इलेक्टॉनिक मीडिया की समाचार प्रस्तुति में गड़बड़ी कहॉं है? यह सवाल एक अरसे से पूछा जा रहा है और इसके कई-कई जवाब भी सामने आते रहे हैं। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद मीडिया एक बार फिर कठघरे में है। सबसे बड़ा आरोप जो मीडिया पर लग रहा है, वह है- अऩुत्तरदायी व्यवहार का। जिसे “जनतंत्र का चौथा स्तंभ’ कहा जाता हो और जिस पर बाकी तीनों स्तंभों- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका- पर निगरानी का भी भार हो, उस खबरपालिका पर यदि उत्तरदायित्व की उपेक्षा या उत्तरदायित्वहीनता का आरोप लगता है तो यह बहुत ही गंभीर बात है। इसलिए यदि न्यूज ब्राडकास्टिंग स्टैंडर्स अथारिटी (एनबीए) औपचारिक रूप से मीडिया को यह सलाह देती है कि वह “दायित्व-भावना का परिचय’ दे और “आत्म-नियमन और आत्म-नियंत्रण’ काम में लाते हुए समाचार जनता तक पहुँचाए, तो इसे स्वस्थ और उपयोगी आलोचना के रूप में ही समझा जाना चाहिए।
मीडिया की इसी कवरेज को लेकर सेंसरशिप की बात भी उठ रही है। संसद में भी इस बारे में चिंता प्रकट की गयी है और ये संकेत दिये गये हैं कि यदि एनबीए की आलोचना को उचित और शीघ्र प्रतिसाद नहीं मिलता है, तो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय कुछ कठोर कदम उठा सकता है। इन कठोर कदमों की व्याख्या तो नहीं की गयी लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं है कि इशारा सेंसरशिप की तरफ ही है। ऐसा कुछ यदि होता है, तो यह मीडिया और जनतंत्र, दोनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। जनतंत्र के चौथे स्तंभ पर सरकार का किसी भी तरह का नियंत्रण, भले ही वह कितना ही जरूरी क्यों न लगे, उचित नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि मीडिया को उच्छृंखल छोड़ दिया जाये। तो फिर क्या हो? इस सवाल का एक ही उत्तर है- आत्मनियंत्रण, आत्मनियमन। पत्रकार हर शब्द लिखने से पहले सोचे, कि वह जो लिख रहा है- वह सही है या नहीं। समाज के व्यापक हितों के अऩुकूल है या प्रतिकूल। यही बात इलेक्टॉनिक मीडिया पर भी लागू होती है। जो दिखाया जा रहा है- इससे समाज का हित सधेगा या अहित होगा। यह सही है कि इस सामाजिक हित को भी अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जा सकता है, लेकिन विवेक की एक ही परिभाषा होती है। मीडिया की ताकत का तका़जा है कि मीडिया से जुड़े लोग विवेकशील हों। हर शब्द तौलकर लिखें, हर शब्द सोच-समझकर बोलें, हर दृश्य दिखाने से पहले अपने विवेक से पूछें- यह सही होगा या नहीं।
यह बात कहनी जितनी आसान है, उसे लागू किया जाना उतना ही मुश्किल है। मुश्किल है, इसलिए ज्यादा ़जरूरी है अपने किये-कहे को लगातार उचित-अनुचित के संदर्भ में समझने की कोशिश करना। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के दौरान मीडिया, विशेषकर इलेक्टॉनिक मीडिया की भूमिका को लेकर मीडिया के भीतर और बाहर, दोनों जगह औचित्य के सवाल पर विचार हो रहा है- यह अपने आप में एक अच्छी बात है। मीडिया को स्वयं से पूछना होगा कि यह स्थिति बनी कैसे?
जिस तरह मीडिया एक व्यवसाय बनता जा रहा है, उसमें यह स्वाभाविक है कि हर अखबार, हर चैनल स्व़यं को दूसरे से बेहतर दिखाने की कोशिश करे। लेकिन बेहतर दिखाने से ज्यादा महत्वपूर्ण बेहतर होना है। मीडिया के संदर्भ में इस बेहतरी की कसौटी भी यही होनी चाहिए कि वह जो कर रहा है, वह समाज के व्यापक हितों के पक्ष में है या विपक्ष में। लेकिन इस कसौटी को कौन मानता है? जब होड़ सबसे आगे और सबसे पहले होने की लगी हो, जब नजर टीआरपी पर हो, तो औचित्य की बात कभी-कभी या अ़कसर गौण हो जाती है। सवाल खबर पहुँचाने का ही नहीं, जवाबदेही का भी है। यूँ तो जवाबदेही हर पेशे के साथ जुड़ी है, लेकिन पत्रकारिता को, जिसमें इलेक्टॉनिक मीडिया शामिल है, जनतंत्र में एक विशेष जवाबदेही भी निभानी होती है। महाभारत में एक प्रसंग आता है- अश्र्वत्थामा के मरने का। अश्र्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य के बेटे का नाम भी था और एक हाथी का भी। हाथी मार दिया जाता है। भीम अश्र्वत्थामा के मरने की घोषणा करते हैं। द्रोणाचार्य युधिष्ठिर से पुष्टि चाहते हैं। युधिष्ठिर कभी झूठ नहीं बोलते, इसलिए कहते हैं, “अश्र्वत्थामा हतो… नरो वा कुंजरो।’। पूर्व योजना के अऩुसार श्री कृष्ण “नरो वा कुंजरो’ बोले जाने के समय नगाड़ों की तीव्र ध्वनियॉं करा देते हैं। द्रोणाचार्य कथन का यह हिस्सा नहीं सुन पाते और युद्घ में मारे जाते हैं। इस प्रसंग की एक व्याख्या यह भी है कि आप समाचार जिस अर्थ में देना चाहते हैं, दे सकते हैं, लेकिन माध्यम का गलत उपयोग या गलत ढंग से उपयोग आपके कृत्य को अनैतिक बना देता है। दुःख की बात है कि आज हमारी पत्रकारिता में नैतिकता-अनैतिकता का अंतर धुंधला पड़ता जा रहा है। सच तो यह है कि इस अंतर को समझने की जरूरत भी नहीं समझी जा रही।
इस दृष्टि से हमारे इलेक्टॉनिक मीडिया की भूमिका कहीं अधिक चिंताजनक है। चौबीसों घंटे समाचार देने की ज़िद में और टीआरपी बनाये रखने की होड़ में हमारे खबरिया चैनल जाने-अन्जाने एक अंधी सुरंग में दौड़े चले जा रहे हैं। अपवाद हैं, और इस तरह के उदाहरण भी हैं जो इलेक्टॉनिक मीडिया की पहल और उपयोगिता को रेखांकित करते हैं। लेकिन कुल मिलाकर इलेक्टॉनिक मीडिया समाचारों के सतहीकरण का उदाहरण बनता जा रहा है। मीडिया समाचार देने के बजाय समाचार बेचने में ज्यादा लगा है। अश्र्वत्थामा के मरने की खबर तो देता है, लेकिन “नरो व कुंजरो’ वाला हिस्सा शायद जानबूझकर भूल जाता है।
आज यदि सामान्य दर्शक टीवी पर दिखाये जा रहे समाचारों से कभी-कभी (या अकसर) खीझ जाता है, तो इसके बारे में सफाई देने की बजाय सोचने की आवश्यकता है। यह आत्म-नियमन की पहली सीढ़ी है। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद न्यूज कवरेज को लेकर जिस तरह की प्रतििायाएँ सामने आयी हैं, वे आँख खोल देने वाली होनी चाहिएं। टीवी और अखबारों की खबरें भी “सनसनीपूर्ण, अति नाटकीय, स्वार्थपरक’ आदि बतायी जा रही हैं। दर्शक-पाठक इस बात की भी शिकायत कर रहे हैं कि रिपोर्टर उपदेश देने लगे हैं, खबरों के बीच में अपनी राय घुसेड़ रहे हैं। देखा जाये तो यह प्रतििाया, पत्रकारिता की सर्वमान्य परम्परा के उल्लंघन के प्रति भी है। खबर और विचार को अलग रखने की यह परम्परा आज की पत्रकारिता को शायद स्वीकार नहीं हो पा रही। दर्शक समझ नहीं पाता कि खबर कहॉं खत्म होती है, विचार कहॉं शुरू हो रहा है? टीवी वाले खबर देने के साथ-साथ यह भी बताना चाहते हैं कि आप इस खबर के बारे में क्या सोचें, कैसा अनुभव करें? समाचारों में भाषण मिलाना या उन्हें नाटकीय बनाना भले ही मीडिया की ़जरूरत या विवशता हो, लेकिन इससे समाचारों की विश्र्वसनीयता पर आँच आ रही है। लाइव खबर पहुँचाने की एक्सक्लूसिव वाली होड़ भी खबरों को अकसर हल्कापन दे जाती है। ऐसे में अकसर लगता है- खबर देने वाला खुद खबर बनना चाहता है। गलत है यह प्रवृत्ति। मीडिया से जुड़े हम सब लोगों को खबर की महत्ता और पवित्रता के बारे में सोचना होगा। खबर की सामग्री और उसका औचित्य, दोनों महत्वपूर्ण हैं। और महत्वपूर्ण यह भी है कि खबर दी कैसे जा रही है? खबर की विश्र्वसनीयता का भी तका़जा है कि पत्रकार आत्म-विश्र्लेषण करें। बाहरी सेंसरशिप से बचने के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा।
– विश्र्वनाथ सचदेव
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