जीव अन्य क्षुद्र योनियों में से क्रमशः विकास करता हुआ मानव योनि के उच्च स्तर तक आ पाया है। अब उसे ऋषित्व एवं देवत्व की कक्षाएं पार करते हुए, ईश्र्वर का अनंत ऐश्र्वर्य प्राप्त करना है। यह कार्य अपूर्णताएं दूर करते चलने से ही संभव है। पूर्ण परमात्मा में पूर्ण जीवों का ही लय
होता है। ईश्र्वर की जो प्रकृति एवं प्रवृत्ति है, उसी प्रकार की अंतःचेतना जिस दिन हमारी हो जाएगी, हम अपने आप पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे। उपासना हमें लघु से महान बनने की प्रेरणा देती है। ईश्र्वर को अपने में धारण करना अथवा अपने को ईश्र्वर में समर्पण करना एक ही बात को दो ढंग से कहना मात्र है। यह प्रयोजन वाणी से करने और कल्पना से सोचने पर सिद्घ नहीं होता, वरन् जीवन की रीति-नीति ऐसी बनानी पड़ती है, जिसमें से अपूर्णताओं, त्रुटियों का निष्कासन एवं महानताओं का अभिवर्द्घन निरंतर होता रहे। प्रातः उठते समय दिन भर का श्रेष्ठता युक्त कार्याम बनाना और रात्रि को सोते समय दिन भर की क्रिया-पद्घति को इस कसौटी पर कसना कि वह पूर्णता की दिशा में प्रगति कराती है कि नहीं, उपासना का आवश्यक अंग है। भजन की तरह यह आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन एवं आत्मविकास का, उपासना का अनिवार्य अंग है। हम जैसे-जैसे उदार एवं महान होते जाते हैं, वैसे-वैसे ही आत्मोत्कर्ष का उद्देश्य पूरा होता है। लघु से महान, अणु से विभु, आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की विचारधारा का नाम आस्तिकता है और उसका दैनिक अभ्यास, भावनात्मक व्यायाम करने की प्रिाया को उपासना कहते हैं। सच्चे आधार पर की हुई उपासना का प्रभाव साधक के जीवन में दिन-दिन अधिक प्रखर होता चलता है और उसका व्यक्तित्व दूसरों की अपेक्षा अत्यधिक प्रकाशवान बनने लगता है। जो आत्मविकास कर रहा होगा, उसकी क्षमता, प्रतिभा, गरिमा, महिमा सभी कुछ बढ़ रही होगी। इसकी पहचान उसके संतुष्ट प्रभाव एवं समुन्नत अंतःकरण के रूप में कभी भी देखी-परखी जा सकती है। मानव जीवन की सार्थकता इसी स्थिति को प्राप्त करने में अनुभव होती है।
आज लाखों-करोड़ों तथाकथित आस्तिक एवं उपासक दृष्टिगोचर होते हैं, पर उनका दृष्टिकोण गलत होने के कारण चिरकाल तक जप-तप करते रहने पर भी कोई लाभ या प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता, जिसका यह लोक उज्जवल नहीं, जिसको आज प्रसन्नता नहीं, उसे मरने के बाद स्वर्गीय आनंद मिलेगा, यह कल्पना सर्वथा असत्य है। आज के तथाकथित आस्तिक न लौकिक दृष्टि से समृद्घ हैं और न आध्यात्मिक दृष्टि से समुन्नत। ऐसी दशा में यह मानना पड़ेगा कि उनकी िाया व्यवस्था में कहीं दोष है। सच्ची उपासना सच्चे हीरे या स्वर्ण की तरह है, जिसके बदले में सहज ही अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त की जा सकती हैं। कांच का बना हीरा और नकली सोना जिस प्रकार किसी की समृद्घि नहीं बढ़ाता, उसी प्रकार भ्रांत आस्तिकता भी किसी उपासक की प्रगति में कोई सहायक नहीं होती।
आज लोग दस-बीस मिनट जो देव-दर्शन, जप-ध्यान, स्तोत्र पाठ, वंदन-अर्चन में लगाते हैं, उसके पीछे निःकृष्ट प्रयोजन के काम करते रहते हैं। वे सोचते हैं, इतने मात्र में ईश्र्वर प्रसन्न हो जाएगा और उन्हें जितनी भी सांसारिक कामनाएं अभीष्ट हैं, वे सभी पूरी कर देगा। इसी प्रकार वे निरंतर दुर्भावनाग्रस्त एवं पापलिप्त रहते हैं। उसके दंड से बचा देने की भी ईश्र्वर से आशा करते हैं। यह दोनों ही मान्यताएं ऐसी हैं, जो उपासक की आत्मिक प्रगति में भारी बाधा उपस्थित करती हैं। कोई व्यक्ति अपने हीन व्यक्तित्व को ही विकसित नहीं करता, पर जो लाभ पुरुषार्थियों को मिलना चाहिए, वह बिना श्रम के थोड़े से पूजा-पाठ द्वारा ही प्राप्त करना चाहता है, तो वह एक प्रकार से ईश्र्वर की महान व्यवस्था को उलट देने की ही कल्पना करता है। ईश्र्वर की प्रसन्नता सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाए बिना संभव नहीं है। भजन-पूजन तो इस मार्ग पर बढ़ने का एक आधार मात्र है। स्लेट-पेंसिल हाथ में लेने मात्र से कोई गणितज्ञ नहीं हो सकता। इसी प्रकार माला सद्गुणों के विकास का मार्ग प्रशस्त करती है, तब उससे समृद्घि की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। यह बीच की प्रिाया पूर्ण न की जाए, आत्मविकास की वह साधना, जिसमें हर आस्तिक को अपना जीवन सराबोर करना पड़ता है, छोड़ दिया जाए, तो फिर माला से कोई प्रयोजन पूरा नहीं होता। आज ऐसे ही तथाकथित भक्तों का बाहुल्य है, जो आत्मनिर्माण के आवश्यक कर्त्तव्यों का परित्याग कर किसी कोने में बैठे माला जपते रहते हैं और इस लोक तथा परलोक में बड़े-बड़े लाभ मिलने की कल्पना करते रहते हैं।
इसी प्रकार आज गंगा-स्नान से लेकर हनुमान चालीसा का पाठ अथवा एकादशी उपवास तक हर छोटा-मोटा कर्मकांड समस्त पापों को नाश करने का प्रमाण-पत्र मान लिया जाता है। जब पाप इतने सस्ते में कट सकते हैं तो फिर पाप से डरने की क्या आवश्यकता? फिर क्यों न भरपूर पाप करके इस लोक का मजा लूटा जाए? उनका दंड तो इन कर्मकांडों के माध्यम से नष्ट हो ही जाएगा, इस मान्यता से मनुष्य पाप से डरना छोड़ देता है। यही कारण है कि इन तथाकथित आस्तिकों में दोष-दुर्गुणों के अंबार भरे पड़े रहते हैं और वे साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक गए-गुजरे देखे जाते हैं। इसी शंका से शंकित होकर लोग कहते हैं कि जो उपासना व्यक्तित्व में निखार या परिष्कार न ला सकी, वह परलोक में सद्गति का प्रयोजन कैसे पूरा करेगी?
भौतिक कामनाओं की पूर्ति तथा पापनाश इन दोनों ही प्रयोजनों को छोड़कर हमें सर्वशक्तिमान सत्ता के सान्निध्य से प्राप्त होने वाली महानता के लिए ही उपासना करनी चाहिए। आस्तिकता का दृष्टिकोण अपनाकर प्रेम-भावनाओं का अभिवर्द्घन करना चाहिए और मानसिक एवं शारीरिक पापों से बचना चाहिए। आस्तिकता, मानवता एवं उत्कृष्टता का ही दूसरा रूप है। ईश्र्वर का भक्त ईश्र्वर के सामने ही सामर्थ्यवान एवं महान बन जाता है, इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं है, पर वह भक्ति होनी चाहिए। बेढंगी भक्ति तो आत्मप्रवंचना और लोक-विडंबना ही कही जाएगी।
– पं. लीलापत शर्मा
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