उपासना का अर्थ है- परमेश्र्वर के पास बैठना। हम जब अपनी शुद्घ भावनाओं को पूर्ण श्रद्घा के साथ अपने ईश्र्वर को अर्पित करते हैं तो वह उपासना कहलाती है। इस प्रकार ईश्र्वर का ध्यान करके एवं प्रार्थना करके हम उसके समीप हो जाते हैं। ईश्र्वर के पास पहुंचने के लिए जो िाया हम अपनाते हैं, वही उपासना है।
विपत्ति के क्षणों में जब प्रार्थना हृदय से निकलती है तो हमारी प्रार्थना परमात्मा तक सीधी पहुंचती है। उपासना शरीर, मन व वाणी का संगम है। जब हम उपासना करते हैं तो यह तीनों अपने आराध्य देव की सेवा में एकरूप हो जाते हैं। प्रार्थना करने वाले का रोम-रोम प्रेम से पुलकित हो जाता है।
जितने करूण हृदय से आप ईश्र्वर की उपासना करेंगे, अपनी व्यथा उससे कहेंगे, उतने ही शीघ्र आपके आराध्य आपकी उपासना स्वीकार करेंगे। आप अपने आराध्य से कहा-सुनी भी कर सकते हैं। जब आपने उसे अपना सब-कुछ मान लिया है, तो लड़ने-झगड़ने में संकोच कैसा? इस संबंध में एक प्रसंग है-
एक उच्च कोटि के महात्मा अपने आराध्य के मन्दिर में नित्य जाते थे और प्रार्थना करने के स्थान पर अपने आराध्य से कहा-सुनी करते थे। अपनी भाव-भंगिमाओं से अपना गुस्सा प्रदर्शित करते थे। यही ाम जब कई दिन तक चलता रहा तो एक दिन हमने व्यथित होकर उनसे पूछा, “”हे महाराज ! आप प्रार्थना करने के स्थान पर अपने आराध्य से लड़ते क्यों हैं?” हमारा यह प्रश्न सुन कर कुछ समय तो वे शान्त रहे, फिर उनकी आंखों में आंसू आ गये और उन्होंने भरे स्वर में बताया, “”मैं अपने आराध्य से मिलने सैंकड़ों मील दूर से पैदल चलकर आया हूं, क्योंकि इन्होंने मुझे बुलाया था और मैं इनके प्यार में खिंचा चला आया। जब मैं इतनी दूर से पैदल चल कर आया हूं तो क्या यह अपने सिंहासन से उठकर मेरे पास नहीं आ सकते हैं? इतना तो इन्हें करना ही चाहिए, बस मेरी इनसे यही लड़ाई है।” उनका जवाब सुनकर मैं निरूत्तर हो गया और प्रार्थना एवं प्रेम के नये रूप का अनुभव कर दंग रह गया।
यह तय है कि उपासना से विपत्तियां दूर होती हैं। इसका कारण यह है कि प्रार्थना द्वारा हम आध्यात्मिक रक्षा-कवच धारण कर लेते हैं। इसके फलस्वरूप हमारे अन्दर आध्यात्मिक शक्ति प्रवाहित होने लगती है और इसके कारण ही हमारी चिंता, रोग, शोक, व्याधि एवं कष्ट नष्ट हो जाते हैं।
– राजीव अग्रवाल
You must be logged in to post a comment Login