सलीम

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