कलाकारः हिमेश रेशमिया, श्र्वेता कुमार, उर्मिला मातोंडकर, डैनी डेंग्जोपा, डिनो मोरिया, रोहिणी हत्तंगड़ी, राज बब्बर, असरानी
संगीतः हिमेश रेशमिया
निर्देशकः सतीश कौशिक
निर्देशक सतीश कौशिक की “कर्ज’ 1980 में बनी ऋषि कपूर की फिल्म “कर्ज’ का बड़े जोर-शोर से किया हुआ रिमेक है। होगा, पर सवाल यह उठता है कि आज के युवा दर्शकों में से कितनों ने पुरानी फिल्म देखी है और कितने उससे भावनात्मक तरीके से जुड़ पाये हैं? युवा दर्शकों के लिये तो यह नयी फिल्म केवल मनोरंजनात्मक हो सकती है। परंतु जिन्हें गंभीर फिल्मों की आदत हो गई है, उन मल्टीप्लेक्स के दर्शकों का इस तरह की फिल्म से मन ऊब जायेगा।
सतीश कौशिक ने पुरानी फिल्म की डगर पर ही नयी फिल्म को चलाया है। लेकिन लेखक सिरा़ज अहमद ने आखिर में कहानी को एक नया मोड़ दिया है और पुराने एक-दो पात्रों को फिल्म से हटा दिया है। इस पर पुरानी फिल्म के चाहने वालों को शायद एतराज हो सकता है। उन्हें ऋषि कपूर के स्थान पर हिमेश को देखना भी नहीं जंचेगा। पर इन सबके बावजूद फिल्म का म़जा तो लेना ही है।
अक्सर सूट पहने रहने वाला हिमेश रेशमिया दक्षिण अफ्रिका का मशहूर रॉक स्टार है। एक दिन वह नवतारका श्र्वेता कुमार को देखता है और अपना दिल दे बैठता है। जब दोनों प्रेम के बंधन में बंध जाते हैं तो हिमेश के साथ कुछ अजीब-सी घटनाएं घटने लगती हैं। गाना गाते, धुन बजाते यकायक उसकी आँखों के आगे धुंधले से चित्र उभरने लगते हैं। एक हवेली, मंदिर और एक खूबसूरत युवती। यह उसकी पिछली जिंदगी की यादें होती हैं। वह उस हवेली का मालिक डिनो मोरिया था। वह खूबसूरत युवती थी उसकी पत्नी उर्मिला मातोंडकर। बेवफा उर्मिला ने डैनी डेंग्जोपा के चक्कर में आकर पति की हत्या कर दी थी। संजोग से श्र्वेता कुमार उर्मिला की गोद ली हुई बेटी है। इस हत्या और उस हत्यारिन को प्रकाश में लाकर हिमेश पुराना कर्ज चुकाता है।
पुराने ढंग की कहानी का बहाव और पुनर्जन्म की बातें आज के दर्शकों को भी बांधे रखती हैं। उर्मिला के अभिनय में कोई कमी नहीं है। डैनी भी याद रह जाता है। फिल्म के संभाषण और गीत ठीक हैं। हिमेश तथा श्र्वेता कुछ खास नहीं कर पाये हैं। अपनी मॉं से मिलन के दृश्य में हिमेश दर्शकों को भी रुला देता है। वैसे गाते-नाचते हुए पसंद आ जाता है।
“चींटी चींटी बैंग बैंग’
कलाकारः आशीष विद्यार्थी, अंजन श्रीवास्तव, महेश मांजरेकर, असरानी
संगीत ः जीत
निर्देशक ः आर.डी.मलिक
दर्शकों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि केवल एनिमेशन होने के कारण ही बच्चों की फिल्म अच्छी कहलाई नहीं जा सकती। चींटी चींटी बैंग बैंग जैसी फिल्म तो आपत्तिजनक भी हो सकती है। इसमें कहानी की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। वैसे एनिमेशन फिल्मों में अक्सर ऐसा ही होता है। बच्चों की फिल्मों एवं कहानियों में गलत-सलत बताना भी अपराध माना जाना चाहिए। आर. डी. मलिक द्वारा निर्देशित इस फिल्म में तो चींटियों के स्वभाव के बारे में बहुत कुछ गलत बताया गया है। लगता है, लेखक एवं निर्देशक ने विज्ञान के पन्ने पलटे ही नहीं हैं।
फिल्म की कहानी आम हिंदी फिल्म जैसी है। लाल तथा काली चींटियों के दो राज्य हैं, जिनके बीच गहरी दुश्मनी है। घुन नामक दीमक अपने स्वार्थ के लिये इन दोनों से गद्दारी करता रहता है। एक काला-लाल प्रेमी-युगल भी है, जो फिल्म के बीच में से ऐसे भाग जाता है कि फिर दिखाई ही नहीं देता। दोनों तरफ की सेनाएं सुसज्ज होती हैंै। गिरगुट, मेंढ़क, दीमक, तितली आदि। जादुगर मॉथ और गायिका चींटी अपने कारनामों से दर्शकों को रिझाने की पूरी कोशिश करते हैं, किंतु अफसोस के साथ कहना पड़ता है, असफल होते हैं। इस फिल्म में एक बूढ़ा चींटा भी है, जो जवान चींटियों को ललचाई निगाहों से ताकता रहता है। और तो और, लाल एवं काली चींटियों के बीच जो दुश्मनी पैदा होती है, उसका मुख्य कारण प्रेम-संबंध ही है।
क्या किसी ने लाल और काली चींटी को एक साथ देखा है, लड़ते हुए या प्यार करते हुए? विज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो चींटियॉं बहुत मेहनती और बहुत संगठित होती हैं। उनकी सामूहिक व्यवस्था मानवों के लिये आदर्शमय होती है। लाल-काले रंग का भेद उनमें कभी नहीं होता। सिनेमा देखने जाने वाले बाल-दर्शकों को यह वास्तविकता बतलाना उचित रहेगा। फिल्म में जीत का दिया हुआ संगीत दिलचस्प होने के कारण दृश्यों मेंे जान आती है। बंगाली धुन का “छम छम’ तथा पाश्र्चात्य शैली का “चिरांगो’ गीत अच्छे लगते हैं। उस्ताद रशीद खान का शास्त्रीय “घनन’ गीत भी प्रभावित कर जाता है।
फिल्म का एनिमेशन सिर्फ दो डायमन्शन (आयाम) का है, इस कारण पात्रों में जान नहीं आ पाती। यह बात सही है कि हमारा एनिमेशन अभी-अभी आगे बढ़ रहा है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि केवल उसकी प्रशंसा ही की जाए। एनिमेशन के लिये दी गई आवाजों में अंजन श्रीवास्तव ने डरपोक पति के पात्र को जीवंत किया है। असरानी ने जादुगर मॉथ को औसत बनाया है। एनिमेशन फिल्में कम बनती हैं, इसी कारण यह फिल्म दर्शकों में कौतुहल जरूर उत्पन्न करेगी।
“शूट ऑन साइट’
कलाकार ः नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी, ग्रेटा साच्ची, लैला रूआस, ब्रायन कॉक्सए, गुलशन ग्रोवर, मिकाल जुल्फ़िकार
शंगीत ः आल्टमैन
निर्देशक ः जगमोहन मूंदड़ा
07 जुलाई, 2005 में लंदन की एक टेन में बम-विस्फोट हुआ। लंदन की पुलिस ने खुफिया “ऑपरेशन काटोस’ शुरू किया, जिसके चलते आतंकवादी होने की गलतफहमी के कारण ब्राजील के नागरिक मेनेजस को मार गिराया गया। इसी वास्तविक घटना पर निर्माता-निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा ने शूट ऑन साइट फिल्म बनाई है।
फिल्म के आरंभ में एक मुस्लिम व्यक्ति को गलतफहमी के कारण मार दिया जाता है। पाकिस्तान में जन्मे मुस्लिम पुलिस अफसर नसीरूद्दीन शाह को इसकी जांच करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। नसीर की पत्नी विदेशी है और उसके दोनों बच्चे भी पाश्र्चात्य संस्कृति से पूरी तरह से प्रभावित हैं। नसीर के मजहब के कारण उसके बॉस और लंदन पुलिस के अधिकारियों का उस पर से विश्र्वास कुछ डगमगाने लगता है। जिस व्यक्ति को आतंकवादी मान कर मार डाला गया है, उसके निर्दोष होने के सबूत नसीर को प्राप्त होने लगते हैंै और असली आतंकवादी का सुराग भी मिलने लगता है। नसीर अजीब उलझन में पड़ जाता है। एक ओर लंदन पुलिस अपनी गलती को छिपाने के प्रयत्न में है तो दूसरी ओर मजहब से ऊपर उठकर सच्चाई का साथ देने की नसीर की कोशिश है। इसी बीच नसीर का भतीजा मिकाल जुल्फ़िकार पाकिस्तान से पढ़ाई करने के लिए लंदन आता है, जिससे शक का दायरा और गहरा बना जाता है। कट्टर और विषैले वक्तव्य देने वाले इमाम ओमपुरी की उपस्थिति।
जानी-पहचानी घटनाओं को लेकर आतंक के अंतर्राष्टीय, भौगोलिक, मजहबी, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा पारिवारिक परिणामों की ओर प्रभावशाली संकेत करने वाली यह फिल्म मनोरंजन के लिये न सही पर कुछ मुद्दों पर विचार करने के लिए जरूर देखनी चाहिए। कलाकारों का जानदार अभिनय भी इस फिल्म का विशेष आकर्षण हो सकता है। यदि अखरेगा तो शायद फिल्म का संगीत, जिसमें पाकिस्तानी लह़जा बिल्कुल भी नहीं है।
इस फिल्म को पाकिस्तान में बैन किया गया है, क्योंकि पाकिस्तानी कलाकार मिकाल जुल्फ़िकार ने एक आतंकवादी का किरदार निभाया है और निर्माता-निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा ने आतंकवादी को पाकिस्तानी बताया है।
– अनिल एकबोटे
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