जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन वापस लेने के बाद कश्मीर फिर हिंसा एवं उग्र प्रदर्शनों की चपेट में आ गया है। जम्मू में विरोध प्रदर्शन इतना उग्र हुआ कि कर्फ्यू लगानी पड़ी। घाटी में अलगाववादी इसे अपनी जीत मानकर खुशियां मना रहे हैं। हुर्रियत कॉनेंस के एक धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी का बयान था कि इसी प्रकार एकजुटता दिखाकर हम भारत से अपनी आजादी छीन सकते हैं। अलगाववादी तत्व आजादी के समर्थन में नारे लगा रहे थे। कश्मीर में यह स्थिति लंबे समय बाद पैदा हुई है। इस समय पूरा कश्मीर इस एक निर्णय की भेंट चढ़ा हुआ है। हालांकि सरकार के इस फैसले से किसी को हैरत नहीं हुई। यह बात आईने की तरह साफ था कि बोर्ड के अध्यक्ष के नाते राज्यपाल एन.एन. वोहरा ने सरकार द्वारा यात्रियों की सुख-सुविधाओं का ख्याल रखने की शर्त पर आवंटित जमीन वापस करने का जो पत्र लिखा था वह दरअसल सरकार द्वारा अपना पूर्व आदेश वापस लेने की प्रिाया का ही अंग था। उसका अगला कदम यही हो सकता था। घाटी में अलगाववादी संगठनों एवं पीडीपी तथा नेशनल कॉनेंस जैसी राजनीतिक पार्टियों के विरोध के बाद सरकार जिस तरह का व्यवहार कर रही थी उससे साफ था कि वह दबाव में आ चुकी है। किंतु यह निर्णय अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। अलगाववादी तत्वों की हौसला अफजाई का दुष्परिणाम कई रूपों में सामने आ सकता है। गैर वैधानिक दृष्टि से निर्वाचित सरकारें इस प्रकार कट्टरपंथी व अलगाववादी तत्वों के दबाव में आकर अपना निर्णय बदलने लगें तो इसके परिणाम कभी अच्छे नहीं आ सकते। सरकार से यह पूछा जाना चाहिए कि आपने एक पक्ष के विरोध को तो उचित मानकर अपना निर्णय बदल दिया, वहीं अब जब दूसरा पक्ष इस बदले निर्णय का विरोध कर रहा है तो उसके प्रति आपकी बेरुखी क्यों है? आखिर ये भी प्रदेश के नागरिक हैं।
इसमें दो राय नहीं कि आदेश वापस लेकर निवर्तमान मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने पीडीपी की चुनावी लाभ की संभावना को धक्का पहुँचा दिया है। पीडीपी सरकार से अलग होने के साथ इसे मुद्दा बनाने की रणनीति पर काम कर रही थी। किंतु इससे एक घातक परंपरा की नींव पड़ी है। घाटी में विरोध प्रदर्शन भले रुक गया लेकिन अलगाववादियों के पर निकल गए। “वी वांट ाीडम’ एवं “इंडिया गो बैक’ जैसे नारे काफी समय बाद सुनाई पड़ रहे हैं। भाजपा या विहिप की विचारधारा से किसी का विरोध हो सकता है, किंतु उन्होंने इसे देशव्यापी आंदोलन में अगर परिणत किया है तो उसे आप गलत कैसे कह सकते हैं। हालांकि अगर उन्होंने अहिंसक विरोध के रास्ते का पालन नहीं किया तो फिर विरोध अपना नैतिक पक्ष खो देगा। बहरहाल, जो कभी सांप्रदायिक नजरिए से विचार नहीं करते, ऐसे लोगों को भी इस निर्णय में सांप्रदायिक तुष्टिकरण दिख रहा है। सरकार ने फैसला बदलने के पहले इस बात पर विचार क्यों नहीं किया कि मात्र 39.88 हेक्टेयर भूमि श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को देने के निर्णय पर इतना हिंसक प्रतिरोध खड़ा करने वाले तत्व कौन थे? अगर बोर्ड यात्रियों की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखती तो इससे कौन-सी आफत आ जाती? इसमें कश्मीरियत पर आँच कहॉं से आने लगी थी? वास्तव में इस कदम के खिलाफ मजहबी कट्टरपंथ व भारत से विलग होने की भावना से काम करने वाले जम्मू-कश्मीर लिबरेशन ांट, हुर्रियत कॉनेंस के दोनों धड़े सहित दूसरे इसी श्रेणी के छोटे संगठनों ने लोगों को भड़काया एवं चुनावी लाभ के लिए पीडीपी एवं नेशनल कॉनेंस जैसी पार्टियां भी विरोध के मैदान में कूद पड़ीं। एक सरकार के नाते निवर्तमान मुख्यमंत्री को अपने निर्णय पर दृढ़ता से अड़ना चाहिए था। इसका पूरे देश में अच्छा संदेश जाता। अब इस निर्णय से जो संदेश निकले हैं, वे यकीनन चिंताजनक हैं। इसके खिलाफ केवल जम्मू ही नहीं, पूरे देश में आाोश है। इस मुद्दे पर जनमत सर्वेक्षण किया जाए तो बहुमत इसका विरोध करेगा।
इससे केवल जम्मू-कश्मीर का वातावरण ही विषाक्त नहीं हुआ है, राजनीतिक दृष्टि से भी यह कांग्रेस के लिए लाभप्रद होगा, इसमें संदेह है। सच कहा जाए तो कांग्रेस ने भाजपा को अपने परंपरागत मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए एक बड़ा मुद्दा थमा दिया है। भोपाल में लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा के हिन्दी अनुवाद के विमोचन समारोह में पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि कांग्रेस ने थाली में सजाकर श्रीअमरनाथ जमीन का मामला उसे दे दिया है। आडवाणी ने इसे कांग्रेस की अतिवादियों व सांप्रदायिक तत्वों के सामने समर्पण करने का सबूत करार दे दिया। आडवाणी सहित पूरी पार्टी यह प्रचारित कर रही है कि कांग्रेस एवं यूपीए ने तीसरी बार ऐसा शर्मनाक एवं देश की एकता-अखंडता की दृष्टि से खतरनाक समर्पण किया है। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी नहीं दिए जाने को वह पहला समर्पण करार देती है तो रामसेतु न होने के शपथपत्र को दूसरा। इस प्रकार देखा जाए तो कांग्रेस को इस निर्णय से राजनीतिक हानि होने की संभावना ज्यादा है। उसका मुख्य जनाधार जम्मू में है और वहॉं हिन्दू इसे अपने विरुद्घ निर्णय मानते हैं और देश भर में भाजपा इसे आंदोलन का रूप दे चुकी है। कांग्रेस यदि जमीन आवंटन एवं यात्रियों की सुविधा के लिए अस्थायी निर्माण की अनुमति के निर्णय पर कायम रहती तो घाटी के अलगाववादी भले विरोध करते, उनका साहस नहीं बढ़ता, जम्मू, लद्दाख के अलावा देशभर में दूसरा माहौल बनता एवं भाजपा या विहिप को विरोध करने का अवसर नहीं मिलता।
यह प्रश्र्न्न बिल्कुल वाजिब है कि जब हज यात्रियों के लिए स्थायी निर्माण हो सकता है तो श्रीअमरनाथ के दर्शन करने वाले यात्रियों के लिए क्यों नहीं? गुलाम नबी आजाद या कांग्रेस के पास इस प्रश्र्न्न का कोई जवाब हो ही नहीं सकता। क्या कश्मीर सिर्फ वहॉं रहने वाले मुसलमानों का है? वहॉं के उदार मुसलमानों को जमीन आवंटन एवं यात्रियों की सुविधाओं के लिए बोर्ड के निर्माण कार्य पर आपत्ति नहीं हुई होगी। देश के दूसरे हिस्से के मुसलमानों के लिए भी यह मुद्दा नहीं हो सकता था। आखिर पूरे देश में इस्लामी मजहब स्थलों के लिए वहॉं की आवश्यकतानुसार समस्त सुविधाएं देने की कोशिश होती है एवं मजहबी मामले में राज्य का हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं होता। श्रीअमरनाथ यात्रा की सुख-सुविधा की जिम्मेवारी राज्य सरकार को अपने हाथों क्यों लेना चाहिए? सरकार कह रही है कि धार्मिक मामलों में वह कतई हस्तक्षेप नहीं करेगी, केवल यात्रियों की सुविधाओं का प्रबंध करेगी। यही काम श्राइन बोर्ड करता तो क्या समस्या आ जाती? क्या कश्मीर की सरकार ऐसी ही भूमिका वहॉं की मस्जिदों व मजारों के संदर्भ में निभा सकती है? कत्तई नहीं। तो फिर इसे भेदभाव नहीं कहा जाएगा तो और क्या? कल अगर कट्टरपंथी, अलगाववादी एवं सांप्रदायिक तत्व श्रीअमरनाथ यात्रा को ही रोकने की मांग करके ऐसी ही हिंसक उग्रता का प्रदर्शन करें तो क्या सरकार उनके सामने इसी प्रकार झुक जाएगी? हम यह नहीं भूलें कि अलगाववादियों का लक्ष्य ही कश्मीर को भारत से अलग करना है। इसके लिए वे वहॉं मजहबी कट्टरपंथ की भावना पैदा करते हैं। यद्यपि वहॉं का आम अवाम ऐसे अभियानों में मूक दर्शक रहता है और इनके भय से कोई विरोध नहीं करता। इस प्रकार के निणर्र्य के बाद तो कोई उनकी खिलाफत करने की हिम्मत और नहीं जुटा पाएगा। इन्हीं अलगाववादी व सांप्रदायिक तत्वों ने घाटी से हिन्दुओं को पलायन करने के लिए मजबूर किया। ये प्रदेश के लोगों को शेष भारत से संपर्क काट देने का मंसूबा रखते हैं। वास्तव में सरकार के निर्णय वापस लेने से इन तत्वों को प्रोत्साहन मिला है, उदारवादी तबका कमजोर हुआ है और आम तटस्थ नागरिक थोड़ा ज्यादा भयभीत हुआ है।
– अवधेश कुमार
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