गाहे-बगाहे यह आवाज उठती रहती है कि आवारा कुत्तों को सुपुर्द-ए-खाक कर देना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे मुर्गियों को बर्ड-फ्लू के डर से किया गया। कारण गिनाए जाते हैं कि कुत्ते रैबीज फैलाते हैं, नींद में खलल डालते हैं इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं। दलीलें तो यहॉं तक दी जाती हैं कि गली-मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्तों से डर लगता है अतः उन्हें स़जा-ए-मौत दी जानी चाहिए। पर ऐसी स़जा की सिफारिश करने वालों ने कभी चश्मा उतारकर एक-एक निवाले को तरसते कुत्तों को गौर से देखा है? भुखमरी के शिकार बेचारे किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं। पास आओ तो भाग खड़े होते हैं। वो खुद इतने डरे होते हैं कि कभी-कभी तो अपने अक्स से भी घबरा जाते हैं, फिर भला ये निरीह किसी को क्या डराएंगे। जो खुद डरा हुआ हो वो किसी को डरा भी कैसे सकता है।
कुत्ते सदियों से ही वफादारी की परंपरा को निभाते आए हैं। यह बात अलग है कि मनुष्य जानकर भी अन्जान बना रहता है। बेचारे लात खाते हैं, गाली खाते हैं मगर सोते उसी चौखठ पर हैं, जहॉं उन्हें कभी आसरा मिला था। मनुष्य भले ही विलासिता के समुंदर में मानवता की गठरी बहाकर ाूर और निर्दयी बन बैठा हो, मगर ये बेजुबान आज भी प्यार का अथाह सागर अपने छोटे से दिल में समाए बैठे हैं, प्यार के बदले प्यार कैसे दिया जाता है, यह इनसे बेहतर भला कौन समझ सकता है।
मनुष्य हमेशा से ही अपनी ़जरूरतों के मुताबिक रिश्तों की उधेड़बुन करता रहा है। जिन अंगुलियों के सहारे वह चलना सीखता है, वक्त निकल जाने के बाद उन्हें झटकने में एक पल की भी देर नहीं करता। जिन कंधों पर बैठ कर वह दुनिया देखता है उन कंधों को कंधा देना भी अपना धर्म नहीं समझता। मनुष्य सिर्फ ढोंग करता है। बचपन में सच्चा बनने का और जवानी में अच्छा बनने का, लेकिन बेजुबान… वे बेचारे न तो ढोंग का मतलब जानते हैं और न ही छल-कपट उन्हें आता है। उन्हें आता है तो बस प्यार करना। लाख मारो, लाख सताओ फिर भी एक पुचकार पर उसी स्नेहभाव और आदर के साथ आपका सम्मान करेंगे, जैसा हमेशा से करते रहे हैं। रंग बदलने की प्रवृत्ति न तो उनमें कभी थी और न ही कभी होगी। यह काम तो मनुष्य का है। कुत्तों को इंसान का दोस्त समझा जाता है, मगर चकाचौंध और ऐशोआराम से भरी मनुष्य की जिंदगी में इस बेजुबान दोस्त के लिए कोई जगह नहीं। गली-मोहल्लों में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले आवारा कुत्ते भी अब उसकी आँखों में खटकने लगे हैं।
अभी कुछ वक्त पहले बेंगलुरू और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में जिस निर्दयता से आवारा कुत्तों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसा काम तो सिर्फ इंसान ही कर सकता है। गले में रस्सी बांध कर बड़ी निर्ममता के साथ उन्हें घसीटकर ऐसे गाड़ी में फेंका गया, जैसे वे कोई कूड़े की गठरी हों। बेचारे चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी जिंदगी की भीख मांगते रहे, मगर किसी को दया नहीं आई। इन बेजुबानों का कसूर सिर्फ इतना था कि वो शहर के सौंदर्यीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे।
मनुष्य शक्तिशाली है, उसे किसी भी बेजुबान को मारने का हक है, पर उसे यह हक किसने दिया? शायद भगवान ने तो नहीं। सृष्टि की रचना के वक्त ईश्र्वर ने अन्न बांटने से पूर्व सबसे पहले कुत्तों को बुलाकर कहा, पृथ्वी का सारा अन्न मैं तुम्हें देता हूँ, पर कुत्तों ने निवेदन किया कि इतने अन्न का हम क्या करेंगे? अन्न आप मनुष्य को दे दीजिए। वह खाने के बाद जो कुछ भी बचाएगा हम उससे गुजारा कर लेंगे।
बदकिस्मती से मनुष्य खाता तो खूब है, मगर कुत्तों के लिए बचाता बिलकुल नहीं। खाने की हर दुकान के सामने बेचारे कुत्ते टकटकी लगाए इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि शायद मनुष्य को उनके हाल पर दया आ जाए, पर अमूमन ऐसा होता नहीं। टिन के पिचके हुए डिब्बे की माफिक पतला-सा पेट, आँखों में डर और खामोशी लिए बेचारे एक-एक दाने के लिए यहॉं-वहॉं भटकते रहते हैं। कुछ रूखा-सूखा मिल गया तो ठीक वरना भूखे ही सो जाते हैं, पर वफादारी और प्यार के जज्बे पर कभी भूख को हावी नहीं होने देते। ऐसे निरीह को बेतुकी दलीलों और शहर के सौंदर्यीकरण की खातिर मौत की नींद खुला देना क्या हम इंसानों को शोभा देता है?
– नीरज नैयर
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