अकारण कुछ भी नहीं होता। इस बात का पता मुझे कुछ दिन पहले तब चला, जब मच्छरों को मारते-मारते हलकान होकर मैं स्वास्थ्य कर्मियों के बीच जा पहुंचा। मेरे आश्र्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, मैंने देखा कि वे मच्छरों को छोड़कर मक्खियों को मारने में व्यस्त हैं। मैंने सोचा, ये लोग मक्खियॉं मारने के मुहावरे को सही सिद्ध करने के लिए ही इतना परिश्रम नहीं कर सकते। जरूर इसका कोई और कारण होगा। बहुत नरम आवाज में, कहना चाहिए, बहुत दबी जुबान से एक-दो से पूछा भी। मगर उन्होंने या तो सुना नहीं या फिर सुनकर अनसुनी कर दिया। अंततः मैंने झुंझलाकर बहुत तेज आवाज में खासी खुशी के साथ सबको सुनाकर पूछा, क्यों भाई? मच्छर हैं कि शहरियों को बेमौत मारे डाल रहे हैं और आप लोग हैं कि उनके संहार में लगने के बजाय बैठे-बैठे मक्खियॉं मार रहे हैं। इस तरह मच्छरों से दोस्ती निभा रहे हैं या शहरियों से दुश्मनी?
इस पर एक स्वास्थ्य कर्मी, जो शक्ल-सूरत से काफी दबंग दिखाई देता था और जरूरत से कुछ ज्यादा ही समझदार था, बुरी तरह चिढ़ गया और बोला, कौन हो तुम? और हमें मच्छरों का दोस्त भर कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? हम मच्छरों के दोस्त ही नहीं, उनके अन्नदाता हैं, त्राता हैं, भाग्य विधाता हैं। उन पर हमारे अनगिनत एहसान हैं। पूछ कर देखो, वे कहेंगे हम कृपा-सागर हैं, करुणानिधान हैं।
मेरी बोलती बंद हो गई, मगर स्वास्थ्य कर्मियों के नेता ने मुझे निष्प्रभ होने से बचा लिया। अत्यंत विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, श्रीमन! अपने साथी के कटु-वचनों के लिए मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं। आपको बता दूं, हम कोई नयी परंपरा नहीं डाल रहे हैं। आप जानते होंगे, मक्खियॉं मारने की हमारी अति समृद्ध राष्ट्रीय परंपरा है। नहीं जानते तो जाइए, सोमनाथ दा से पूछ लीजिए। या फिर उन सांसदों से दरयाफ्त कर लीजिए, जिनके बारे में दादा का कहना है कि वे लोकतंत्र के खात्मे के लिए जमकर खट रहे हैं, खूब ओवर टाइम कर रहे हैं। वे अपनी परम्परा का पालन कर रहे हैं और हम अपनी। कभी-कभी मक्खियां मारने के लिए ओवरटाइम भी कर लेते हैं। अब कृपापूर्वक आप भी जाइए और अपनी परम्परा का पालन कीजिए। सौभाग्य से आपको यह सहूलियत हासिल है कि आप चाहें तो मच्छरों के साथ सह-अस्तित्व की भावना से जीने की परम्परा का पालन करें या उन्हें मारते-मारते थकने और उनसे अपना खून चुसवाने की।
मैं टका-सा मुंह लेकर लौटने ही वाला था कि किस्मत का मारा, माफ कीजिएगा, कुत्ते का काटा एक और शहरी आ पहुंचा। उसकी त्रासदी यह थी कि कल जब वह एक मित्र की गैर-हाजिरी में उसके घर के गेट पर लिखा कुत्ते से सावधान पढ़कर उलटे पांव लौट रहा था, अपनी एक पड़ोसी हसीना की गोद में जन्म-जन्मांतर का सुख भोगते झबरीले पप्पी (उसे पिल्ला कहने की मुझमें हिम्मत नहीं) को दुलारने का लोभ संवरण नहीं कर सका। लव मी लव माई डॉग के सिद्धांत में अपनी अगाध श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए, वह अभी अघाया भी नहीं था कि ईर्ष्या से भरे एक आवारा कुत्ते ने उसके पैरों में काट खाया। अपनी असावधानी को कोसता हुआ वह सूई लगवाने सरकारी अस्पताल गया तो पता चला कि वहां पिछले छः महीनों से कुत्ता काटे की सूई उपलब्ध ही नहीं है। अब उसको शिकायत थी कि शहर में आवारा कुत्तों की भरमार हो गयी है। वे जब भी और जहां भी जा रहे हैं, शहरियों को काट रहे हैं और उनसे निपटने के लिए किसी भी स्तर पर कुछ नहीं किया जा रहा है।
लेकिन वह अपनी बात पूरी कर पाता, इससे पहले ही स्वास्थ्य कर्मियों के नेता को अचानक कुछ याद आया। उसने शहरी की शिकायत की अनसुनी करते हुए अपने एक मुंहबोले साथी से कहा, क्या बताऊँ यार, दिनभर मक्खियां मारने के चक्कर में साला कुछ याद ही नहीं रहता। साहब ने मुझसे कहा था कि आज शाम तक उन्हें रिपोर्ट चाहिए कि पिछले दिनों ईमानदारी के बन्ध्याकरण का जो अभियान चलाया गया था, उसमें कितने प्रतिशत की लक्ष्य प्राप्ति हुई है? मैं तो चला अपनी रिपोर्ट बनाने।
यह साहब भी बहुत चालाक है साला! उसका साथी बोला, मक्खियां मारने के लिए तो कभी-कभार हाथ-पैर हिलाना भी पड़ सकता है। ईमानदारी का बन्ध्याकरण तो हाथ पर हाथ धरे…! मगर खबरदार, तुम अपनी रिपोर्ट में अभियान के तहत शत-प्रतिशत लक्ष्य पूर्ति मत दिखाना। आगे भी ऐसे अभियानों की गुंजाइश बनाये रखना। अभियान ही बंद हो जाएँगे तो हमारे यान कैसे चलेंगे? बात खत्म करते-करते उसने अपनी मोटरसाइकिल की ओर इशारा किया। नेता चला गया तो हम दोनों शहरी एक-दूजे से लिपटकर रोने लगे और स्वास्थ्य कर्मी हमें चुप कराने लगे। शायद यह सब भी एक परम्परा का पालन ही था।
– कृष्ण प्रताप सिंह
You must be logged in to post a comment Login