अफरोज जहां इंटरव्यू देकर बाहर निकली, तो उसके चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी। उसका दिल भीतर ही भीतर बैठा जा रहा था। वह बहुत निराश थी।
इंटरव्यू में लोग बड़ी-बड़ी हस्तियों की सिफारिशें लेकर आये थे। कइयों के नम्बर उससे ज्यादा थे। लड़कियों में एक थी बंगालिन, मिस घोष, बड़ी इठला-इठला कर बातें करती थी। एक मिस सब्बरवाल थी, सूरत चाहे ऐसी ही थी, मगर पोज करती थी कि उसे नौकरी की आवश्यकता नहीं है, ऐसे ही चली आयी है। यहॉं के निदेशक उसके भाई के परिचित हैं। उन्होंने ही इन्सिस्ट किया है… और, एक और हसीन-सी लड़की आयी थी। उसके पाउडर की खुशबू लेने के लिए लड़के बिना बात के उससे बातें करने का यत्न कर रहे थे और वह रह-रहकर अपने निचले होंठ दांतों से काट रही थी, अपनी जीभ लपलपा रही थी। सबको यकीन था कि इस हसीना का ही सेलेक्शन होगा। उसने उस बंगालिन से फुसफुसा कर बताया था कि यहॉं अप्लाई करने के बाद ही उसने अपना जैक लगा दिया था।
ऐसे में जुगाड़ू लड़कों की भी हालत खस्ता हो गयी थी। सभी की जबान पर मिस सब्बरवाल और उस हसीन लड़की का नाम बार-बार उभर रहा था। अपने लोगों को नौकरियों में जो प्राथमिकता दी जा रही थी, उससे तो सब हताश थे ही। अफरोज जहां ने अपनी ओर देखा, सीधी-साधी धोती पहने, एक चोटी किये वह मात्र घरेलू स्त्री की तरह इंटरव्यू में आयी थी। शायद इसलिए निदेशक ने उससे पूछा था, “”अच्छा मिस अफरोज जहां, यह बताइए कि आपके रिसोर्सेज कहॉं-कहॉं हैं?
उस वक्त वह घबरा गयी थी। “रिसोर्सेज’ के अर्थ उसकी समझ में नहीं आये थे। वह खामोशी से निदेशक की ओर देख कर नीचे देखने लगी थी। इंटरव्यू में आने से पूर्व उसने जुगराफिया के पन्ने पलटे थे, कितने ही मुल्कों की राजधानियों के नाम याद किये थे, कामराज योजना पर लेख पढ़े थे, राष्टीय-गान की पंक्तियॉं कई-कई बार लिख कर याद की थीं। मगर … मगर उस व़क्त खामोश थी।
निदेशक ने फिर पूछा, “”आपके वाकिफकार किस-किस पोस्ट पर हैं?”
वह कुछ क्षण चुप रही। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दें। बता दे कि… लेकिन उसके मुंह से निकल गया, “”कहीं नहीं हैं।”
फिर उसने अपनी गर्दन नीचे झुका ली।
“”अच्छा-नेकस्ट!”
वह बाहर आयी तो नाउम्मीदी उसका पल्ला पकड़ कर खींच रही थी। सब लड़कियॉं उसे घेर कर पूछने लगी थीं, “”क्या पूछा? … क्या पूछा?…. बस, इतना ही पूछा? … यह भी कोई इंटरव्यू हुआ? …. और सब अपने-अपने पक्ष का वजन तौलने लगी थीं।
अफरोज जहां उस दफ्तर की आलीशान बिल्ंिडग को देखने लगी थी। उसके लॉन में खिले फूल और हरी-हरी मखमली घास की फर्श को देख रही थी। सीमेंट के पक्के रास्ते पर अपनी चप्पल आहिस्ता-आहिस्ता फिसला रही थी और सोच रही थी, यहॉं नौकरी मिल जाती तो कितना अच्छा होता! यहॉं की सब चीजें कलात्मक हैं। अन्य दफ्तरों की तरह यहॉं गंदगी और भिंचा-भिंचा-सा वातावरण नहीं है।… कितना अच्छा होता, अगर मैं कह देती कि मेरे रिसोर्सेज हैं। मंत्री का पीए मेरे मामू का लड़का है। कल्चरल अफेयर्स में मेरे खालूजात भाई हैं। और …. मैंने क्यों नहीं कह दिया… क्यों नहीं कह दिया यह सब! बता देती तो शायद कुछ रौब पड़ जाता। शायद किसी और मतलब के लिए पूछा हो, शायद स्टेटस जानने के लिए पूछा हो, शायद… शायद…
उसका सिर चकराने लगा। घर की परिस्थितियों ने भी उसके सामने आकर जमघट लगा लिया।
वह धीरे-धीरे पोर्टिको के गोल खम्भे से सटककर खड़ी हो गयी। मोजिज के पलस्तर का खम्भा उसे ठंडा-ठंडा-सा बहुत अच्छा लगने लगा। वह अपने हाथ उस खम्भे पर फेरने लगी। कुछ देर वह उसी तरह हाथ फेरती रही, फिर चौंक कर उसने हाथ ऐसे हटा लिए, जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो, जैसे उस चिकने-ठंडे खम्भे पर कोई नुकीली कांच की कनी उसकी उंगलियों में आ गयी हो। वह अपने चारों ओर देखने लगी कि किसी ने उसे खम्भे पर इस तरह से हाथ फेरते हुए देख तो नहीं लिया है। सचमुच दो-तीन लड़के उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा रहे थे। वह झेंप गयी। वह थोड़ी देर वैसे ही खम्भे की शीतलता को खड़ी सोखती रही। फिर कुछ सोचती-सी सीमेंट वाले रास्ते से होती हुई सड़क पर आ गयी। वहॉं पर आते ही उसकी तबीयत हुई कि एक बार जी भर कर इस दफ्तर की बिल्ंिडग को देख ले। मगर उसके दिल के किसी कोने में से कोई बोला, क्या फायदा! जब नौकरी ही नहीं मिलेगी, तो बिल्ंिडग देख कर क्या करेगी? और वह बिना बिल्ंिडग की तरफ देखे जल्दी से एक रिक्शे में जा बैठ गयी थी। धूप तेज हो गयी थी।
आज फिर वह रिक्शे से उसी दफ्तर की फाटक पर उतरी। रिक्शेवाले को पैसे देने से पहले उसने दफ्तर की बिल्ंिडग को आँख भर कर देखा। देखती रही। फिर सीमेंट वाले रास्ते पर आ गयी। उसकी चाल में भारीपन नहीं था। आज उसका दिल बैठा-बैठा नहीं था। उसके चेहरे पर प्रसन्नता खेल रही थी। उसके दिल से नाउम्मीदी वाली बात एकदम काफूर हो गयी थी। वह उड़ी-उड़ी-सी पोर्टिको के खम्भे के पास क्षण भर के लिए रुकी, उसका मन किया कि उसकी शीतलता को अपने में सोख ले, मगर उसके हाथ की अंगुलियों ने उस ठंडे-ठंडे चिकने से खम्भे को नहीं छुआ। भीतर के गेट पर खड़े दरबान की तरफ भी उसने हल्की उचटती-सी निगाह फेंकी। लॉन में लगे फूलों को भी उसने ऐसे ही सरसरी नजर से देखा। फिर सीधे नियुक्ति अनुभाग की ओर चली गयी। दरवाजे पर आकर वह ठिठकी। रंगीन मोटे पर्दे को हटा कर भीतर जाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। वह इधर-उधर देखने लगी।
बरामदे में भी ठंडी-ठंडी हवा आ रही थी। उसकी साड़ी का पल्लू हवा में लहरियॉं ले रहा था। उसके होंठों पर रह-रहकर मुस्कुराहट आ रही थी, जिसे वह अपने दांतों से काट-काट कर अपंग कर रही थी। मगर पता नहीं कौन-कौन से विचार वह मुस्कुराहट पैदा किये जा रहे थे, उसकी लम्बान बढ़ाते जा रहे थे कि एकदम से उसकी लम्बान रुक गयी।
“”कहिए, किससे मिलना है?” चपरासी ने पूछा।
उसने अपने हाथ का कागज उसकी ओर बढ़ा दिया।
“”क्लर्क के लिए आयी हो?”
“”हूँ।”
“क्लर्क’ शब्द कान में पड़ते ही वह किसी हीन भावना से दब गयी। उसके होंठों पर हंसी की लम्बान नहीं उभरी।
सिर झुका कर बरामदे के साफ-सुथरे फर्श पर वह अपनी चप्पल की नोक घिसने लगी। उंगली से साड़ी के पल्लू का किनारा सीधा करते हुए वह कुछ सोचने लग गयी।
चपरासी के इशारा करने पर भीतर चली गयी। उसकी पोस्ंिटग हो गयी थी। जिस सेक्शन में उसकी पोस्ंिटग हुई थी, उस सेक्शन के अन्य बाबू काफी खुश नजर आ रहे थे। उनके सेक्शन में लड़की की एक संख्या और बढ़ गयी थी। अफरोज जहां को भी कुछ तसल्ली हुई थी कि चलो एक और लड़की उसके साथ काम करेगी। इतने सारे बाबुओं के बीच वह अकेली नहीं है। मगर बाबुओं की आपसी घुसर-पुसर से उसका जी बड़ा कसैला हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे वह किसी अनजान दुनिया में जाकर फंस गयी है। पर उस दूसरी लड़की ने उसकी बगल में बैठकर उससे दोस्ती कर ली। लंच ऑवर्स तक अफरोज जहां की झिझक खत्म हो गयी। उसे दफ्तर की सारी बातें मालूम हो गयीं। यह भी मालूम हो गया कि न मिस सब्बरवाल की नियुक्ति हुई है और न उस बंगालिन मिस घोष की, और न उस पाउडर की खुशबू लुटाने वाली हसीन लड़की की… और न … उसे किसी और के बारे में जानने की उत्सुकता नहीं थी। मगर उसे इस बात का ताज्जुब था कि उनकी नियुक्ति क्यों नहीं हुई? उन सबके पास सिफारिश थे।
लंच ऑवर्स में दफ्तर के मखमली घास वाले लॉन में बैठ कर जब अफरोज जहां ने उस लड़की से अपने मन की बात कही तो वह हंस पड़ी और बताया, “”हमारे डायरेक्टर बहुत प्रिंसिपल वाले हैं। वह चाहते हैं कोई डॉमिनेट न कर सके। इसीलिए सेलेक्शन करने से पहले वह रिसोर्सेज के बारे में पूछ लेते हैं… तुमसे भी पूछा होगा।”
“”हूँ”
अफरोज जहां सोचने लगी कि बड़ा अच्छा हुआ, जो वह अपने वाकिफकारों के नाम नहीं बता पायी थी। अगर बता देती तो उसका भी गलत इम्प्रेशन पड़ता और उसकी भी नियुक्ति नहीं होती। वह इस दफ्तर में नहीं आ पाती। घास के इस मखमली फर्श पर यूं न बैठ पाती। दफ्तर की इमारत को वह आँखें भर कर देखने लग गयी ।
– घनश्याम रंजन
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