“आ बैल मुझे मार’ की नीति पर चलती संप्रग सरकार

रामसेतु मुद्दे पर एक बार फिर केंद्र सरकार पल्टी मार गई है। अभी पिछली जुलाई में उसने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत कर यह आश्र्वासन दिया था कि वह कथित रामसेतु की रक्षा के लिए वैकल्पिक मार्ग पर विचार करेगी। इसके लिए उसने प्रसिद्घ वैज्ञानिक आर.के. पचौरी की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन भी किया है, जिसकी रिपोर्ट अभी आनी बाकी है। यह आश्र्चर्यजनक ही है कि सरकार ने खुद अपने द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का इंतजार नहीं किया और न्यायालय में प्रस्तुत किये गये अपने पुराने स्टैंड के विपरीत अब एक नया स्टैंड ले लिया। अब उसने अपना पक्ष न्यायालय में यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि पौराणिक रामसेतु हिन्दू धर्म का “अभिन्न’ और “अनिवार्य’ हिस्सा नहीं है। अपने लिखित प्रतिवेदन में केन्द्र सरकार ने इस बात का उल्लेख किया है कि रामसेतु का जो बचा-खुचा हिस्सा है, स्वयं हिन्दू परंपरा के अनुसार उसकी पूजा-अर्चना नहीं की जा सकती, क्योंकि वह किसी खंडित प्रतीक की पूजा को मान्यता नहीं देती। साथ ही उसने यह भी कहा है कि याचिकाकर्ता सरकार के इस दावे का भी प्रामाणिक तौर पर खंडन नहीं कर सके हैं कि लंका-विजय के उपरांत वापस आते समय इस सेतु को स्वयं भगवान राम ने तोड़ दिया था।

हालॉंकि न्यायालय में अपना यह दृष्टिकोण कि रामसेतु को स्वयं भगवान राम ने ही ध्वस्त कर दिया था, सरकार न्यायालय में बहुत पहले ही प्रस्तुत कर चुकी है। फिर भी यह सवाल उठना लाजमी है कि तब उसने न्यायालय को अपनी सेतु समुद्रम परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग तलाश करने का आश्र्वासन क्यों दिया? सवाल यह भी है कि उसने इस मसले पर गठित वैज्ञानिकों की समिति की रिपोर्ट का इंतजार क्यों नहीं किया? सरकार इस बाबत अपना स्टैंड क्यों बार-बार बदल रही है? कभी वह राम और रामकालीन इतिहास को कवि-कल्पना बताकर इस सेतु को प्राकृतिक संरचना सिद्घ करने की कोशिश करती है तो कभी “कम्ब रामायण’ का हवाला देकर कहती है कि रामसेतु को स्वयं भगवान राम ने तोड़ दिया था। राजनीतिक रूप से होने वाले आामणों को जब वह झेल नहीं पाती है, तो यह आश्र्वासन भी देती है कि वह सेतु समुद्रम परियोजना के लिए वैकल्पिक मार्ग तलाश करने का प्रयास करेगी। मजाक यह कि इस बाबत गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का इंतजार भी नहीं करती और नया मोड़ ले लेती है। उसे खुद भी यह पता है कि “रामसेतु’ का मुद्दा कितना संवेदनशील है और इस मुद्दे पर आंदोलित जनााोश का सामना भी उसे तब करना पड़ा था जब उसकी ओर से “राम’ के अस्तित्व को नकारने वाला हलफनामा न्यायालय में दाखिल किया गया था।

संप्रग सरकार की अगुआ कांग्रेस को यह भी पता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा इसे उछाल कर राजनीतिक लाभ ले सकती है। इन सभी स्थितियों-परिस्थितियों का संज्ञान होते हुए भी अगर उसने फिर से रामसेतु को निशाना बनाने की मंशा जतायी है तो इससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि या तो वह मतिभ्रम का शिकार है अथवा उस पर ऐसा करने का भारी दबाव पड़ रहा है। केंद्र सरकार अनिर्णय का शिकार होगी, ऐसा मानने में हिचक होती है। संभावना इसी बात की है कि वह अपने संप्रग के सहयोगी दल द्रमुक के दबाव को झेल नहीं पा रही है। इस दबाव का सामना सिर्फ उसे ही नहीं करना पड़ रहा है। पिछली राजग सरकार ने भी इसी तरह का दबाव झेला था, जब उसके सहयोगी दल द्रमुक के मंत्रियों ने दबाव बनाकर इस परियोजना को स्वीकृत करा लिया था। आज भाजपा और संघ परिवार के लोग भले ही “रामसेतु’ को मुद्दा बनाकर आंदोलन खड़ा करें, लेकिन यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि इस परियोजना के प्रारूप को मंजूरी भाजपानीत राजग के शासनकाल में ही मिली थी। इसी स्वीकृत परियोजना के प्रस्ताव को बिना किसी हेर-फेर के लागू करने का दबाव द्रमुक और उसके सुप्रीमो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि अब संप्रग सरकार पर बना रहे हैं।

कांग्रेस भली-भॉंति जानती है कि रामसेतु के साथ हिन्दू आस्था का जुड़ाव है और इसके साथ खिलवाड़ करना उसके लिए काफी महॅंगा सिद्घ हो सकता है। संभवतः इसी से बचने के लिए उसने सर्वोच्च न्यायालय को वैकल्पिक मार्ग खोजने का आश्र्वासन भी दिया था। लेकिन द्रमुक के दबाव में एक बार फिर वह अपना स्टैंड बदलती समझ में आती है। उसका यह निर्णय राजनीतिक रूप से उसके विपरीत भी जा सकता है। जन-आस्था इस बात की चिंता नहीं करती कि रामसेतु ध्वस्त है अथवा नहीं, इस पचड़े से उसका कुछ भी सरोकार नहीं है। वह बस इतना जानती है कि यह उसके आराध्य राम की निशानी है, इसलिए यह जिस भी रूप में है उसके लिए पूज्य है। इस प्रतीक के साथ की गई कोई भी छेड़-छाड़ उसे बर्दाश्त नहीं होगी और उसकी भावनाएँ आहत होंगी। कांग्रेस इतनी भोली नहीं है कि उसे यह पता न हो कि ऐसा होने पर राजनीतिक फायदा हर हाल में भाजपा के ही हिस्से में जाएगा। उसके लिए सबसे सुविधाजनक रास्ता यही था कि वह इस परियोजना के लिए अन्य वैकल्पिक मार्ग पर ध्यान देती। ऐसा करने में अगर कुछ कठिनाईयॉं भी दरपेश होतीं तो भी जनााोश से बचने और जनआस्था का आदर करने की दृष्टि से यह उसके लिए श्रेयस्कर होता। लेकिन दबाव में जिन लचर और कमजोर तर्कों के साथ वह रामसेतु को ही मार्ग बनाने पर अड़ी दिखाई दे रही है, उसे समझदारी का निर्णय कत्तई नहीं माना जा सकता।

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