आर्थिक सुधारों और विकास में चूक गई सरकार

मनमोहन सिंह सरकार के चार वर्ष पूरे हो चुके हैं। पिछले चार वर्ष में आर्थिक विकास दर अच्छी रही है। सरकार की विशेष उपलब्धि भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी कंपनियों को खरीदा जाना है, जैसे टाटा द्वारा कार निर्माता जैगुआर एवं स्टील निर्माता कोरस को। आज छोटी भारतीय कंपनियां अपने से बड़ी विदेशी कंपनियों को खरीद रही हैं। इस सुखद उपलब्धि का श्रेय सरकार को जाता है। परन्तु सरकार का घरेलू आर्थिक प्रबंधन निगेटिव रहा है। तेल के मूल्य में वृद्घि दीर्घकालीन होगी- इस बात को सरकार भांप नहीं पाई। सरकार ने निर्णय लिया कि तेल को महंगा खरीदकर सस्ता बेचा जाये। यह नीति घातक सिद्घ हुई है चूंकि अंततः यह बोझ सरकार की कमर पर पड़ा है। आज सस्ते तेल की खपत के कारण कल जनता को अधिक टैक्स देना होगा।

आर्थिक क्षेत्र में सरकार की एक और विफलता है। सर्वविदित है कि भविष्य में आर्थिक विकास का इंजन सेवा क्षेत्र होगा। इस क्षेत्र में भारत के उज्ज्वल भविष्य को बनाये रखने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में बुनियादी सुधार की महती आवश्यकता है। इस क्षेत्र में सरकारी तंत्र असफल रहा है। गांव के बच्चे सरकारी शिक्षा में लॉक होकर बर्बाद हो रहे हैं। सरकार इसी तंत्र के विस्तार पर लगी हुई है। आईआईटी एवं आईआईएम का विस्तार किया जा रहा है और इनमें आरक्षण भी लागू किया गया है जो स्वागत योग्य है। परन्तु यह मौलिक समाधान नहीं है। गांव के बच्चों को अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा देने की योजना बनानी चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि विश्व के दूसरे देश भी अंग्रेजी शिक्षा को तेजी से अपना रहे हैं। भविष्य में हमें चीन और फिलीपींस से कड़ी स्पर्धा करनी होगी।

विश्र्व अर्थव्यवस्था के स्तर पर सरकार का डब्ल्यूटीओ में रुख सकारात्मक रहा है। अमीर देशों के किसान महंगा उत्पादन करते हैं। परन्तु उनकी सकारें कृषि उत्पादों पर भारी सब्सिडी दे रही हैं। मसलन, गेहूं के उत्पादन में अमेरिका में लागत 20 रु. आती है और भारत में 10 रु.। परन्तु अमेरिका 15 रु. की सब्सिडी देकर गेहूँ को भारत में 4 रु. में बेचता था ताकि वह हमें खाद्यान्न के लिए परावलंबी बना सके। सरकार ने डब्ल्यूटीओ में अमेरिका के दुराग्रह का सामना किया है और वार्ता पर ब्रेक लगा दिया है।

हमारी सरकार वर्तमान अन्यायपूर्ण विश्र्व अर्थव्यवस्था को चुनौती देने में असफल रही है। अधिकांश गरीब देश वैश्र्वीकरण के वर्तमान दौर में फिसल रहे हैं। ऐसे में भारत के सामने दो रास्ते खुले थे, जैसे बाली के सामने दो ही रास्ते थे- वह रावण का साथ दे सकता था अथवा राम का। मनमोहन सिंह सरकार ने गरीब देशों को नेतृत्व प्रदान करने के स्थान पर स्वयं को अमेरिका से जोड़ लिया है। नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से जो दिशा दी थी उसको मनमोहन सिंह ने पूर्णतया त्याग दिया है। दक्षिण एशिया में भी मनमोहन सरकार असफल ही सिद्घ हुई है। नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड ने चीन की यात्रा पर पहले जाकर भारत को धता बताई है। पाकिस्तान में भारत-विरोधी गतिविधियों के विस्तार के संकेत मिल रहे हैं। अमेरिका में राष्टपति पद के प्रत्याशी बराक ओबामा ने महत्वपूर्ण खुलासा किया है। उन्होंेने कहा है कि आतंकवाद का सामना करने के लिए जो रकम पाकिस्तान को दी जा रही है उसका उपयोग पाकिस्तान भारत पर आामण की तैयारी के लिए कर रहा है। बांग्लादेश में भी भारत-विरोध का स्वर पूर्ववत् बना हुआ है।

कांग्रेस ने पिछले आम चुनाव आम आदमी के मुद्दे पर जीते थे। सत्तारूढ़ भाजपा ने “इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया था। कांग्रेस का जवाब था कि इंडिया का शाइन सिर्फ अमीरों के लिए है। कांग्रेस ने ताजपोशी के बाद इस दिशा में दो महत्वपूर्ण कदम उठाये। रो़जगार गारंटी योजना को संपूर्ण देश में लागू किया गया है। गरीब परिवारों को 75 रु. की दिहाड़ी वर्ष में 100 दिन नहीं तो भी 30-40 दिन मिल रही है। इन कार्यामों में साधारणतः कुछ कार्य नहीं होता है। कार्य का दिखावा मात्र होता है, जैसे सड़क के बगल से मिट्टी उठाना। मुख्यतः यह कार्य ाी वितरण जैसा ही है। सुना जाता है कि हमारे देश में ऐसे राजा हुए जिन्होंेने अकाल के समय राहत के लिये लोगों से गड्ढे खुदवाये और वापस भरवाये। सोच थी कि मुफ्तखोरी की लत नहीं पड़नी चाहिए। रो़जगार गारंटी योजना का चरित्र लगभग मुफ्तखोरी का है। साथ-साथ छोटे किसानों के ऋण माफ कर दिये गये हैं।

इन दोनों योजनाओं से गरीबों को कुछ राहत मिलेगी। परन्तु इन योजनाओं की प्रकृति फायर फाइटिंग जैसी है। रो़जगार सृजन की सरकार की कोई मंशा नहीं है। रो़जगार का बड़ी कंपनियों द्वारा भक्षण किया जा रहा है, जैसे सूरत के सस्ते कपड़े ने सूंपर्ण देश के जुलाहों को बेरो़जगार बना दिया है। बेरो़जगारी की भयंकर बीमारी की दवा रो़जगार गारंटी योजना है। इसी प्रकार कृषि घाटे का सौदा बनती जा रही है। औद्योगिक माल की तुलना में कृषि उत्पादन के दाम सतत गिरते जा रहे हैं। पिछले एक वर्ष में हुई मूल्य वृद्घि से दीर्घकालीन मूल्य ह्रास निरस्त नहीं होती है। कृषि उत्पादों के मूल्य बढ़ाने की सरकार ने योजना प्रस्तुत नहीं की है। कैंसर रोगी का रोग दूर करने के स्थान पर सरकार सेरीडॉन देकर दर्द को दबाने में लगी है।

सुशासन के क्षेत्र में सरकार की मुख्य उपलब्धि सूचना के अधिकार को लागू करने की है। अफसरों ने दबाव बनाया था कि उनके द्वारा फाइल पर लिखी गयी टिप्पणियों को सूचना के अधिकार के बाहर रखा जाए परन्तु सरकार उनके सामने नहीं झुकी। मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि सूचना का अधिकार कारगर है। उत्तराखंड में सरकारी कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे हाइडोपावर डैम के बारे में व्यापक जानकारी सूचना के अधिकार के अंतर्गत मुझे उपलब्ध हुई है। सुशासन के क्षेत्र में निगेटिव दिशा में सरकार का छठे वेतन आयोग को लागू करने का निर्णय है। इसमें विशेषकर सरकारी कर्मचारियों की जवाबदेही सुनिश्र्चित करने के कदम नहीं उठाये गये हैं। पांचवें वेतन आयोग ने कहा था कि बाहरी एजेंसी द्वारा कर्मचारियों की कुशलता का मूल्यांकन कराया जाना चाहिए। इस दिशा में सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है। बल्कि कानून के अधिकार को जटिल बनाकर नौकरशाही द्वारा उगाही को बढ़ावा दिया है। पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिंहा ने आयकर दाताओं के लिये “सरल फार्म’ को लागू किया था। वित्तमंत्री चिदंबरम ने इसे निरस्त करके पुनः कई पन्नों का जटिल फार्म लागू किया है। समग्र दृष्टि से देखा जाये तो कांग्रेस का कार्यकाल सामान्य रहा है।

 

– डॉ. भरत झुनझुनवाला

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