मुझे स्वयं ही नहीं पता था कि एक बच्चा लड़का या लड़की हो सकता है! या लड़का या लड़की होने से कोई फर्क पड़ता है।
जब मेरे लड़की होने की खबर सबको पता चली तो घर में सन्नाटा छा गया, मानो इस खबर ने सबकी खुशी छीन ली हो। लेकिन मेरी दबंग दादी ने इस सन्नाटे को तोड़ते हुए पापा से कहा कि इस बच्चे को जल्दी ही गिरवा दिया जाए। गर्भपात, जन्म से पूर्व ही मेरी हत्या! इस निर्णय में परिवार के सभी सदस्यों की मूक स्वीकृति थी सिवाय मेरी मम्मी के, क्योंकि वो अपने पहले बच्चे के रूप में मुझे जन्म देना चाहती थीं और अपनी गर्भावस्था में आनन्द और गर्व महसूस कर रही थीं।
संभवतया दहेज प्रथा, जो कि भारत में हिन्दुओं और सिखों में तथा अब अन्य जातियों में भी प्रचलित एक बेहद लालच से भरी प्रथा है, ही वह कारण है जिसकी वजह से मेरी हत्या की जा रही थी, और मेरे जैसे कितने ही कन्या भ्रूणों की पहले ही की जा चुकी है। एक बेटा यानी कमाई का साधन तब भी, जबकि दहेज मेहनत की कमाई कतई नहीं है। एक बेटी यानी खर्चे का बोझ और नुकसान का सौदा। इस घाटे के सौदे को पाटने के लिये आवश्यक उपाय क्या हो, यही कि समस्या को आरंभ होने से पहले ही समूल नष्ट कर दिया जाये यानी कि कन्या भ्रूण(आधुनिक लिंग परीक्षण के तरीकों से पता कर) को ही नष्ट कर दिया जाए। कैसी विडम्बना है कि आज आधुनिक विज्ञान भी बेटियां पैदा करने के अनिच्छुक पिताओं की सहायता के लिये तत्पर है।
मैं अपनी मम्मी के गर्भ के अन्दर होने वाली हर प्रतििाया को महसूस कर पा रहा था, क्योंकि गर्भाशय में आने वाली ध्वनियों की एक चादर में से मुझे दूर से आती अपनी मां की आवाज एक विशेष सुरक्षा प्रदान करती थी, जो कि मेरे आस-पास भरे एमिनियोटिक द्रव से आते स्पन्दनों से एकदम अलग थी। मेरे लिये मेरी मम्मी की आवाज बहुत महत्वपूर्ण थी, क्योंकि मैं ही एकमात्र मानव था, जो उन्हें सुन सकता था और उनकी भावनाओं को समझ सकता था। मैं सोच रहा था कि अचानक मेरे आस-पास की दुनिया ने तेज घुमावदार मोड़ ले लिया है। मम्मी सोच रहीं थीं कि दादी ने अपनी सबसे बड़ी बेटी को कैसे जन्म दिया, वह भी तो एक स्त्री है। क्या वे खुद एक स्त्री नहीं! ये कैसे दोहरे मानदण्ड हैं? अब वह कैसे बिना सोचे-समझे, ाूरता से कन्या-भ्रूण को नष्ट करने के विचार का साथ दे रही हैं? हालांकि, मेरी मां के गर्भपात का निर्णय लिया जा चुका था, वह भी एक स्त्री के द्वारा, जब वह स्वयं एक स्त्री है तो वह किस अधिकार से मेरी मां के अजन्मे कन्या-भ्रूण के जीवन और मरण का फैसला करने चली है। आखिरकार मेरी मां का ध्यान गया कि सभी पहले ही दिन से एक बेटे की कामना कर रहे थे और तभी तो उनकी सास ने हल्का नीला कार्डिगन बनाया था और मेरे चाचा खिलौने वाली बंदूक लेकर आए थे, जो कि निस्संदेह एक बेटे के लिये ही किया जा रहा था। ओह! एक लम्बे भावनात्मक संघर्ष के बाद, मेरी मम्मी पापा के साथ अस्पताल पहुंचीं, जहां मेरी हत्या होने वाली थी। मेरी मम्मी का नाम पुकारा गया, और उसे एक फिजीशियन के कमरे में ले जाया गया, जहां गर्भपात होना था। मेरी मां अब तक मानसिक रूप से तैयार नहीं थीं और वह इस विजिट को एक सहज चैकअप की विजिट समझ रही थीं कि अचानक उन्हें ख्याल आया कि ओह! नहीं ऐसा नहीं है।
एक कोने में निर्वात पम्प जैसी एक मशीन रखी थी। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर ने उन्हें आराम से लेटे रहने को कहा, क्योंकि वह पेल्विक जांच कर रहा था। यह जांच पूरी होने के बाद उसने एक दर्दनिरोधक दवा का इंजेक्शन मेरी मम्मी के गर्भाशय के द्वार पर लगाया ताकि गर्भपात कम कष्टकारी हो। धीरे-धीरे उसने निर्वात पम्प मां के गर्भाशय में डाल कर मुझे खींच कर बाहर निकाल कर ऑपरेशन थियेटर के कूड़ेदान में फेंक दिया। मेरी मम्मी को दो घण्टे बाद अस्पताल से दो दिन के आराम की सलाह देकर भेज दिया गया। अचानक मेरे ऊपर कुछ गिरा, पहले पहल मैंने यही सोचा कि एक और लिंग परीक्षण का शिकार कोई कन्या-भ्रूण इस कूड़ेदान में फेंका गया है, जो कि मुझ पर आ गिरा है, अचानक मैं दिवास्वप्न से जागा। मैं पसीने में भीगा हुआ था। ओह! यह कन्या-भ्रूण नहीं, यह तो तकिया था, जो कि मेरे बेटे ने मुझ पर फेंका था। ओह! भगवान का लाख-लाख शुा कि यह बस एक दु:स्वप्न था। (समाप्त)
मूलकथा – रितेश झाम्ब
अनुवाद – मनीषा कुलश्रेष्ठ
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