थार के आंचल में बसी जैसलमेर नगरी पीले पत्थरों की कलात्मक गढ़ाई व नक्काशी कला के लिए समूचे विश्र्व में “स्वर्णनगरी’ के नाम से विख्यात है, जिसे दुनिया के कोने-कोने से देखने के लिए वर्षभर पर्यटकों का तांता लगा रहता है। इस ऐतिहासिक स्वर्णनगरी को भाटी राजा राव जैसल ने वि. सं. 1212 में किले की नींव रखकर बसाया था।
यूँ तो समूचा जैसलमेर ही देखने लायक है, लेकिन सोनार दुर्ग के भीतर बने कलात्मक जैन-मंदिर भी यहां आने वालों के लिए कौतूहल का विषय हैं। हालांकि किले के अंदर अनेक हिन्दू मंदिर भी हैं जिनमें सर्वाधिक चर्चित लक्ष्मीनाथ मंदिर है, जिसे वि.सं. 1494 में सफेद मारबल से निर्मित किया गया। इसके गर्भगृह में स्थापित मूर्तियों को हीरे-मोती व स्वर्णाभूषणों से सजाया गया।
वैसे देखा जाये तो जैसलमेर के अधिकांश भाटी राजपूत हिन्दू थे, लेकिन वे जैन-धर्म का भी सम्मान करते थे। जैसलमेर नगर बसने से कुछ शताब्दियों पूर्व सैकड़ों जैन-परिवारों का भी यहां आगमन हुआ और वे जैन श्र्वेताम्बर परिवार धीरे-धीरे यहीं बस गये व सीमांत देशों के अंतर्राष्टीय बाजारों में अपने व्यापारिक कारोबारों से इतने समृद्घ हो गये कि उन्होंने अपने धर्म व संस्कृति की जड़ों को भी यहां गाड़ने का प्रयास किया। जैनियों की समृद्घि के कारण ही कालान्तर में यहां किले के भीतर एक से बढ़कर एक कलात्मक जैन-मंदिरों का निर्माण धन्नासेठों ने समय-समय पर करवाया।
सोनार किले के भीतर निर्मित जैन-मंदिरों पर जैन-दर्शन की अमिट छाप देखने को मिलती है। जैसलमेर के आसपास पोकरण, अमरसागर, लौद्रुवा व बरमासर में भी जैन-मंदिर हैं, लेकिन एक ही श्रृंखला में निर्मित आठ जैन-मंदिर किले में ही हैं। प्राचीन मंदिरों में पार्श्र्वनाथ मंदिर वि.सं. 1473 में सेठ जयसिंह ने बनवाया था। इस मंदिर का तोरण-द्वार अत्यंत ही कलात्मक है, जिस पर अनेकानेक देवी-देवताओं, जानवरों, पक्षियों व नृत्य-मुद्रा में लोगों के चित्र उकेरे गये हैं। मंदिर के प्रवेश-द्वार व छतों पर भी नृत्य-मुद्रा में गढ़ाईदार मूर्तियां देखने को मिलती हैं। संभवनाथ मंदिर, जिसे वि.सं. 1467 में सेठ शिवराठी व उनके भाई ने बनवाया था। इस मंदिर की छत पर कमल के अलंकरण हैं तो कहीं-कहीं चावल के आकार की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं, जो कि सूक्ष्मदर्शी से ही देखी जा सकती हैं। शीतलनाथ मंदिर, जिसे डागा ओसवाल ने वि.सं. 1476 में बनवाया था, में एक ही चट्टान पर 24 तीर्थंकरों की चेहराकृत्तियां हैं। अष्ठपथ मंदिर, जिसे खेता और चोपड़ा जैनियों ने वि.सं. 1536 में निर्मित करवाया था, कम आकर्षण का केंद्र नहीं है। इस मंदिर के भीतर हाथी, घोड़े, शेर, बंदर व कलात्मक स्त्रियों की मूर्तियां उकेरी गयी हैं। यहीं पर चंद्र प्रभु स्वामी मंदिर भी है, जिसे वि.सं. 1509 में सांथड़ा और जसवंत ने मिलकर बनवाया था। ऋषभदेव मंदिर को वि.सं. 1536 में साचू ने बनवाया तो महावीर स्वामी मंदिर को सेठ दीपा ने वि.सं. 1473 में निर्मित करवाया था। इन सभी मंदिरों में उच्च कोटि की चित्रकला के दर्शन होते हैं। मंदिरों में की गयी चित्रकारी न केवल आकर्षित करती है बल्कि इन मूर्तियों में इतनी गहराई है कि ये हमें खुशी, प्यार, समृद्घि का रोजमर्रा के जीवन में संदेश देती दिखाई देती हैं। जैसलमेर के जैन-मंदिरों में की गयी कला की समानता गुजरात के मंदिरों से की जा सकती है।
जैसलमेर के जैन-मंदिरों में यूं तो अनेकानेक देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं जिनमें गणेश, पार्वती, शिव, भैरव व काली प्रमुख हैं। इनमें से कई मूर्तियां नग्नावस्था में भी हैं। इन सबके पीछे अलग-अलग धारणाएँ हैं। जैन-मंदिर में स्त्रियों की मूर्तियों को मूर्तिकारों ने अत्यंत ही खूबसूरती से उभारा है जिनमें चेहरा संवारती स्त्री, गीत व नृत्य के दृश्य, बालों में कंघी करतीं और आईना देखतीं स्त्रियां, साथ ही पत्थरों को तराश कर बनायी गयी चंद्रमुखी स्त्री, उसकी बड़ी-बड़ी आँखें व शरीर पर भारी-भरकम आभूषण आदि। निश्र्चय ही यह नक्काशी कलाकार की तीक्ष्ण विलक्षणता का ही परिचय देती है। यह तमाम कलाएँ देखकर दर्शक विस्मय से भर उठते हैं।
कुल मिलाकर जैसलमेर के जैन-मंदिरों का शिल्प वैभव व कला खजुराहो से कम नहीं आंकी जा सकती। जैन-मंदिर जो कि क्षमा, तप व अहिंसा के प्रवर्तक भगवान महावीर स्वामी की जीवन-साधना का संदेश देते हैं, वहीं इनकी पवित्रता बनाये रखने के लिए मंदिर में आने वाले श्रद्घालुओं को कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। मंदिरों में नंगे पांव प्रवेश करना पड़ता है, चमड़े की वस्तु भीतर ले जाना वर्जित है, मासिक-धर्म वाली स्त्रियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित है। इन बातों की सूचना मंदिर के बाहर टंगे सूचनापट्ट पर ही लिखी हुई है।
– चेतन चौहान
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