इस परमाणु करार पर असमंजस में हैं भारतीय

भारत-अमेरिका के मध्य प्रस्तावित बहुचर्चित एवं अति विवादित परमाणु करार को लेकर भारत की सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की केंद्र सरकार दांव पर लग गई है। इस प्रस्तावित परमाणु करार को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना चुके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार के आस्तत्व को दांव पर लगाते हुए करार की दिशा में आगे बढ़ने का फैसला किया है। दूसरी ओर संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वामपंथी दलों द्वारा इस प्रस्तावित करार का विरोध करते हुए सरकार से अपना समर्थन वापस लेने का निर्णय लिया गया है। ज्ञातव्य है कि वामपंथी दलों के भारतीय संसद में लोकसभा के 59 सदस्य हैं। इनके समर्थन के परिणामस्वरूप ही केंद्र में संप्रग सरकार का गठन संभव हो पाया था। अब 22 जुलाई को मतदान द्वारा संप्रग सरकार के भविष्य का फैसला लोकसभा में होना निर्धारित है।

वामपंथी दलों द्वारा प्रारम्भ से ही भारत-अमेरिका के मध्य इस प्रस्तावित समझौते का डटकर विरोध किया जाता रहा है। वामदलों का मानना है कि इस समझौते के लिए अमेरिका भारत पर दबाव बना रहा है। वामदलों के अनुसार इस समझौते से भारत अमेरिका का पिछलग्गू बन जाएगा तथा अपनी गुट निरपेक्ष नीति से भारत के कदम डगमगा जाएंगे। केवल वामपंथी दल ही नहीं बल्कि अनेक परमाणु वैज्ञानिक तथा विशेषज्ञ भी इस समझौते के हक में नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के पूर्व निदेशक पी. के. आयंगर इस करार को भारत के हित में कतई नहीं मानते। ऐसे अनेकों विशेषज्ञों के अनुसार भारत द्वारा अमेरिका से परमाणु समझौता करने का सीधा अर्थ अमेरिका का पिछलग्गू बनना तथा अपनी गुट निरपेक्षता की नीति की बलि चढ़ा देना है। परन्तु भारत में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो इस समझौते का प्रबल पक्षधर है।

पूर्व राष्टपति एवं भारत रत्न डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने इस प्रस्तावित करार को देशहित में बताया है। भारत-अमेरिका परमाणु करार को कलाम द्वारा दिए गए समर्थन का परिणाम यहां तक देखा जा रहा है कि केंद्र में वामपंथी दलों द्वारा सरकार से समर्थन वापस लेने की स्थिति में अल्पमत में आई संप्रग सरकार को अपना समर्थन देने हेतु समाजवादी पार्टी आगे आ गई है। भारत में ऐसी धारणा व्यक्त की जा रही थी कि चूंकि पूरे विश्र्व में मुस्लिम समाज इस समय अमेरिका विरोधी मानसिकता का शिकार है अतः भारतीय मुसलमान भी अमेरिका के साथ प्रस्तावित इस परमाणु करार का विरोध करेंगे। परन्तु आश्र्चर्यजनक ढंग से यह देखा जा रहा है कि भारतीय मुसलमानों के दो सबसे बड़े संस्थान दारुल उलूम व बरेलवी संगठन द्वारा प्रस्तावित करार को देशहित में बताते हुए अपना पूरा समर्थन देने की घोषणा की गई है।

करार के समर्थन में अपना तर्क प्रस्तुत करने वालों का मानना है कि भविष्य में भारत के समक्ष ऊर्जा की असीमित मांग पैदा होने वाली है। जिसकी आपूर्ति पेटोलियम जैसे ईंधन से कर पाना संभव नहीं होगा। दूसरा तर्क यह भी है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते हुए खतरों के मद्देनजर भविष्य में अब ऐसे ऊर्जा स्रोतों को प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है जोकि कम से कम प्रदूषण पैदा करते हों। जाहिर है, परमाणु ईंधन (यूरेनियम) के प्रयोग से कम से कम प्रदूषण होता है तथा कम से कम प्रदूषण में अधिक से अधिक ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। करार का विरोध करने वालों का तर्क है कि इस करार पर दस्तखत करने के बाद तथा इसके लागू होने के पश्र्चात भारत कोई परमाणु परीक्षण नहीं कर सकेगा। परन्तु अन्तर्राष्टीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी आईएईए तथा भारत सरकार के बीच हुए मानक समझौते के दस्तावेज को देखने से यह पता चलता है कि आईएईए भारत के सैन्य कार्याम में हस्तक्षेप नहीं करेगी। इसके अतिरिक्त यह समझौता केवल उन असैनिक परमाणु संस्थानों में ही लागू होगा जिनकी पहचान भारत करेगा।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह भविष्य में ऊर्जा की बढ़ती हुई जरूरतों व इसकी मांग को कैसे पूरा करे। निश्र्चित रूप से इसके लिए परमाणु ऊर्जा ही सर्वोत्तम विकल्प है। दूसरी ओर भारत के पास परमाणु ऊर्जा केंद्रों को संचालित करने हेतु जरूरी ईंधन अर्थात यूरेनियम का नाममात्र भंडार है। यही वजह है कि यूरेनियम की आपूर्ति हेतु भारत को अक्सर दूसरे देशों की ओर देखना पड़ता है। माना जा रहा है कि इस करार से परमाणु ईंधन (यूरेनियम) की आपूर्ति का मार्ग तो प्रशस्त होगा ही, साथ-साथ भारत का नाम परमाणु ऊर्जा सम्पन्न देशों में भी शामिल हो जाएगा। इन परिस्थितियों में देश के विकास का मार्ग भी और अधिक प्रशस्त होगा। इस करार के पक्षधर न सिर्फ इस करार को देश की जरूरत मान रहे हैं बल्कि भारत-अमेरिका परमाणु करार को भारत की वैज्ञानिक स्वतंत्रता का नाम भी दे रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि भारत अमेरिका से यह करार नहीं करता तो रूस, ब्रिटेन, जर्मनी व फ्रांस जैसे यूरेनियम उत्पादक देश भी बिना इस करार के भारत को परमाणु ईंधन नहीं दे सकते। जबकि इस करार के बाद इन देशों से परमाणु ईंधन प्राप्त करने के द्वार भारत के लिए खुल जाएंगे।

परन्तु इन सब सकारात्मक दलीलों के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस करार के पीछे अमेरिका की दूरगामी विदेश नीति शामिल नहीं है। विशेषज्ञों का मानना है कि कभी सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने के लिए भारत पर दबाव डाल रहा अमेरिका अब इस समझौते के माध्यम से अपनी उसी बात को मनवाने की कोशिश कर रहा है। प्रस्तावित विवादित भारत-अमेरिका परमाणु करार भी परमाणु अप्रसार संधि के पक्ष में ही बताया जा रहा है। दूसरी ओर भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत-ईरान-पाकिस्तान के साथ होने वाले गैस पाइपलाइन समझौते का भी अमेरिका द्वारा विरोध किया जा रहा है। ऐसे में अमेरिकी नीतियों के स्थाई विरोधी समझे जाने वाले वामपंथी दलों का यह सोचना उचित है कि कहीं इस समझौते के बाद भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए पूरी तरह अमेरिका पर ही आश्रित न हो जाए। और यह भी कि यह समझौता कहीं भारत को अमेरिका का पिछलग्गू न बना दे। वामपंथियों का यह संदेह इसलिए और भी मुखरित हो रहा है क्योंकि भारत के यही प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कभी तीसरी दुनिया को विकसित देशों के हथकंडों से आगाह कराया करते थे। परन्तु इन्हीं के कार्यकाल में विश्र्व बैंक तथा बहुराष्टीय कम्पनियों का दबाव मनमोहन सिंह के शासन पर पड़ता साफ नजर आ रहा है।

हालांकि वामपंथी नेताओं का अब भी यह कहना है कि राजनैतिक रूप से वे ऐसे हालात पैदा कर देंगे कि परमाणु करार की दिशा में भारत का आगे बढ़ पाना संभव ही नहीं हो सकेगा। परन्तु करार के समर्थन एवं विरोध के मध्य दो बातें जरूर साफ नजर आ रही हैं। एक तो यह कि भारत सहित पूरा विश्र्व इस समय मंहगाई की जबरदस्त मार झेल रहा है। मंहगाई का आंकड़ा ऐतिहासिक रूप से 12 अंक को छूने जा रहा है। ऐसे में भारत में पक्ष-विपक्ष को यह चाहिए था कि परमाणु करार जैसे दूरगामी एवं विवादित मुद्दों पर उलझने के बजाए सामूहिक रूप से जनता को मंहगाई से राहत दिलाने के उपायों पर राजनैतिक दल अपनी ऊर्जा खर्च करते। परन्तु इसके बजाए परमाणु करार जैसे मुद्दों पर भारत के राजनैतिक दलों द्वारा न सिर्फ सरकार के गठन व पतन के खेल खेले जा रहे हैं बल्कि सम्प्रदायवादी राजनीति को भी इस करार से जोड़ने का घिनौना प्रयास किया जा रहा है। दूसरी बात यह भी है कि इस करार के पक्ष और विपक्ष में ऐसे-ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों के वक्तव्य आ रहे हैं कि भारत की आम जनता असमंजस में है कि आखिर भारत-अमेरिका परमाणु करार में राष्ट का हित निहित है या अहित।

 

– तनवीर जाफ़री

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