हाल ही में दक्षिणी बिहार के पूर्णिया शहर की चौदह वर्षीया स्नेहा के साथ जातीय पंचायत ने जो किया, वह दुनिया की उभरती तीसरी आर्थिक महाशक्ति वाले इस देश में लड़कियों एवं औरतों की असली सामाजिक हैसियत सामने रखता है।
मामला यह था कि स्नेहा का चाचा प्रवीण अपने मुहल्ले की एक लड़की को लेकर फरार हो गया। उस लड़की के पिता ने पुलिस चौकी में स्नेहा के पिता व अन्य लोगों के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दी। जातीय पंचायत भी सिाय हो गई और फैसला सुनाया कि स्नेहा के पिता ने अपने भाई को पड़ोस की लड़की के साथ भागने में मदद की है, इसलिए लड़की के बदले लड़की ही नहीं बल्कि नाबालिग के बदले नाबालिग लड़की लेकर सार्वजनिक अपमान का बदला लिया जाएगा। लिहाजा चौहद वर्षीया स्नेहा का निकाह मुस्लिम प्रथा के अऩुसार उसके पिता के उम्र वाले पुरुष हामिद के साथ करवा दिया गया। पुलिस भी इस बाल विवाह तथा पंचायत के बर्बर फैसले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की बजाए तमाशबीन बनी रही।
हमारे भारत में मध्ययुगीन व्यवस्थाएं तथा बर्बरताएं आज भी सिाय दिखाई देती हैं और विशेष तौर पर महिलाओं के प्रति सामंती नजरिया अक्सर नजर आ जाता है। कुछ महीने पहले भागलपुर के एक गांव में एक प्रेमी जोड़ा फरार हो गया तो लड़की वालों के परिवार वालों ने बेटी के भागने की रंजिश लड़के के परिवार की बहू के अपहरण से निकाली।
समुदाय, जाति और परिवार के सामाजिक अपमान का बदला लड़कियों से ही चुकाने की निंदनीय सामाजिक परम्परा इक्कीसवीं सदी में भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। आ़जादी के साठ वर्ष बाद भी इस देश के ऊपर मध्ययुगीन बर्बरता की झलक नहीं हटी है। मोबाइल, डांस बार, स्विमिंग पूल, कस्बों में बने मॉल, ऊंची-ऊंची इमारतों से हम स्वयं को विकसित कहते हैं किन्तु मन से अभी भी अविकसित ही हैं। समाज की औरतों के प्रति रूढ़िवादी सोच उसके भीतर के खोखलेपन को ही दर्शाती है।
जातीय पंचायतों के ऐसे औरत विरोधी बर्बर फरमानों को स्थानीय या एक खास समुदाय, वर्ग की समस्या मानने का नजरिया खतरनाक ही होगा। सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि भारत के अनेक राज्यों-उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि में भी सामाजिक कट्टरता की जहर फैलाने वाली जातीय पंचायतों का दबदबा, साक्षरता का दायरा बढ़ने के बाद भी बढ़ा है।
वास्तविकता ये है कि भारत में लगभग दो दशक के अन्दर ऑनर किलिंग की घटनाएं बेतहाशा बढ़ी हैं। कुछ प्रगतिशील एवं मानवाधिकारवादी संगठन ऐसे बर्बर फैसलों की भर्त्सना करते हैं, अखबारों में खबरें छपती हैं, टी.वी. चैनलों के माध्यम से लोगों में चेतना लाने का प्रयास किया जाता है किन्तु कुछ दिनों के बाद सब कुछ शांत, पूर्ववत हो जाता है। होता कुछ भी नहीं है। राजनैतिक दलों के नेता भी ऐसे कबीलाई पंचायतों की वोट की ताकत को समझते हैं, इसी कारण वे भी इस मुद्दे पर चुप रहना ही बेहतर समझते हैं।
गौरतलब है कि अकेले भारत में ही नहीं बल्कि बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी जातीय पंचायतें औरतों पर ही जुल्म ढाती हैं। इन तीनों देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं में अंतर ़जरूर है किन्तु औरतों के प्रति सामाजिक स्थितियां लगभग एक जैसी ही हैं। पाकिस्तान के कबीलाई इलाकों में आज भी औरतों का अपना कोई स्वतंत्र वजूद नहीं है। बहनों की जायदाद पर कब्जा करने, दुश्मनी निकालने व अपनी ही बहू-बेटियों से छुटकारा पाने के लिए ऑनर किलिंग सरीखी परम्परा की आ़ड़ में पुरुष अपने को ताकतवर बनाते रहे हैं।
पाकिस्तान में यूनियन कौंसिल बरूथा नामक एक स्थान है जिसमें चार कब्रिस्तान बने हुए हैं। इन कब्रिस्तानों को औरतों का कत्लगाह भी कहा जाता है क्योंकि इनमें आम लोग न जाकर सिर्फ वही पहुँचते हैं जो औरतों का कत्ल करते हैं। कबीलाई सजायाफ्ता औरतों को यहॉं लाकर कत्ल कर दिया जाता है और उन्हें यहीं दफना दिया जाता है। पाकिस्तान के कबीलाई इलाकों में आदिम कानूनों ने औरतों का जीना दूभर कर दिया है।
महिला सशक्तिकरण पर भारत में काफी बोला जाता है किन्तु भारत के ही अनेक स्थानों पर महिलाओं के विरुद्घ तमाम अहम फैसले जातीय पंचायतों में बर्बरतापूर्वक सुनाये जाते हैं और पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है। थाने के अन्दर महिला के साथ पुलिस वाले बलात्कार करते हैं और महिला को न्याय पाने के लिए अपने जीवन का अन्त न्यायाधीश के समक्ष कर देना पड़ता है। एक नाबालिग बच्ची आरुषि पर पुलिस मनगढ़न्त कहानी बना कर मृत्यु के बाद भी उसे कलंकित करती है। क्या यही महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय है?
– पूनम दिनकर
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