वन किसी भी देश की अनमोल संपदा तथा पर्यावरण का एक प्रमुख अंग होते हैं। लेकिन आज इनका विनाश एक प्रमुख पर्यावरणीय समस्या बना हुआ है। यह समस्या पेड़ों की अनियंत्रित कटाई, अधिक चारागाह, बढ़ती जनसंख्या व बढ़ते शहरीकरण के चलते वनों के अधिक उपयोग से उत्पन्न हुई है। वनों से न सिर्फ अऩगिनत उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, वरन् इनसे जलवायु संतुलित रहती है, वन्य जीवन संरक्षित रहते हैं एवं मृदा अपरदन नहीं होता। वनों की कटाई से होने वाले दुष्परिणामों को अभी तक हम पढ़ा करते थे, परंतु आज हम उन्हें प्रत्यक्ष रूप से देख रहे हैं। सावन के महीने में सावन की झड़ी देखने को लोग तरस रहे हैं। ऐसा नहीं है कि बादल नहीं आते, परंतु पर्याप्त नमी और दबाव की कमी में वे बरसने से लाचार हैं। बारिश का असंतुलन स्पष्ट दिखाई दे रहा है, कहीं दिन में एकाध बार पानी बरसता है, तो कहीं इतना भी नहीं। इस असंतुलन के पीछे हमारा ही हाथ है। वन जलवायु के नियंत्रक होते हैं अर्थात आर्द्रता में वृद्घि करते हैं, वर्षा में सहायक होते हैं एवं तापमान को नियंत्रित करते हैं। उनके विनाश के साथ ही वायुमंडल में नमी की कमी आ जाती है, परिणामस्वरूप वर्षा की मात्रा भी कम होती जाती है, तापमान में वृद्घि होती है, शुष्कता का विस्तार होता है वह मरूस्थलीकरण शुरू हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि यह विनाश सिर्फ वर्षा की कमी के लिए ़िजम्मेदार है। इसके दुष्परिणाम बाढ़ के रूप में भी सामने आते हैं। वनोन्मूलन से जल ढलानों पर तीव्र गति से प्रवाहित होकर मैदानी भागों में बाढ़ के प्रकोप का कारण बनता है। बिहार की नदियों में बाढ़ का ज्यादा प्रकोप इसका उदाहरण है। वन वर्षाजल को भूमि में संग्रहित भी करते हैं। भूमि से होने वाले वाष्पीकरण को भी रोकते हैं, इस तरह पानी मृदा में लंबे समय तक संग्रहित रह पाता है। वनों के विनाश ने मृदा अपरदन व भू-स्खलन को भी बढ़ावा दिया है। एक अनुमान के अनुसार भारत प्रतिवर्ष 6000 मिलियन टन ऊपरी उपजाऊ मृदा को अपरदन द्वारा खो रहा है। अकेले भूक्षरण के कारण प्रतिवर्ष 2800 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। यदि वनों का विनाश इसी ते़जी से होता रहा तो हमारे देश में जल्दी ही उत्पादक भूमि की तुलना में व्यर्थ भूमि की ही अधिकता होगी।
भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है तथा सातवां सबसे बड़ा देश है जहॉं 1 बिलियन से अधिक जनसंख्या है, लेकिन यहॉं दुनिया की मात्र 1.8 प्रतिशत वनाच्छादित भूमि है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 329 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में से भारत में केवल 75 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वन हैं अर्थात देश के कुल क्षेत्रफल के 23 प्रतिशत भाग पर वन हैं लेकिन सत्यता यह है कि वास्तव में इस क्षेत्र में सभी स्थानों पर वन नहीं हैं। वायु फोटो एवं उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर निश्र्चित हुआ है कि देश का 12 प्रतिशत भाग ही वनों से ढंका है। वैज्ञानिकों के अनुसार परिस्थितिक तंत्र के संतुलन और पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दृष्टि से देश के 33 प्रतिशत भू-भाग पर वन होने चाहिए। भारत 3.4 मिलियन हेक्टेयर पर लगे वनों को 1951-72 के बीच बॉंधों, सड़कों के निर्माण, औद्योगिक इकाइयों के कारण खो चुका है। भारत में प्रतिवर्ष 170 मिलियन टन जलाऊ लकड़ी प्रयोग की जाती है, प्रतिवर्ष एक प्रतिशत भूमि पेड़ों से विहीन होती जा रही है। यदि वनों के प्रति यही दृष्टिकोण बना रहा तो आगे चलकर कितने क्षेत्र पर वन रह जाएँगे, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं और यही चिंता का विषय है। अनुमानतः अगले 20 वर्षों में पूरी भूमि ही वन विहीन हो जाएगी।
हालॉंकि ऐसा नहीं है कि सरकार वनों की रक्षा हेतु तत्पर नहीं है। हमारे देश में वन संरक्षण अधिनियम 1980 में पारित हुआ तथा इसमें समय-समय पर आवश्यकतानुसार संशोधन किए गए हैं, इसमें वनों की रक्षा हेतु अनेक प्रावधान हैं। लेकिन वनों की रक्षा हेतु जो भी कानून बने हैं, इनका सख्ती से पालन होना ़जरूरी है। वनों की रक्षा के लिए वन विभाग बनाया गया है, लेकिन रक्षक ही भक्षक हो गए हैं जो लोगों से रुपये लेकर आरक्षित वनों में लकड़ी कटवा कर चोरों को प्रोत्साहन देते हैं। इन्हें सख्त सजा देनी होगी। वनों में शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए तथा सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहन देना चाहिए। वनों में बढ़ते रोगों के उपचार का तुरंत उपाय होना चाहिए। वनों की आग से रक्षा के लिए प्रबंध होना चाहिए। वन क्षेत्र में अग्निशमन केन्द्र स्थापित करना चाहिए। लेकिन सबसे ़जरूरी है कि जनसाधारण अपने उत्तरदायित्व का राष्टहित में निर्वाह करें। लकड़ी का उपयोग कम से कम करें और जो अधिक उपयोग करते हों उन्हें निरुत्साहित करें। जो वृक्ष लगे हों, चाहे वह घर में हों, स्कूल में, सड़क किनारे, गॉंव में, शहर में, उनकी रक्षा करें। नये वृक्ष लगाएँ। यह आवश्यक है कि लोग अब यह अच्छे से समझ लें कि वनों की रक्षा ही जीवन की रक्षा है।
– स्वाति शर्मा
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