भारतीय संस्कृति में सगुण-भक्ति का प्रादुर्भाव सनातन और शाश्र्वत रहा है। आज भी मंदिरों और मठों में श्री विग्रह का जो श्रृंगार होता है, उसके दर्शन कर लोग अपने नयन जुड़ाते हैं। राम हों या कृष्ण, हमारे समाज में भक्ति के सबसे बड़े माध्यम हैं। भारतीय लोक जीवन में वे चरित्र सदियों से रचे-बसे हैं। वह लोग कितने भाग्यशाली रहे होंगे, जिन्होंने राम के प्रादुर्भाव के समय उन्हें अपनी आंखों से देखा होगा। आज तो कलि-प्रभाव के कारण ऐसे चरित्र जन्म ही नहीं लेते। अतः उनकी लीलाओं को देखकर ही संतोष करना पड़ रहा है। यह अनुभूति तो होती ही है कि राम और कृष्ण हमारे पास ही हैं। यथार्थ में सगुण-भक्ति की यह धारा आज तक अविरल है और भारतीय समाज उसमें अवगाहन कर धन्य हुआ जाता है। भारत में रामलीलाओं का सूत्रपात अयोध्या के लीलाधारी संत भगवानदास जी महाराज द्वारा किया जाना स्वीकारा गया है। यह बात कोई तीस सौ साल पहले की है। काशी और अयोध्या की रामलीलाओं ने रामभक्ति का जो मार्ग प्रशस्त किया, दरअसल उसका सम्मान आज तक समाज में दृष्टिगोचर होता है। आज भी इन लीलाओं को देखने के लिये लाखों की संख्या में दर्शक जुड़ते हैं। जो पात्र राम का स्वरूप धारण करते हैं, उनमें ही उन्हें राम की छवि दिखाई देती है। उनकी आस्था के केंद्र बिन्दु राम ही होते हैं। रामलीलाओं का यह वैशिष्ट्य है कि जो पात्र राम, लक्ष्मण और जानकी का स्वरूप धारण करते हैं, उनमें लीला के पात्र रच-बस जाते हैं।
रामलीला प्रस्तुति का यह सनातन स्वरूप आज हमें राम और उनकी अयोध्या से जोड़े रहता है। यद्यपि रामलीलाओं का इतिहास अयोध्या से शुरू होता है, लेकिन इसका विस्तार अन्य प्रदेशों में होने के कारण इसे लोकव्यापी स्वरूप प्राप्त हुआ है। पंडितों की वैष्णव भूमि हो या बंगाल की धरती सभी राम के प्रति अपनी आस्था को अभिव्यक्ति देते हैं। आज आसाम की धरती इसी ाम में आती है। आसाम में लोग जबरदस्त प्राकृतिक आपदायें सहन करते हैं, लेकिन मेले, पर्व, त्योहार की परंपरा वहां से विलग नहीं हुई है। अगर आसाम का बीहू पर्व लोक जीवन से सीधा सरोकार रखता है तो वहां के लोक-जीवन में लोक-नृत्य रचे-बसे हैं। इसी आसाम में रामलीला का भी अपना इतिहास है और प्रस्तुति का सौंदर्य भी। आज यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिन्दी प्रदेशों की तुलना में यह मंच नितांत ही मौलिक है। वैसे इस प्रदेश में लीला मंच उतने अधिक नहीं हैं, लेकिन हिन्दी प्रदेशों की लीलाएँ इससे कई वर्ष पीछे चलती हैं। पात्रों की वेश-भूषा जितनी सादगी पूर्ण और अनूठी होती है, उतनी अन्य प्रदेशों की नहीं। लीला का सौंदर्य इनकी सादगी में ही विराजमान है। वे प्रसंगों को ही अनूठा बनाना चाहते हैं। इसे आसाम में “अंकियानाट’ कहा जाता है। यह शब्द वास्तव में आसाम की दृष्टि से नितांत ही अर्थवत्ता लिये हुए है।
आसाम में रामलीला का इतिहास भले ही अति प्राचीन न हो, लेकिन कुछ शताब्दियां जरूर हुई हैं। इसकी परंपरा आश्रम से जुड़े लोगों ने कायम की है। यह रामलीला वास्तव में संत-परंपरा की है, क्योंकि इसके सूत्रधार आश्रमवासी संत ही रहे हैं। मूलतः शंकरदेव और माधवदेव का नाम अंकियानाट लीला से जुड़ा हुआ है। लीलाधारी आश्रमवासी इससे जुड़े हुए हैं। वर्ष 1595 में शंकरदेव और माधवदेव ने “बदलाषद्म आता’ की स्थापना की थी। शंकरदेव की परंपरा आज तक चली आ रही है और इस परंपरा में अब तक उनके 21 उत्तराधिकारी हुए हैं। यह परंपरा आसाम के “कमलाबारी सत्र’ गांव में विद्यमान है। सत्र “क्षेत्र’ को और कमला “संतरे’ को कहते हैं। यह आश्रम कई वर्ष पुराना है। कमलाबारी सत्र की लीलामंडली में केवल तीस पात्र ही लीला करते हैं। कोई भी महिला पात्र इसमें नहीं होता। पुरुष ही सब प्रकार की भूमिका करते हैं। ये सारे पात्र अविवाहित और ब्रह्मचारी होते हैं। इन्हें कमलाबारी के आश्रम में ही रहना होता है। जो लोग विवाह कर लेते हैं, आश्रम में नहीं रहते, लेकिन उनका संबंध आश्रम से आध्यात्मिक होता है।
सभी पात्र आश्रम के पुजारी हैं और मंदिर से जुड़े हुए हैं। भागवत धर्म का पालन ही इनका काम है। भगवती का छत्र मंदिर में प्रतिष्ठित है। नाम-गायन ही इनकी भक्ति का आधार है। वे लीलाधारी पात्र प्रायः अलग गांवों के निवासी होते हैं। विवाह को वर्जित मान कर ही वे आश्रम में रहते हैं। मंदिर के दैनिक कामों के अलावा वे शिक्षा प्राप्त करते हैं। अनेकों के पास अपनी निजी खेती है, जबकि वे मंदिर के नाम पर चढ़ी हुई खेती का काम भी करते हैं। मंदिर के नाम पर चार गांव हैं, जहां पर्याप्त जमीन है। मंदिर के नाम से चढ़ी हुई जमीन को धती कहते हैं।
भागवत धर्म से जुड़े स्वामी शंकरदेव ने लीला का सूत्रपात किया था। कालांतर में उनके शिष्य माधवदेव हुए। गुरु-शिष्य में भक्ति का जो बीजारोपण हुआ, उसी ने रामलीला को आगे बढ़ाया। दोनों ने “दशम्’ और “कीर्तन’ नामक ग्रंथ की रचना की। माधवदेव ने एक अनूठा ग्रंथ लिखा “घोषा रत्नावली धर्म’। सब प्राणी आपस में मिलकर प्रेम से रहें, यही इसका मूल आधार है। सबसे पहले गुरु शंकरदेव ने रुक्मणी हरण, पारिजात हरण, पत्नी प्रसाद केलि गोपाल जैसे ग्रंथ लिखे। कालिबा दमन, राम-विजय, सीता-विवाह इनके नाट्य-रूप ग्रंथ हैं। आज आसाम की जो लीला की जाती है, उसका आधार राम-विजय ही है। वैसे लीला का आधार वाल्मीकि रामायण है। पात्रों द्वारा मंच पर स्वयं कोई गायन नहीं किया जाता। व्यास द्वारा कहे जाने वाले पदों या श्र्लोकों को सुनकर ही वे अपने संवाद कहते हैं। मंडल के पास अपनी पटकथा है। पात्र वही संवाद कहते हैं, जो इसमें वर्णित हैं।
आसाम की रामलीला का यह वैशिष्ट्य है कि इसका प्रारंभ संगीतमय होता है। संवादों पर संगीत और संस्कृति का प्रभाव है। व्यास द्वारा विधि-विधान से लीला का प्रारंभ किया जाता है। गाने वाला इनमें व्यास कहलाता है। आसाम की लीला में वाद्यों का अधिक जमाव नहीं होता। लेकिन इसमें छः मृदंग होते हैं और छः लोग इन्हें बजाते हैं। भवानंद बादम, जुगेन बादम, गंगाराम आदि इनमें प्रमुख हैं। चार लोग झांझ बजाते हैं। अन्य कोई वाद्य नहीं होता।
आजकल अनेक लीलाओं में पात्रों को मुखौटा लगाने की परंपरा बढ़ी है। लेकिन आसाम की लीला में केवल रावण, शूर्पणखा, मारीच और जटायु को ही मुखौटे पहनाये जाते हैं। लीला के प्रारंभ में एक सूत्रधार आकर प्रसंग के बारे में सामान्य जानकारी देता है। इसके साथ ही आसाम का एक पारंपरिक नृत्य होता है। इसे सत्य नृत्य कहा जाता है। सूत्रधार ही सबसे पहले नृत्य करता है। इसके पश्र्चात कम आयु के दो पात्र उसी नृत्य को दोहराते हैं। आसाम की लीला का समूचा मंचन करने में एक माह का समय लगता है। सभी प्रसंग अत्यंत ही अनूठे होते हैं, लेकिन जटायु का प्रसंग सबसे अनूठा और नयनाभिराम और करुणामय होता है। इसे उत्तर भारत की लीलायें भी उतना अच्छा नहीं कर सकतीं। वह लीला संक्षिप्तता के साथ कम से कम सात दिनों में की जाती है। इसे राम-विजय कहा जाता है। राम-विवाह एवं धनुष भंग को इसमें समेटा जाता है। आसाम में यही प्रसंग अगर करना हो तो कम से कम सात घंटे का समय लगेगा। इस प्रसंग को इस मंडली ने 1975 में इंडोनेशिया में किया था। भारत में इस लीला की देशव्यापी पहचान है।
श्री बापाराम बोडा इस लीला के सबसे वयोवृद्घ पात्र हैं तो पवित्रकुमार सैकिया मात्र सात वर्ष के ही हैं। बापाराम जटायु का अद्भुत काम करते हैं। उनके अभिनय की यह विशेषता है कि दर्शक की आँखें ही भीग जाती हैं। रामलीला की यह पहचान है कि सबसे पहले नवधा भक्ति का प्रदर्शन किया जाता है। इसे निष्णात पात्र सर्वेश्र्वर हजारिका प्रस्तुत करते हैं। रामायण में जिस नवधा भक्ति का निरूपण किया गया है, उसे साक्षात मंच पर दिखाया जाता है।
आसाम की धरती पर अंकियानाट की यह लीला बहुत ही लोकप्रिय है। इसे निरंतर कार्याम मिलते रहते हैं, लेकिन धन नहीं मिलता। त्योहारों पर इसे जगह-जगह बुलाया जाता है। शंकरदेव के जन्म-दिवस पर यह विशेष रूप से आयोजित की जाती है। शंकरदेव और माधवदेव की निधन तिथियों पर भी यह लीला की जाती है। जब असम में बीहू पर्व आता है तब इस लीला का अनुष्ठान देखा जा सकता है। कृष्ण और राम की लीला का आसाम की धरती पर विशेष महत्व है। पात्रों में वह धन बांट दिया जाता है, जो लीला करने पर प्राप्त होता है। कुछ धन राशि मंदिर के काम में भी व्यय की जाती है। श्री नारायण हजारिका को लीला के विभिन्न पक्षों का सम्यक ज्ञान है।
– राम अधीर
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