करार तो होगा ही

फिलहाल यह भले न लगता हो कि करार और सरकार का भविष्य अलग-अलग है, लेकिन इसके अलग-अलग होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पिछले दिनों माकपा के महासचिव प्रकाश करात का वक्तव्य आया था कि वह हर मूल्य पर इस करार को विफल कर देंगे और उनकी पार्टी तथा अन्य वामपंथी दल इसकी संभावना को अंतिम रूप से समाप्त कर देंगे। उनकी इस तरह की प्रतिबद्घता कितनी कमजोर है, संभवतः इस वास्तविकता से वे अनजान हैं। वामपंथी दलों ने सरकार से समर्थन वापस ही इसलिए लिया है कि करार न हो सके। और वे सरकार को 22 जुलाई के विश्र्वास-मत के दौरान गिराना भी इसीलिए चाहते हैं कि सरकार के करार की जानिब बढ़े हुए कदमों में जंजीर डाली जा सके। इसके लिए वे अपने चिरशत्रु दक्षिण पंथी भाजपा से भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समन्वय स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। हो सकता है कि राजनीतिक चतुराई का प्रदर्शन करते हुए भाजपा वामपंथियों का सहयोग सरकार गिराने के लिए ले ले। इसमें उसका फायदा भी है। क्योंकि वह अकेली पार्टी है जो गर्म तवे पर रोटी सेंकने को आतुर दिखाई दे रही है। सरकार गिरने-गिराने की तोहमत तो हर हाल वामपंथियों के सिर ही जानी है। भाजपा तो सिर्फ अपना विपक्ष धर्म निभाएगी। उसका गणित वर्तमान में उसे यही समझा रहा है कि दिल्ली अब उससे बहुत दूर नहीं रह गई है।

सरकार को अपने फनफनाते ाोध का शिकार बनाने वाले और करार को सदा-सदा के लिए अमेरिका के ़खाते में वापस डाल देने पर आमादा वामपंथी मित्रों को वास्तविकता का पता नहीं है। यह निश्र्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि आगामी 22 तारीख की वोटिंग में सरकार बचेगी या जाएगी, लेकिन यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि सरकार के गिर जाने के बाद भी करार बचा रह जाएगा। अगर विश्र्वास-मत की अग्नि परीक्षा से सरकार अपने को खरा-खरा बचा लेती है तो करार की तरफ बढ़ चुके उसके कदमों को वामपंथी किसी हालत में नहीं रोक सकते। लेकिन अगर वह गिर भी जाती है तो चुनाव के बाद या तो वह ़खुद लौटेगी या भाजपा की अगुआई वाला राजग गद्दीनशीन होगा। वामपंथी यह भूल रहे हैं कि जिस तथाकथित अमेरिका परस्ती का आरोप वे संप्रग और कांग्रेस तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर लगा रहे हैं, वह संप्रग के चले जाने के बाद राजग पूरा करेगा। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने अनेकों बार यह बात दुहराई है कि वे अमेरिका विरोधी नहीं हैं और सामरिक समझौता उसके साथ करने के पक्षधर भी हैं। उन्होंने बार-बार कहा है कि राजग अगर सत्ता में आता है तो न्यूक डील को नये सिरे से अंजाम दिया जाएगा।

वामपंथी इतने भोले तो नहीं हैं कि वे इस हकीकत से परिचित न हों कि असैन्य परमाणु समझौता कांग्रेस या संप्रग का नहीं है। इस एजेंडे को उसने भाजपा से हाईजैक किया है। राजग शासनकाल में यह समझौता करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया था। यह भी निर्विवाद है कि वह अगली सरकार संप्रग या राजग में से ही कोई एक होगी। वह सरकार वामपंथियों की होगी अथवा उसके द्वारा समर्थित कोई तीसरे मोर्चे की सरकार होगी, यह कोई भी राजनीतिक विश्र्लेषक मानने को तैयार नहीं होगा।

किसी हद तक यह माना जा सकता है कि संभावित विपरीत परिस्थितियों के चलते यह करार मनमोहन सिंह और बुश न कर पायें। लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि इसके होने की संभावना सिर्फ इन्हीं दोनों तक सीमित है। अगर ये दोनों नहीं कर सकेंगे तो हो सकता है कि इसका श्रेय आडवाणी और ओबामा के हिस्से चला जाय। राष्टपति पद के सबसे सशक्त डेमोोटिक उम्मीदवार बराक ओबामा का अभी हाल ही में बयान आया है कि अगर वर्तमान अमेरिकी सरकार किन्हीं कारणों से इस करार को मुकम्मल न कर सकी तो आगे आने वाली सरकार इसे पूरा करेगी। ऐसे हालात में वामपंथी अगर यह सोचते हों कि वे करार को नहीं होने देंगे और इसे अपनी पूरी ताकत लगाकर रोकेंगे तो इसे उनकी खाम़खयाली ही समझा जाएगा।

उन्होंने अपनी पूरी ताकत करार को निरस्त करने के लिए झोंक भी दी है। मुलायम सिंह यादव जो कभी वामपंथी राजनीति के सबसे विश्र्वस्त मोहरा समझे जाते थे, अब वामपंथियों की ऩजर में खलनायक बन गये हैं। अब उन्हें मायावती की माया ने विमोहित कर लिया है। सिर्फ इसलिए कि मायावती ने वाम दलों के सुर में सुर मिलाते हुए एक जुमला उछाल दिया कि करार राष्ट विरोधी है। और राष्ट विरोधी भी इसलिए है कि वह मुसलमान विरोधी है। मुसलमान विरोधी होने का जुमला भी वामपंथियों का ही ईजाद किया हुआ है। इसका आविष्कार भी उन्होंने उस समय किया था जब लगने लगा था कि मुलायम की सपा करार के पक्ष में खड़ी होगी। तब मुलायम को कांग्रेस की कतार में जाने से रोकने के लिए उनकी ओर से यह रामबाण अस्त्र आजमाया गया था कि सोच लो, जो मुसलमान तुम्हें अब तक समर्थन देते आये हैं वे इस करार के समर्थन के बाद बिदक जायेंगे। इस तरह का अबौद्घिक तर्क वामपंथियों के अलावा और कोई दे भी नहीं सकता है। अपने को इंटेलेक्चुअल कहने वाले वामपंथियों से यह तो पूछा ही जा सकता है कि बंधु, समझौता 123 में वह कौन-सा प्रावधान है जो मुस्लिम हितों के खिलाफ जाता है। अब वे मायावती के आवास पर हाजिरी दे रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि मुलायम और कांग्रेस से खुन्नस के चलते मायावती इस डील की खिलाफ़त कर रही हैं। अब अपना विश्र्वसनीय सहयोगी बनाकर वामपंथी उन्हें तीसरे मोर्चे में भी शामिल करना चाहते हैं। वे शायद भूल गये हैं कि वे मायावती को कई-कई बार भारतीय राजनीति की सबसे अविश्र्वसनीय शख्सियत करार दे चुके हैं।

करार का विरोध करते हुए तो वे हजार बार अपनी राजनीतिक प्रतिबद्घता की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन उनकी इस सैद्घांतिक प्रतिबद्घता का अवसरवादी चेहरा अपनी कुरूपता छिपा नहीं पा रहा है। उन्होंने अपनी इसी सिद्घांत निष्ठा के चलते अल्पमत संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दिया था। उस समय इस समर्थन के औचित्य को सिद्घ करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा था कि वे सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने के लिए यह समर्थन दे रहे हैं। सांप्रदायिक शक्तियों से उनका तात्पर्य भाजपा से ही था। अब जब उन्होंने अपना समर्थन न्यूक डील के मुद्दे पर वापस ले लिया है, तब वे सरकार गिराने के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भाजपा से भी समन्वय स्थापित कर रहे हैं। उनका समन्वय आज की परिस्थिति में किस कोण पर खड़ा है, वह प. बंगाल वाममोर्चा के संयोजक और पोलित ब्यूरो के सदस्य विमान बोस के इस बयान से स्पष्ट होता है। उनका कहना है कि अगर भाजपा सांप्रदायिक मुद्दे छोड़ दे तो वामदल भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने पर विचार कर सकते हैं। फिलहाल संसद में सरकार के विश्र्वास-मत हासिल करने के दौरान भाजपा के साथ खड़े होने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। वामदलों की मानसिकता बस एक केन्द्र पर आ कर टिक गई है कि वह हर उस दल-निर्दल को गले लगाने को तैयार हैं जो मनमोहन सरकार को गिराने में सहायक बनने की भूमिका में हो। सरकार गिराना भी वे इसलिए चाहते हैं कि करार को रोकने की उन्हें एकमात्र तजवी़ज यही समझ में आती है। कुछ दिनों पहले तक उनका नारा था-“करार नहीं सरकार।’ अब वह नारा बदल कर-“सरकार भी नहीं, करार भी नहीं’ हो गया है।

यह भारतीय राजनीति की विडम्बना ही है कि राजनीति के परस्पर दोनों विरोधी ध्रुव, दक्षिण और वाम, एक ही केन्द्र पर दिखाई दे रहे हैं। विडम्बना यह भी है कि सरकार गिराने का दायित्व भाजपा को निभाना चाहिए, लेकिन इसे आगे बढ़ कर वामपंथियों ने अपने कंधों पर डाल लिया है। ऐसी स्थिति में भाजपा को कुछ विशेष करने की ़जरूरत भी नहीं है। समन्वय का हाथ वामपंथियों ने बढ़ाया है तो उसे थाम लेने में उसे किसी तरह का गुरेज भी नहीं होना चाहिए। उसे भलीभॉंति पता है कि अन्ततः घी उसकी ही थाली में गिरने वाला है। सरकार गिरेगी और चुनाव होगा तो इस माहौल का फायदा भी उसके ही खाते में जाएगा। इसलिए वह अपनी ओर से वामपंथियों को उकसा भी रही है और उत्तेजित भी कर रही है। प्रकाश करात की हर पेशकश का जवाब आडवाणी मुस्कराते हुए यही दे रहे हैं कि हम पूरी तरह तैयार हैं। अगर जवाब नहीं दे रहे हैं तो सिर्फ एक बात का कि अगर वे सत्ता में आये तो क्या करार को अमलीजामा पहनाने की कोशिश नहीं करेंगे। शायद यह जवाब देने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि कांग्रेस को गर्क में मिला देने वाले वामपंथी भाजपा से यह वादा लेना भूल गये हैं कि जनाब, आप भी तो वही नहीं करेंगे जो कांग्रेस कर रही है।

 

– रामजी सिंह “उदयन’

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