एक पूर्व प्रधानमंत्री का स्पीच से पहले असावधानीवश पल्लू सिर से सरक गया। सलाहकार घबरा कर बोला, “मैडम, जल्दी से सिर को ढांप लीजिए, वरना आपको परकटी जानकर तमाम वोटर बिदक जाएँगे।’ इस घटना को गुजरे कोई तीस बरस हो चुके हैं। हमारी नेत्रियॉं आज भी भाषण प्रतियोगिता के दौरान अपना पल्लू संभालती फिरती हैं। पल्लू लटके… गोरी का पल्लू लटके। राजनेता तो और भी डामेबाज हैं। रंग-बिरंगे पग्गड़ बांध कर हाथ में गदा उठाए निहायत नमूने लग रहे होते हैं। पग्गड़ और मुकुट बांधकर, विरोधी की तरफ बहते मतदाताओं के सैलाब को बांधने की कोशिश करते हैं।
मैं इस उम्मीद से निहाल हूँ कि चुनावी महोत्सव में बॉलीवुड की कोई अभिनेत्री बिकनी में मेरे द्वार खड़ी होगी। हाथ जोड़कर, विचारों से कंगाल या बेहाल दल के हक में मतदान की अपील करेगी। िाकेट में चीअर-लीडर का लोगों ने काफी बुरा माना था। हो सकता है, चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए चीअर-लीडरों का सहारा लेना पड़े। मत की उम्मीद में उम्मीदवार को क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते? महामूर्ख को भी कालिदास कहना पड़ता है।
किश्ती टोपी और सफेद झक कुर्ते-पायजामे का ़जमाना विदा हुआ। अब नेता लोग सूट-बूट से लैस ऩजर आते हैं। बताते हैं, एक प्रसिद्घ संत के प्रवचनों से एक विदेशी महिला काफी प्रभावित थी। अचानक एक दिन उसकी मुलाकात उनसे लंदन की एक दुकान पर हो गयी। वह लाल-पीली टाइयों में से अपनी पसंदीदा टाई चुनने में वक्त लगा रहे थे। चुनाव रहित सजगता पर प्रवचन देने वाले इस संत पर वह महिला काफी लाल-पीली हुई। जिस ते़जी से वह अपने पति बदलती थी, उतनी ही ते़जी से उसने गुरु भी बदल डाला। कई धर्मगुरु अपनी दाढ़ी-मूंछ रंगते हैं। लोग हैं कि रंगे हुए को असली महात्मा नहीं, बल्कि रंगा-सियार समझते हैं। पुलिस वालों की निगाहों में लम्बे बाल वाला हर बाइक सवार अपराधिक चरित्र का होता है तथा दाढ़ी वाला आतंकी। आजकल मीडिया में भी यही निम्न-मध्यवर्गीय सोच बलवती हुई है। जुल्मियों की सोच उनकी काबिलियत पर नहीं, परिधान पर अटक गयी। महाशय, दिन में तीन-तीन सूट बदल रहे हैं। अम्मा का वार्डरोब भूल गए क्या! सैकड़ों सैंडिल और ह़जारों साड़ियों से पटा हुआ था। लगता है मीडिया उनसे यह आस लगाए था कि वह काली कार से काली पैंट-शर्ट में उतरेंेगे और उनसे मु़खातिब होंगे। हमारे मुल्क में यूँ भी ़गमी के वक्त काले परिधान पहनने का फैशन नहीं है। यह वस्त्र पश्र्चिम परस्तों और केवल यमराज को ही जॅंचते हैं। मीडिया उनके पहनावे के पीछे पड़ गया और स्वभावानुसार कई दिनों तक पड़ा रहा।
वह सफाई में कहते रहे कि मैं सफाई पसंद हूँ। दल-बदलू नहीं हूँ, वस्त्र बदलू हूँ। दिन में तीन बार बदलूँ या तीस बार, तुम्हें क्या? सूफी नहीं हूँ कि एक फटा-पुराना ऊनी वस्त्र ओढ़े ज़िन्दगी काट दूँ। न गांधी बाबा हूँ कि लंगोटी के सिवाय बाकी सब गरीबों में बॉंट दूँ। मैंने केवल अपनी डेस बदली है, अपना वक्तव्य नहीं। आज भी वही दोहरा रहा हूँ जो बरसों से दोहराता रहा हूँ।
– अशोक खन्ना
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