आर्थिक असमानता की उपज असंतुलित विकास

किसी भी दैनिक समाचार-पत्र को उठाकर देखा जाए तो निश्र्चित रूप से दो तरह की खबरें जरूर पढ़ने को मिल जाती हैं। एक वो जिन्हें पढ़ने के बाद यही लगता है कि निश्र्चय ही ये देश विकास पथ पर अग्रसर होते हुए नित नए मापदंड छू रहा है। आज देश व भारतीय समाज हरेक क्षेत्र में ऐसी-ऐसी उपलब्धियां हासिल कर रहा है जो किसी भी देश के लिए बहुत गर्व की बात है।

वहीं बिल्कुल साथ-साथ, लगभग रोज ऐसी खबरें-घटनाएं सुनने-पढ़ने को मिलती हैं जिनके बारे में जानकर आश्चर्य व क्षोभ होता है कि ये सब उसी देश-समाज में कैसे घट सकता है जहॉं विकास का उच्च स्तर छूने का दावा किया जा रहा हो।

एक तरफ खबर होती है कि भारत ने स्वयं निर्मित चंद्रयान भेजने की तैयारी पूरी की, भारत ने रक्षा क्षेत्र में वो उपलब्धि हासिल की जो सिर्फ दो-तीन गिने-चुने देशों के पास है और भारत चिकित्सा-पर्यटन जैसे क्षेत्रों में अग्रणी देशों में से एक बना है। वहीं दूसरे समाचारों की बानगी देखिए-उड़ीसा के कालाहांडी क्षेत्र में घोर भुखमरी के मारे लोग कंदमूल खाने को मजबूर, पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश में मलेरिया, हैजे व कुपोषण से सैकड़ों बच्चों की जान चली गई, विदर्भ क्षेत्र में किसानों ने सामूहिक रूप से आत्महत्या कर ली आदि।

इसका अर्थ स्पष्ट है कि कहीं कुछ भारी गड़बड़ है। यह गड़बड़ी विकास में संतुलन की है या शहरीकरण आधारित विकास नीतियों की, ग्रामीण क्षेत्र की उपेक्षा की है या कोई और ही कारण हैं। किंतु इसका परिणाम यह हुआ है कि देश के सामाजिक ढांचे में आर्थिक असंतुलन और असमान विकास दर ने एक ऐसी खाई बना दी है जो दिनानुदिन अधिक बड़ी होती जा रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्र्चात आजाद भारत को सुदृढ़ व स्वावलंबी बनाने के लिए जिस नीति को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया-वह था औद्योगीकरण। इसी के अनुरूप जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में शुरू हुई पंचवर्षीय योजनाओं में भी औद्योगीकरण के विस्तार और विकास को प्रधान लक्ष्य माना व रखा गया।

हालांकि “भारत की आत्मा गांव में बसती है’, जैसी बात कहने और मानने वाले महात्मा गांधी औद्योगीकरण से ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों के विकास, कुटीर उद्योगों को बढ़ावा तथा कृषि क्षेत्र की मजबूती पर जोर देते रहे मगर शुरुआती दौर से लेकर पिछले कुछ वर्षों तक दोनों ही नीतियां अपने-अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहीं। इसका प्रमाण यह है कि हरेक राज्य में विशिष्ट उद्योगों की स्थापना और रोजगार की संभावना से महानगरों और नगरों का निर्माण व विकास हुआ। इसी के साथ-साथ हरित ाांति और श्र्वेत ाांति की शुरुआत और अभूतपूर्व सफलता ने ग्रामीण क्षेत्र को भी मुख्य धारा के साथ जोड़े रखा।

देश की अर्थव्यवस्था में अब भी कृषि क्षेत्र की भागीदारी शहरों की सुविधापूर्ण जीवन शैैली, शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन, व्यवसाय एवं रोजगार, रहन-सहन का आधुनिक स्तर तथा सबसे बढ़ कर समाज में मिल रहे अधिक महत्व के कारण जहॉं शहर धीरे-धीरे नगर और फिर महानगर हो गए, वहीं आंकड़ों, संचार साधनों, सरकारी नीतियों एवं योजनाओं आदि के केंद्र में रहने के बावजूद भी ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति वही की वही रही बल्कि पिछले दो दशकों में अधिक खराब हुई।

ग्रामीण क्षेत्रों के ामिक विकास, दशा एवं समस्याओं पर पिछले दो दशकों से शोधकार्य करने वाली संस्था “अंचल’ ने सर्वेक्षण व शोध के आधार पर कई सारे तर्कपूर्ण कारण दिए। ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में नगरीय क्षेत्रों में उद्योग-धंधे की स्थापना एवं विकास अधिक तेजी से हुआ। रोजगार की तलाश में पहले एकल, फिर सामूहिक रूप से लोगों का पलायन स्वाभाविक रूप से शहरों की तरह हुआ।

इसका परिणाम यह हुआ कि उद्योगों एवं उत्पादों की खपत के लिए बड़ा बा़जार भी वहीं उपलब्ध हो गया। यही सबसे बड़ा वो कारण रहा, और आज भी है जिसने ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े व्यक्ति एवं परिवारों को शहर में जाकर अपनी मूलस्थली को विस्मृत करने पर विवश कर दिया। इसके बाद शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा, स्वास्थ्य आदि की सुविधाओं की चरणबद्घ श्रृंखला की सुलभ उपलब्धता ने ग्रामीण क्षेत्रों को हाशिए पर धकेल दिया।

संस्था ने अपने शोध के बाद निकले निष्कर्ष को बताते हुए अफसोस जताया कि ग्रामीण क्षेत्र से निकल कर शहरों और यहॉं तक कि देश-विदेश तक में नाम और यश कमाने वालों ने कभी अपने आधारस्थलों के विकास में योगदान के लिए गंभीरतापूर्वक कुछ नहीं किया। अंचल के अनुसार भारतीयों की तुलना में विदेशी उद्योगपतियों और धनाढ्यों ने 73 प्रतिशत अधिक धन यहॉं विकास एवं सहायता हेतु लगाया है। ग्रामीण क्षेत्रों एवं शहरी गरीब क्षेत्रों के घोर पिछड़पेन का दूसरा बड़ा कारण है सरकारी नीतियों में पक्षपात और योजनाओं के िायान्वयन में भारी भ्रष्टाचार। इस मुद्दे का सबसे विडम्बनापूर्ण तथ्य यह है कि कल्याणकारी योजनाओं में से 80 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों व शहरी गरीब क्षेत्रों और शहरी लोगों के लिए बनाई और लागू की जाती हैं और इन पर खर्च की जाने वाली राशि का 75 प्रतिशत से भी ज्यादा भ्रष्टाचार घपले-घोटाले की भेंट चढ़ जाता है।

पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने ऐसी ही स्थिति पर टिप्पणी की थी कि यदि सरकार किसी गरीब के लिए 100 रुपए का प्रावधान करती है तो उस तक सिर्फ 2 रुपए पहुँचते हैं और बाकी सारा पैसा भ्रष्ट नौकरशाही की भेंट चढ़ जाता है। अफसोस की बात यह भी है कि गरीब निरक्षर पिछड़ों को जब अपने कल्याणार्थ चलाई गई योजनाओं, व्यय हेतु आवंटित राशि आदि के बारे में नहीं पता होता तो फिर भला उनमें हो रही अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के विरोध की बात कौन कहे।

ग्रामीण क्षेत्र का मुख्य धारा से पिछड़ते जाने का एक अन्य कारण है इसका असंगठित होना। पिछले दो दशकों से लगातार बदहाली की ओर बढ़ते जाने और तिल-तिल कर अपना जीवन समाप्त करने पर मजबूर हो जाने के बावजूद, कृषक-मजदूर अभी तक किसी बड़े प्रभावी संगठन के रूप में तब्दील नहीं हो पाए। ये कृषक-मजदूर अब भी अपनी अलग-अलग समस्याओं, मांगों और सहायता आदि के लिए याचक की स्थिति में ही हैं।

और तो और, पूरे देश को खाद्यान्न उत्पादन व भंडारण में समृद्घ और आत्मनिर्भर बनाने वाले कृषक समाज को आज भी अपने उत्पादों के मूल्य निर्धारण, विाय नीतियों एवं बाजार तक के लिए शहरी क्षेत्रों के राजनेताओं, प्रशासकों का मुंह ताकना पड़ता है और बड़े-बड़े महानगरों में बैठे लोग अपने वातानुकूलित कक्षों में बैठ कर ग्रामीण क्षेत्रों और किसानों के लिए नीतियां और योजनाएं बनाते हैं। यही सबसे बड़ी विडम्बना है इस देश की।

किसी भी देश के आर्थिक ढांचे में यदि इतना बड़ा असंतुलन होगा तो वह न तो कभी भी पूर्ण विकसित हो पाएगा और न ही इस असंतुलन से उपजे परिणामों को भोगने से खुद को बचा सकता है। जनसंख्या विस्फोट, बेरोजगारी, कुपोषण, कन्या भ्रूण हत्या, अशिक्षा के अलावा शहरी क्षेत्र में बढ़ती अपराध की घटनाएं, लूटमार-डकैती, हड़ताल, प्रदर्शन, बलात्कार, राहजनी आदि समाज में आ रहे असंतुलन से उपजे असंतोष के परिणाम ही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति की आधी शताब्दी बीत जाने के बाद यही समय है जब इतिहास और वर्तमान का विश्र्लेषण करके भविष्य की योजनाएं बनाई जाएं।

 

– अजय कुमार झा

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