वर्ष 2008 में जो राजनीतिक रूझान देखने को मिले उनसे यह अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है कि 2009 जिसमें नई लोकसभा का गठन होगा, में सियासी संभावनाएं क्या रहेंगी। वर्ष 2008 कई मायनों में भविष्य की राजनीति के लिए मार्ग दिखाने वाला रहा। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2009 में राजनीतिक धारा की दिशा ऐसी होगी, जैसी पहले कभी न थी।
वर्ष 2008 में सबसे चौंकाने वाली बात तो यह रही कि खद्दरधारियों के खिलाफ जनता ने एकजुट होकर ऐसा गुस्सा दिखलाया, जैसा पहले कभी नहीं दिखाया था। यह गुस्सा किसी एक राजनीतिक पार्टी के नेताओं के खिलाफ नहीं था बल्कि हर उस व्यक्ति के खिलाफ था जो सिर्फ लफ्फाजी में यकीन करके जनता को गुमराह करने का प्रयास करता है या उनकी भावनाओं से खेलने की कोशिश। इसलिए जहां जनता वामपंथी वी.अच्युतानंदन के खिलाफ भड़की वहीं उसने कांग्रेसी विलासराव देशमुख, भाजपाई नरेन्द्र मोदी व मुख्तार अब्बास नकवी और समाजवादी अमर सिंह को भी गैर-जिम्मेदाराना बयान और भावनाओं को शोषित करके अपनी राजनीति चमकाने के कारण नहीं बख्शा। देश की जनता की नब्ज को समझते हुए राजनीतिज्ञों को भी लगा कि आपसी मतभेद भूल जायें और एकजुट हो जायें। शायद यही वजह रही कि आतंकवाद के विरूद्घ फेडरल जांच एजेंसी बनाने की मंजूरी सभी पार्टियों ने बिना रोड़ा अटकाये एक स्वर में दे दी।
हालांकि इससे पहले परमाणु करार और विश्र्वासमत पर मतदान को लेकर नेता एक-दूसरे के चरित्र को बेनकाब करने तक के लिए भी तैयार थे। गौरतलब है कि जब वामपंथियों ने डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था, तो डॉ. सिंह ने लोकसभा में विश्र्वासमत लाने का प्रस्ताव रखा और कुछ भाजपा सांसदों ने लोकसभा में नोटों की गड्डियां लहराते हुए आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ दल व उसके समर्थकों ने उन्हें वोट के बदले नोट देने का प्रयास किया। यह भारतीय संसदीय गरिमा पर बदनुमा दाग था।
बहरहाल, जैसे-जैसे नेताओं के खिलाफ गुस्सा बढ़ता रहा, राजनीतिक पार्टियों को यह एहसास होने लगा कि अब सिर्फ नारों और भावनायें भड़काकर वोट हासिल नहीं किये जा सकते। यह सब कुछ नवम्बर में 6 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला। भावनाओं की बजाय मतदाताओं ने उस पार्टी के पक्ष में मतदान किया जिससे उसे विकास की उम्मीद थी। मसलन, दिल्ली में सीलिंग, महंगाई आदि के चलते उम्मीद ये थी कि सत्तारूढ़ कांग्रेस की सरकार को हार का मुंह देखना पड़ेगा। लेकिन जनता अच्छी तरह से समझ गई कि सीलिंग कोर्ट के आदेश पर हो रही थी और महंगाई अंतर्राष्टीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ने के कारण। साथ ही उसे यह भी लगा कि शीला दीक्षित के राज्य में जो विकास कार्य हो रहे हैं वह उसी सूरत में जारी रह सकते हैं जब सरकार को बदला न जाये। मतदान के दौरान शायद यही सोच मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी रही जहां एंटी इनकम्बंसी के बावजूद सत्तारूढ़ भाजपा को फिर से सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हुआ।
विधानसभा चुनावों में जनता ने एक ही पार्टी को सत्ता की जिम्मेदारी सौंपी। इससे कुछ लोगों ने यह अंदाजा लगाया कि साझा सरकारों का दौर खत्म हो रहा है। उनका तर्क विशेष रूप से मिजोरम के चुनाव पर आधारित था, जहां काफी लंबे समय बाद किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। लेकिन सिर्फ इस आधार पर कोई भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर थी। साझा सरकार की संभावनाएं उस समय पेश आती हैं जब कई सारी पार्टियां बराबर की ताकत के साथ मैदान में हों। इन विधानसभा चुनावों से यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि बसपा, सपा, तेलुगुदेशम, द्रविड़ पार्टियां, वामपंथी, बिहार और झारखंड की क्षेत्रीय पार्टियां अपना दमखम खो चुकी हैं और नयी लोकसभा में उनकी कोई भूमिका ही नहीं रहेगी। गौरतलब है कि फरवरी, 2009 में नयी लोकसभा का गठन करने के लिए चुनावों की तारीख घोषित की जा सकती है। संभावना है कि चुनाव चार चरण में पूर्ण कराये जायेंगे।
बहरहाल, वर्ष 2008 में जो विधानसभा चुनाव हुए, उनसे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि 2009 के आम चुनाव में मतदाता भावनाओं में नहीं बहेंगे और न ही उनका सांप्रदायिक या किसी अन्य मुद्दे पर ध्रुवीकरण होगा। वे हर मुद्दे पर अंतर्राष्टीय परिदृश्य को भी ध्यान में रखेंगे और सोच-समझकर उस पार्टी के पक्ष में मतदान करेंगे जिससे वह विकास की उम्मीद रखते हैं। अगर जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव से कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है तो वह यह है कि लोकतांत्रिक प्रिाया में लोगों का विश्र्वास बढ़ रहा है और इसलिए आम चुनाव में मत-प्रयोग का प्रतिशत बढ़ने की अधिक संभावना है। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर के कुछ क्षेत्रों में 65 प्रतिशत का अभूतपूर्व मतदान हुआ।
हालांकि कई राज्यों की विधानसभा में करोड़पति पहुंचने में कामयाब रहे लेकिन करोड़पति चुनावों में हारे भी बहुत। इसलिए कहा जा सकता है कि सिर्फ पैसा ही चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं है। एक अन्य संभावना यह दिखाई देती है कि उम्रदराज नेताओं की तुलना में जनता को युवा व दूरअंदेश नेता अधिक पसंद आ रहे हैं। ध्यान रहे कि दिल्ली में भाजपा ने अपने बुजुर्ग नेता विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में पेश किया था लेकिन जनता ने उन्हें पसंद नहीं किया और भाजपा ने स्वयं स्वीकार किया कि अगर मल्होत्रा से उम्र में छोटे अरूण जेटली को मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में पेश किया जाता तो नतीजा कुछ और हो सकता था। इसलिए कहा जा सकता है कि वर्ष 2009 में सभी पार्टियां युवाओं को अधिक अवसर प्रदान करेंगी।
लेकिन ये युवा कौन होंगे? जाहिर है, बुजुर्ग नेताओं की औलाद ही होंगे। ध्यान रहे कि विधानसभा चुनावों में पैसे लेकर टिकट वितरण और भाई-भतीजों को टिकट देने के आरोप सभी प्रमुख दलों पर लगे लेकिन यह चुनावी मुद्दा न बन सके क्योंकि चुनावी हमाम में सभी पार्टियां नंगी थीं। इसलिए युवाओं के नाम पर भी प्राथमिकता बेटों और भतीजों को ही दी जाने की संभावना है।
किसी ठोस मुद्दे के अभाव में यही उम्मीद है कि 2009 में भी त्रिशंकु लोकसभा आयेगी। सवाल यह है कि अगर फिर साझा सरकार बनने की स्थिति आती है तो वामपंथी किस तरफ जायेंगे- कांग्रेस की तरफ या भाजपा की तरफ? या तीसरा मोर्चा, जिसका प्रयास मायावती के कंधों पर बंदूक रखकर वामपंथी कर रहे हैं, वह देश की बागडोर संभालेगा? फिलहाल इसका जवाब देना सिर्फ अंदाजा लगाना ही होगा और निःसंदेह जो आपका अंदाजा है वही हमारा भी है।
– शाहिद ए. चौधरी
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