दिल्ली सीरियल बम ब्लास्ट कांड के बाद आतंक के पक्ष में जिस तरह से राजनीति शुरू हो गयी है व गोलबंदी शुरू हुई उसके खतरे गहरे हैं और इसकी कीमत आखिर राष्ट को ही चुकानी पड़ेगी। इतना ही नहीं बल्कि भविष्य में आतंक से निर्दोष जिंदगियां उसी प्रकार से हिंसा से लहूलुहान होंगी जिस प्रकार से दिल्ली, मुंबई, बेंगलूर, जयपुर और महाराष्ट आदि में दर्जनों बम ब्लास्टों से हुई हैं। जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति महरूल हसन और तथाकथित जन हस्तक्षेप के बुद्घिजीवियों को दिल्ली बम ब्लास्ट में मारे गये लोगों और उनके परिजनों की चिंता की जगह उन्हें चिंता उन आतंकवादियों की है जो निर्दोष लोगों की जिंदगी से खेलते हैं। यह स्पष्ट होने के बाद भी कि जामिया नगर मुठभेड़ में गिरफ्तार छात्र शकील और जिया-उर-रहमान सिमी और इंडियन मुजाहिदीन के सिाय सदस्य हैं और इन्होंने दिल्ली सीरियल बम ब्लास्ट को अंजाम दिया था, इसके बाद भी कानूनी सहायता उपलब्ध कराने के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने का ऐलान करना, यह साबित करता है कि देश में मुस्लिम तुष्टीकरण और सांप्रदायिकता की नयी रेखा खींची जा रही है। जामियानगर मुठभेड़ को फर्जी घोषित करने की मुहिम शुरू हुई है और इसमें मानवाधिकार आयोग भी कूद चुका है। इसका सीधा असर उन पुलिस और अन्य सुरक्षा इकाइयों के मनोबल पर पड़ेगा, जिनके ऊपर आतंकवाद के खूनी पंजे को मरोड़ने की जिम्मेदारी है। ऐसी ही राजनीति के कारण हम आतंकवाद के आसान शिकार बने हुए हैं। हमारे देश के मुस्लिम संस्थानों और तथाकथित बुद्घिजीवियों में पाकिस्तान के मरहूम तानाशाह जिया-उल-हक की आत्मा प्रवेश कर गयी है। जिस तरह से तानाशाही स्वार्थों की पूर्ति के लिए जिया-उल-हक ने पाकिस्तान समाज में आतंकवाद और कट्टरता के बीज बोये थे उसी प्रकार से भारतीय समाज में भी मुस्लिमपरस्त राजनीति का खेल अनवरत जारी है। कहने की ़जरूरत नहीं है कि आज पाकिस्तान किस प्रकार से आतंकवाद की चपेट में है और उसकी संप्रभुता भी खतरे में है। इस उदाहरण से भारतीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था को सबक लेने की ़जरूरत थी, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि भारतीय समाज और राजीतिक व्यवस्था का देखने और समझने का नजरिया राष्ट के समक्ष संकटों और चुनौतियों से अलग होता है। पहले जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी और उनका बेटा अहमद बुखारी ही कट्टरता की पैरवी और प्रोत्साहन का खेल-खेलते थे लेकिन अब यह खेल जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति महरूल हसन, देवबंद और उन हस्तक्षेप नामक संगठन तो खेल ही रहे हैं इसके अलावा सपा और राजद जैसी पार्टियां भी इस खेल में शामिल हैं। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां पहले से ही मुस्लिम समर्थक रही हैं और उनकी धार्मिक अंधेरगर्दी पर आँखें मूंदे रखती थीं। जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति हसन का यह कहना कि जामिया मिलिया इस्लामिया का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बरकरार रखा जायेगा, इसे हास्यास्पद ही माना जायेगा। सच्चाई पर पर्दा डालना भी कहा जा सकता है। इसलिए कि सच्चाई इसके विपरीत है। कहने मात्र के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष है। वास्तव में यहॉं पर मुस्लिमपरस्ती की छत्रछाया है। इसका अहसास उन गैर मुस्लिम छात्र-छात्राओं और शिक्षकों को होता है जो जामिया मिलिया इस्लामिया से जुड़े हुए हैं। जामिया मिलिया इस्लामिया में लोकतांत्रिक देशों के सर्वश्रेष्ठ संविधान की जगह सउदी अरब का इस्लामिक संविधान पढ़ाया जाता है। अभी तक जामिया मिलिया इस्लामिया में दलित और आदिवासी समुदाय के छात्रों के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी नहीं है। अगर हसन के अनुसार जामिया मिलिया इस्लामिया का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप है तो फिर दलित आदिवासियों को आज तक आरक्षण देने से इनकार क्यों हुआ है? इसे भी स्पष्ट करना चाहिए।
जामिया मिलिया इस्लामिया हो या अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय या फिर देवबंद, इन सभी शिक्षक संस्थानों में आतंक की घुसपैठ बढ़ी है। आतंकवादियों को इन जगहों में सुरक्षित व्यवस्था मिलती है। पकड़े जाने या उनकी दहशतगर्दी की योजना का खुलासा होने का डर भी कम होता है। इसलिए आतंकवादियों की गतिविधियां पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियों की पकड़ से दूर होती हैं। ऐसी जगहों पर पुलिस और अन्य गुप्तचर एजेन्सियां कार्रवाइयां करने से भी डरती हैं। पहले देश में एक देवबंद था जहॉं कट्टरता और राष्ट-विरोध की भावना भड़कायी जाती थी। आज देश के अंदर कई देवबंद कायम हो गये हैं। कुकुरमुत्ते की तरह फैले मुस्लिम संगठनों में कहॉं से आया पैसा खर्च होता है और उनका आतंकवाद से कोई वास्ता है या नहीं, यह भी जानने की कोई सफल कोशिश नहीं होती है जबकि अरब देशों से अथाह पैसा आ रहा है और देश में आजमगढ़ जैसी जगहों पर आतंकवाद की नर्सरी खड़ी हो रही है।
मानवाधिकार के नाम पर कई ऐसे एनजीओ खड़े हो गये हैं जिनका एकमात्र मकसद राष्ट के स्वाभिमान से खेलना और हिन्दुत्व की खिल्ली उड़ाना है। जनहस्तक्षेप जैसे संगठन इसी श्रेणी में आते हैं। ऐसे संगठन हिन्दुत्व से जुड़े मसलों पर गला फाड़ कर ़जरूर चिल्लाते हैं, पर अगर मसला मुस्लिम समुदाय से जुड़ा होता है तो इनके मुंह पर स्वतः पट्टी बंध जाती है। जामिया नगर मुठभेड़ कांड पर जनहस्तक्षेप ने सवाल उठाया है और पुलिस को कटघरे में खड़ा किया है पर उन्हें यह समझ में क्यों नहीं आया कि अगर ये छात्र थे तो उनके पास हथियार किसलिए थे। पुलिस इंस्पेक्टर श्री शर्मा कैसे शहीद हुए? वास्तव में ऐसे लोग और संगठन जामिया नगर और गुजरात का मुद्दा तो उठाते हैं पर गोधरा पर चुप्पी साध लेते हैं। नानावती आयोग ने गोधरा की सच्चाई की परतें खोल दी हैं। गोधरा एक बड़ी सा़िजश थी जो आतंकवादी समूहों द्वारा रची गयी थी। तसलीमा नसरीन का मसला भी हम उदाहरण को ले सकते हैं। तसलीमा मुस्लिम कट्टरता से किस प्रकार से आांत है, यह कहने की ़जरूरत नहीं है। अगर तसलीमा को हिन्दुत्व से कोई खतरा होता तो यही जन हस्तक्षेप और तिस्ता शीतलवाड़ गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते और हिन्दू धर्म को कोसते।
ऐसी मुस्लिमपरस्त राजनीति का परिणाम घातक होगा। इसका सीधा असर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई पर पड़ेगा। आतंकवाद के खूनी पंजों को मरोड़ने की जिम्मेदारी जिन पुलिस और सुरक्षा एजेन्सियों के कंधों पर है उनके मनोबल पर असर पड़ेगा। ऐसी राजनीति के कारण ही हम आतंकवाद के आसान शिकार हैं। आतंकवादी इसका लाभ उठाने से नहीं चूकते हैं। मुस्लिमपरस्त राजनीति के कारण कई आतंकवादी जिन्हें फांसी पर चढ़ा देना था वे आज जेलों में आराम फरमा रहे हैं। आतंकवाद से निर्दोष जिंदगियां कुर्बान होती हैं। लेकिन आज देश में आतंकवादियों की पैरवी हो रही है। ऐसे में आतंकवाद से लड़ाई कमजोर तो होगी ही, इससे इनकार कैसे किया जा सकता है।
– विष्णु गुप्त
You must be logged in to post a comment Login