नई सदी के कर्णधार… नई पीढ़ी के पथप्रदर्शक और बड़े विद्वान, इक्कीसवीं सदी को स्वागतम् कहने वाले… अंतिम सत्र के लिए फिर एकत्रित हो गये।
यों लग रहा था, जैसे एक विशाल मरुस्थल के फफोलों से पीड़ित यात्रियों का एक थका-हारा काफिला एक लंबी यात्रा के बाद अपने गंतव्य तक पहुंचने वाला हो।
सत्र का आरंभ बड़ी उज्ज्वल आशाओं के साथ किया गया। उधर-इधर यह काफिला अपने गंतव्य तक पहुंच रहा था और उधर असंख्य इनसानों की एक बाढ़ हॉल के बाहर वाले चौक तक पहुंच गयी। पहले तो जुलूस में शामिल लोगों द्वारा लगाये नारे और शोर हॉल के अंदर मच्छरों की आवाज की तरह सुनाई देने लगा और फिर धीरे-धीरे यह कोलाहल मक्खियों व मधुमक्खियों की भिनभिनाहट की तरह बढ़ता गया।
जुलूस सम्मेलन हॉल की दीवारों तक पहुंच गया तो वह भिनभिनाहट नारों और कोलाहल में बदल गयी। सम्मेलन हॉल में स्याह चमकदार मेजों पर पड़ी हुई फाइलें एक-एक करके बंद होने लगीं। कलम, कलमदानों और पेंसिल कानों और जेबों की ओर बढ़ने लगे। बिना किसी घोषणा के सम्मेलन की कार्यवाही में विराम पड़ गया।
“क’ धीरे-से अपनी सीट से उठा और खिड़की की ओर बढ़ा, फिर हालात का निरीक्षण करने के लिए अपना सिर खिड़की से बाहर निकाला। दायें-बायें देखा और फिर वापस अंदर की ओर मुड़ते हुए बाहर का समाचार व्यंग्यात्मक अंदाज में प्रसारित करने लगा। एक शैक्षणिक समस्या को बाजार में हल करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
“ख’ भी अपनी सीट छोड़कर “क’ के साथ वाली खिड़की पर खड़ा हो गया। बाहर कोलाहल और बढ़ गया। “ग’ उठा, “घ’ उठा, “ज’ उठा और फिर “ह’ तक सभी व्यक्ति अपनी-अपनी सीटों से उठे। किसी ने खिड़की से तमाशा देखना शुरू किया और कुछ मेजों पर चढ़कर रोशनदानों से बाहर का दृश्य देखने लगे।
नवयुवकों के उस जुलूस में क्षण-प्रतिक्षण जोश और उत्तेजना बढ़ती गई। पहले तो लोग एक जब्त की हुई कार की छत पर बारी-बारी चढ़ते, भाषण देते, नारेबाजी करते, तालियां बजाते, अपनी मांगें पेश करते, धमकियां देते रहे, किंतु जब जबानी बातों से समस्या हल न हुई तो फिर व्यावहारिक काम की ओर बढ़ गये। जुलूस के लोगों के हाथों में पत्थर और ईंटों के अतिरिक्त बारूद भी दिखाई दे रहा था। सिग्नल की बत्तियां चूर होकर सड़क पर बिखर गईं। दुकानों के शीशों और दरवाजों पर पत्थर और ईंटों की वर्षा कर दी गई। साइन बोर्ड टूटने पिचकने लगे। दुकानें बंद हुईं। राहगीर अपनी राहें छोड़ गये और गाड़ियॉं विभिन्न दिशाएँ अपनाने लगीं।
एक सफेद एम्बूलेंस बड़ी तेजी से जुलूस की ओर बढ़ी और सायरन की भाषा में चीखती हुई आवाज रास्ता मांग रही थी, किंतु किसी ने सायरन की आवाज की ओर ध्यान नहीं दिया, जैसे बहरों का जुलूस हो। एम्बुलेंस के सिर पर सुर्ख बत्ती भी सायरन की आवाज के साथ रास्ता छोड़ने की प्रार्थना कर रही थी, किंतु किसी ने उसकी ओर भी ध्यान नहीं दिया। एम्बुलेंस के अंदर एक वयोवृद्घ व्यक्ति खून में लथपथ पड़ा था, जिसकी नाक और मुंह से खून निकल रहा था और उस तौलिये में जज्ब होता जा रहा था, जो उसके सिर के गिर्द लिपटा हुआ था। वहां वह व्यक्ति जीवन और मौत की कशमकश में ग्रस्त था, यहां जुलूस और पुलिस के बीच ठन गयी थी। इस अंतराल में एक निर्दयी हाथ हवा में लहराया और एम्बुलेंस के माथे पर लगी हुई सुर्ख बत्ती चूर हो गई और फिर बांस की एक लंबी लाठी से सायरन का मुख भी पीछे की ओर फेर दिया गया। शायद उसकी आवाज से जुलूस के काम में बाधा उत्पन्न हो रही थी। जुलूस से कुछ फासले पर एक पुरानी कार तेजी से गुजरने का प्रयत्न कर रही थी, किंतु वह जाग्रत नवयुवक कहां उतनी आसानी से उसे गुजरने देते थे? एक ने उस पर पेटोल छिड़कने में फुर्ती दिखाई और दूसरे ने माचिस की जलती तीली उस पर डाल दी। दो आदमी कार से बड़ी तेजी से कूद गये। डाइवर शोलों में गिरफ्तार गाड़ी को और एक लेखक अंतिम आयु में अपनी छपी हुई पहली किताब के बस्ते को विवशता से देख रहा था। किताबों के कागज राख हो गये और शब्द धुएं के साथ वायुमंडल में फैल गये।
जुलूस के हौसले बड़े बुलंद और मजबूत थे। वे पुलिस के गैस के शोलों का जवाब ईंटों और पत्थरों से देते रहे और बड़े गोलों का जवाब बारूद के गोलों से… हॉल में उपस्थित श्रोता-वक्ता और प्रबंधक बंदरों की तरह एक-दूसरे के कंधों से सिरों को टेक चुपचाप खड़े थे। जब जुलूस विसर्जित हो गया तो इक्कीसवीं सदी के हमदर्द पुनः अपनी सीटों की ओर लौटे… कार्यवाही फिर शुरू हुई। “क’ ने अपनी बात उस नई घटना के प्रकाश में इस प्रकार शुरू की, “”हमारा दावा है कि हमने बीसवीं सदी में अंतरिक्ष पर विजय पायी। चंद्रमा पर कदम जमाया। एटम खोजा। उसे अपने अधीन भी किया। इनसान ने प्रकृति के बहुत से गोपनीय रहस्यों का सुराग ढूंढा और बहुत कुछ सीखा, किंतु हम सबको इस बात को खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए कि हम इनसानियत का पाठ भूल चुके हैं। इनसान ने कई चीजों को पहचान लिया, लेकिन इनसानियत की पहचान में असफल रहा। अब चिंता इस बात की करनी चाहिए कि इक्कीसवीं सदी में इनसान को इनसान किस प्रकार बनाया जाये? इनसानियत को बचाना सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्य है।
सम्मेलन में शामिल सभी लोगों ने एक-दूसरे की ओर देखा और कोई भी माइक को अपनी ओर खींचने का दुस्साहस नहीं कर सका। “क’ की बात का विरोध किसी ओर से नहीं हुआ, क्योंकि बारूद की गंध और धुआं अब भी सम्मेलन हॉल में मौजूद था। (समाप्त)
– इस्माइल गोहर
– – अनुवादक – सुरजीत
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