प्रोफेसर विजय मोहन अपने प्रदेश के एक जाने-माने कॉलेज में परीक्षा कंडक्ट करने आए। संस्कृत साहित्य के विद्वान प्रोफेसर अपने कॉलेज में बड़े लोकप्रिय थे। बच्चे उन्हें प्यार से मोहन सर कहते थे।
इस कॉलेज में वे पहली बार ही यूनिवर्सिटी परीक्षा कंडक्ट करने आए थे। यहॉं के सीनियर सुपरिटेंडेंट यानी कॉलेज प्रिंसिपल बड़े अनुशासन प्रिय थे। वे जहॉं व्यवहार में सख्त थे, वहीं उनमें विनम्रता भी थी। मोहन सर परीक्षा से दो दिन पहले आ गये थे। उन्हें वन-विभाग के शानदार विश्राम-गृह में ठहराया गया। परीक्षा शुरू होने के एक दिन पहले ही उन्होंने सेंटर का निरीक्षण किया, सीटिंग अरेंजमेंट देखा और ड्यूटी-चार्ट को भी चेक किया। पहले दिन संध्या समय वे एक स्थानीय प्रोफेसर के साथ घूमने निकले। इस दौरान बाजार के कुछ जाने-माने दुकानदारों, प्रतिष्ठित व्यवसायियों और मोअतबिर लोगों से उनका परिचय कराया गया। उन्हें लगा कि यहॉं के लोग मिलनसार हैं, सहयोग देने वाले हैं और अपने शहर के सबसे बड़े विद्या केंद्र को ऊँचाइयों पर चढ़ता देखने के ख्वाहिशमंद हैं।
फिर शाम के वक्त एक चमचमाती हुई एस्टीम घरघराती हुई रेस्टहाउस पहुँची। मोहन सर ने देखा कि उसमें से एक भारी-भरकम सज्जन निकल रहे थे। उस सज्जन ने जब उनके निकट आकर झुक कर अभिवादनपूर्वक अपना परिचय दिया तो उन्हें लगा कि आदमी शरीफ है। उन्हें उसकी भलमनसाहत काफी अच्छी लगी। उस सज्जन ने पहले उन्हें विश्र्वास में लिया, फिर अगले दिन अपना आतिथ्य स्वीकार करने की उनसे गुजारिश की। जाते समय वह यह बताना नहीं भूला कि वह शिष्टाचारवश ही उनसे भेंट करने आया था। उसने बताया कि जब उसने सुना कि एक निहायत ही सज्जन और शालीन शिक्षाविद् अपने शहर में सुपरिटेंडेंट बनकर आ रहे हैं, तो उनसे शिष्टाचारवश भेंट करने और अपनी सेवाएँ अर्पित करने का लोभ संवरण वह नहीं कर सका।
अगले दिन उस महाशय ने उन्हें लेने के लिए अपनी गाड़ी भेज दी। वे लंच के लिए उनके कथित गरीबखाने पर गये। बड़ा स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन उन्हें परोसा गया। रात की साधारण मुलाकात को मैत्री में बदलने का प्रयत्न स्पष्ट नज़र आया। मोहन सर को भी काफी तरोताजा महसूस हुआ। बाद में उन्हें माता भीमाकाली, शिराई कोटी आदि देवियों तथा गौरा, सराहां, तकलेच आदि स्थानों के फलोद्यानों में घुमाया गया और संध्या समय प्रथम ग्रेड के रॉयल सेबों की पेटी रेस्टहाउस पर पहुँचा दी गयी। मोहन सर समझ तो गये कि यह सज्जन उन पर इतने मेहरबान क्यों हो रहे हैं, पर कोई अरुचिकर प्रतििाया प्रकट करने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे थे। किसी को नाराज करना उनके स्वभाव में ही नहीं था। गाड़ी में घूमने के दौरान इन महाशय ने बातों ही बातों में उन्हें बताया भी कि उनकी बेटी बी.ए. फाइनल की परीक्षा दे रही है और उन्हें बस इतना ही कहा कि वह बच्ची पर दया-दृष्टि रखें। मोहन सर को समझ नहीं आया कि दया-दृष्टि का मतलब क्या है और उनमें इतनी सामर्थ्य कहां है कि वह किसी का उद्धार कर सकें। पर खैर, उन्होंने इस सबको दरकिनार करते हुए सिर्फ अपने काम से काम रखने पर ही ध्यान दिया।
अगले दिन स्थानीय अस्पताल का एक नौजवान डिस्पेंसर अपने लेबोरेटरी सहायक के साथ आ धमका और उनसे कुछ सहायता करने की गुजारिश करते हुए उन्हें फेराडोल, शार्कोफेरोल, प्राटिनेक्स और मल्टी विटामिन्स की कुछ गोलियॉं भेंट स्वरूप दे गया। प्रोफेसर साहिब को बाजार में बड़ा सम्मान मिला। दादा किस्म के धाकड़ दुकानदारों ने भी झुक-झुक कर सलाम किया और उनकी शराफत तथा दरियादिली के कसीदे काढ़े। परीक्षा की पूर्व संध्या पर जब उन्होंने अपने कमरे में बैठकर सारी वस्तु-स्थिति पर विचार किया तो एक अनजाना-सा भय उन्हें घेरने लगा। उन्होंने सोचा कि हर व्यक्ति अपनी मैत्री और मिलनसारिता की कीमत वसूलना चाहता है और यह कोई अनोखी बात भी नहीं है, बड़ा पुराना दस्तूर है यह। पर मैं इन्हें वही कुछ तो दूँगा, जो मैं दे सकता हूँ। फिर भी मैं निराश किसी को नहीं करूँगा। देखते हैं कल क्या होता है?
और उसी रात मोहन सर ने रेस्टहाउस में सुपरवाइजरी स्टाफ की एक बैठक बुलाई। इसमें उन्होंने परीक्षाओं और परीक्षार्थियों से संबंध रखने वाले हालात पर नजरसानी करते हुए कुछ सुझाव पेश किए, कहा, बच्चे तो फिर भी बच्चे ही होते हैं। गलती पर गलती करते हैं। पर हमें नादानी बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। साहिबान, मेरा कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि परीक्षा-केंद्र में सुपरवाइजरी का कार्य करते समय हम मानवीय भावना का बिल्कुल साथ न छोड़ें।
एक प्राध्यापक को प्रो. विजय मोहन का यह वक्तव्य आत्मसमर्पण जैसा लगा, यह तो हो नहीं सकता सर, कि परीक्षार्थी नकल करते चले जाएँ और हम यह सोचते हुए कि ये तो नादान बच्चे हैं और फिर ये तो मनुष्य की मूलभूत कमजोरी है, इस गलत काम की ओर से आँखें मूंद लें। सख्ती के बिना कभी कोई सीधा भी हुआ है? भय बिनु होय न प्रीति इस सच्चाई को झुठलाया जा सकता है?
आप मुझे गलत समझ रहे हैं मिस्टर वत्सल। मैंने कब कहा कि नकलचियों को हम नकल करने दें? मेरा कहने का अभिप्राय तो केवल इतना ही है कि हम नकलचियों की नकेल तो कसें, पर अनावश्यक कठोरता न अपनाएँ।
आपने ठीक कहा है सर ड्यूटी सुपरिटेंडेंट सुशील शर्मा ने बड़े शांत भाव से कहा, हमें अपना कर्तव्य बड़ी सावधानी से और मनुष्य के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए निभाना चाहिए। बड़ा सेंसिटिव और कठिन कार्य है यह। अतः इसमें बड़े सोच-विचार की आवश्यकता है। आज का नौजवान पिछली पीढ़ी के नौजवान की तरह सहज-शांत स्वभाव का नहीं है। वह तिंदुक की लकड़ी की तरह तुरंत भड़क उठने वाला है।
दूर के किसी कॉलेज से सुपरवाइजर बनकर आए राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर निशिकांत के कान लाल हो गये। उन्होंने उत्तेजना भरे तीखे स्वर में कहा, नौजवानों को ही दोष क्यों दे रहे हैं सर? हमारे बड़े-बूढ़े क्या कर रहे हैं? और फिर अपने माननीय प्रोफेसर और प्रिंसिपल भी कहां पीछे हैं इस दौड़ में? दुनिया जानती है कि किन-किन महानुभावों ने अपने बच्चों को नकल करवाकर इंजीनियर और डॉक्टर बनाया है। पूरा ताना ही बिगड़ा हुआ हो तो कोई क्या कर लेगा।
अभी यह अनौपचारिक मंत्रणा चल ही रही थी कि सीनियर सुपरिटेंडेंट प्रिंसिपल सत्येंद्र नाथ गुप्ता घूमते-घूमते उधर आ निकले। सुपरवाइजरी स्टॉफ तथा केंद्र अधीक्षक ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया और उन्हें चेयर ऑफर किया।
सेंटर के सामान वाली अल्मारी की चाबी संभाल ली है न आपने मिस्टर शर्मा? ड्यूटी चार्ट जल्दी ही भिजवा रहा हूँ। रामभज और बेलीराम को आपके साथ अटैच कर दिया है। हैं तो वैसे दोनों ही ईमानदार और मुझे पूरी उम्मीद है कि कोई गड़बड़ नहीं करेंगे, फिर भी सावधानी तो आपको रखनी ही पड़ेगी। लोग डरा-धमका कर या प्रलोभन देकर शरीफ लोगों को अपने जाल में फॅंसा ही लेते हैं। पुलिस को खबरदार कर दिया है। जरा होशियारी से काम लेना। लोग बड़े काईयां हैं यहॉं के। अच्छा मैं चलता हूँ। मेरी शुभकामनाएँ।
परीक्षा केंद्र के सुपरवाइजरी स्टाफ के बीच सहसा जो सन्नाटा छा गया था, अब उसमें फिर से कुछ हलचल शुरू हो गयी। प्रिंसिपल गुप्ता द्वारा कही गई दो-तीन बातों से स्टाफ को कुछ आतंकित हुआ जैसा महसूस हुआ। स्टाफ को पता था कि नकलचियों पर केस बनाना तो खैर एक दुष्कर और अप्रिय कार्य है ही, परीक्षा केंद्र के बाहर की गतिविधियों की निगरानी करना भी कम जोखिम भरा नहीं है।
प्रोफेसर गोपाल, जिन्हें अपने बाहुबल पर बड़ा गुमान था, ने कमीज की आस्तीनें चढ़ा लीं, मानों सामने मैदान-ए-जंग है और वे उसमें कूद पड़ने वाले एक दबंग योद्धा हैं। छोटे कद तथा कमजोर काठी वाले प्रोफेसर महेश प्रसाद उन्हें अपना सहायक और संरक्षक मानते हुए, उन्हें प्रशंसात्मक दृष्टि से देखने लगे, सर केस बनाने के बारे में आपका क्या विचार है? जब उन्होंने केंद्र अधीक्षक महोदय से पूछा तो पूरे सुपरवाइजरी स्टाफ उनका विचार जानने के लिए उत्सुक हो उठा।
भई पता नहीं, आप मुझसे सहमत होंगे या नहीं, पर मैं तो यही चाहता हूँ कि परीक्षार्थियों पर सख्ती बिल्कुल न की जाए, ताकि उन्हें पेपर करते समय घर जैसा माहौल महसूस हो और वे बिना किसी दबाव या तनाव के प्रश्र्न्नों के उत्तर लिखें। उनके ऐसा कहने पर उग्र स्वभाव और कड़क स्वर वाले मिस्टर किशन सिंह चौहान के माथे पर त्योरियॉं प्रकट होने लगीं और अपनी असहमति और उग्रता का रंग दिखाते हुए प्रश्र्न्नात्मक अंदाज में उन्होंने कहा, तो क्या आँखें मूंदे रहें?
नहीं मिस्टर चौहान, मेरा यह मतलब यह नहीं है। मेरी बात जरा गौर से सुनिये और उस पर गंभीरता से विचार करिये। डंडे के जोर से आज कोई नहीं मानता। सजा देने से बच्चे उग्र और अड़ियल हो जाते हैं और उद्दंडता दिखाते हैं।
सुपरवाइजरों की तरह-तरह की आशंकाओं के उत्तर में मोहन सर ने कहा, यह सब हमारी असावधानी और ईमानदारी से काम न करने से होता है। आप यदि देख रहे होंगे तो कोई नकल कैसे करेगा, पर्ची कैसे निकालेगा, पुस्तक के पन्ने कैसे पलट सकता है? यह सब तब होता है, जब हम चाय की चुस्कियां लेते हुए आपस में गप्पबाजी शुरू कर देते हैं, सतर्क हो राउंड नहीं लगाते, परीक्षार्थियों की गतिविधियों का निरीक्षण नहीं करते। यह कैसे हो सकता है कि आप अखबार पढ़ रहे हों, सुस्ता रहे हों या स्वेटर बुन रहे हों और कोई नकल न करे? एक और जरूरी बात मैं यह भी कहना चाहूँगा कि यदि हम ाोध न करें, उग्र प्रतििाया न दिखाएँ, बदले की भावना मन में न लाएँ और बच्चों के प्रति सद्भाव रखें तो बहुत-सी समस्याएँ अपने आप हल हो जाएँगी। प्रायः देखने में आता है कि कुछ लोग किसी बच्चे को नकल करता हुआ देख, उस पर बाज की तरह झपट पड़ते हैं और उसे बड़े रूखे कड़वे शब्दों में डॉंटने-डपटने लगते हैं। मेरे विचार में यह गलत है।
अगले दिन ठीक समय पर परीक्षा शुरू हुई। पेपर बॉंटे गये, ज़रूरी हिदायतें दी गयीं, भीतर और बाहर के स्थानों की जॉंच भी कर ली गई। बच्चों ने लिखना शुरू कर दिया। गर्मी तो थी, पर इतनी भी नहीं कि पसीने छूटने लगें। किन्तु कुछ बच्चे बेचैनी महसूस लगे, और उनके कहने पर खिड़कियॉं खुलवा दी गईं। कुछ दादाटाइप बच्चे इस काम में मुख्य थे। प्रोफेसर गोपाल ने अपनी नीचे की हुई आस्तीनें फिर ऊपर चढ़ा लीं और खुली खिड़कियों वाली पंक्ति में चले गये। इसी बीच उनके सामने कागज में लिपटा एक पत्थर आ गिरा। उन्होंने उसे वापस बाहर फेंक दिया। कुछ देर बाद खिड़कियों वाली साइड के बाहर छप्प की आवाज आई। प्रोफेसर गोपाल ने बाहर झॉंक कर देखा और फिर मुस्कुराते हुए केंद्र अधीक्षक की सीट की ओर जाकर रहस्योद्घाटन किया, वैटरनरी डिस्पेंसरी के नौजवान डॉक्टर थे, जो देख लिए जाने पर सीवरेज पाइप से छलांग मार कर भाग गये हैं। मैं इन्हें जानता हूँ। कल मेरे पास आए थे। कह रहे थे कि आपके सहयोग की जरूरत है। बहन बी.ए. फाइनल में दो बार फेल हो चुकी है। शादी में अड़चन आ रही है। मैंने कहा, मैं हर भले आदमी के साथ सहयोग करता हूँ, आप निश्र्चिंत रहें।
तो आपने सहयोग क्या किया? मोहन सर ने मुस्कुरा कर पूछा। प्रोफेसर गोपाल ने कहा, सहयोग किया तो है, पर्ची बाहर फेंक कर। आगे से वह मेहनत करेगी और पास हो जाएगी।
मिस्टर चौहान, आपकी लाइन में कुछ बच्चे बेचैनी महसूस कर रहे हैं। देखिए, कैसे जम्हाइयॉं ले रहे हैं, कैसी सशंक नजरें डाल रहे हैं इधर और थोड़े-थोड़े अंतराल पर इनका पैरों को झटकना, आगे-पीछे घसीटना और फिर टांगों पर बार-बार खाज करना, मुझे तो बड़ा अजीब-सा लग रहा है। मोहन सर के ऐसा कहने पर चौहान साहिब ने कहा, आपने सही नोट किया है सर। बेचैनी के ही लक्षण हैं ये। इजाजत हो तो दूर कर दें। मोहन सर मुस्कुरा कर कहने लगे, नहीं चौहान, ऐसा बिल्कुल मत करना। दादा किस्म के लड़के हैं ये। इन्हें कुछ कहना मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने जैसा होगा। देख तो मैं भी रहा हूँ चौहान कि इनकी जुराबों में पर्चियॉं हैं, बूटों में भी कागज ठुंसे हैं। पर मुझे दया आती है इन पर। हमें तो बस यही करना है कि इन्हें पर्चियॉं निकालने का मौका न मिले। चेहरे पर मुस्कान के साथ राउंड लगाते रहना, माथे पर ाोध की रेखाएँ नहीं आनी चाहिए।
धूप की तपिश बढ़ रही है, पर पता नहीं मास्टर नंदलाल का यह बेटा जैकेट क्यों पहनकर आया है? और देखो, यह बीच वाली लाइन में बैठे संजीव और साहिल कैसे ढेर सारी अटकती जेबों वाली जीन्स पहन कर आए हैं। प्रोफेसर महेश प्रसाद के फुसफुसा कर कहने पर मोहन सर ने उधर दृष्टिपात किया और गंभीर मुद्रा के साथ उधर का चक्कर लगाने चले गये। तभी हॉल के पिछले हिस्से से छप्प की आवाज आई। प्रोफेसर गोपाल अपने आस्तीन चढ़े हाथों से अपने पहलवानी डौलों को थपथपाते हुए उस तरफ लपक पड़े। खिड़कियों वाली दिशा में कुछ सरसराहट हुई। कोई व्यक्ति सीवरेज के पाइप पर चढ़कर मुँह में पर्चियॉं दबाए अपना सिर ऊपर निकाल कर कुछ करने की ताक में था। चौहान साहब इतने सतर्क थे कि उसकी दाल नहीं गली और वह धीरे-धीरे पाइप से उतर कर भागने लगा। मोहन सर के पूछने पर प्रोफेसर गोपाल ने कहा, वह पंचायत प्रधान सगली राम का खास-उल-खास कारिंदा रेलूराम था सर। पिछले हिस्से से जो छप्प की आवाज आई थी, उसमें कोई लुका-छिपी रहस्य वाली बात नहीं थी। कॉलेज के हुड़दंगी जत्थे का सरगना माने जाने वाले छात्र शमस ने किसी कारणवश झुंझलाते हुए अपनी जैकेट उतार कर जोर से पटकी थी।
मोहन सर विजयी योद्धा वाली संतुष्टि महसूस करते हुए उस ओर गये। उन्हें जैकेट की एक जेब से कागजों का पुलिंदा झॉंकता हुआ दिखाई दिया। नकलचियों के सारे हथियार भोथरे होते देख वह बहुत अच्छा महसूस करने लगे।
परीक्षा शुरू हुए अभी सवा घंटा बीत चुका था। सुपरवाइजरों ने अपनी योजनानुसार नकलचियों की नकेल कस कर रखी थी। अतः उनमें से कुछ नाउम्मीदी में आहें भर रहे थे और कुछ जम्हाइयॉं ले रहे थे। कुछ कलम डेस्क पर रखकर माथे का पसीना पोंछ रहे थे।
चौहान सर ने शिकायत भरे अंदाज में कहा, मोहन सर, आप लगातार सिर पर खड़े रहते हैं। इससे परीक्षार्थियों की एकाग्रता भंग हो रही है। मोहन सर ने उन्हें उत्तर दिया, मुझे खुशी होगी आपकी एकाग्रता देखकर। अगर आप सचमुच एकाग्र होकर काम करेंगे, तो हम इधर झांकेंगे भी नहीं।
इसी बीच बेलीराम चपरासी ने सूचना दी कि यूनिवर्सिटी की एक पार्टी चली आ रही है। प्रोफेसर गोपाल को एक अर्थभरा संकेत करके मोहन सर तेज कदमों से बाहर निकल गये। हॉल में सन्नाटा छा गया। कुछ लड़के अपनी जेबें टटोलने लगे। प्रोफेसर गोपाल ने ऊंचे स्वर में घोषणा करते हुए कहा, रेड होने वाला है। तलाशी होगी। जिन बच्चों के पास पर्चियॉं हैं, उन्हें प्लीज हमें सौंप दें। हम कुछ नहीं कहेंगे। और उसी समय उन्हें बीस पर्चियॉं और कुछ पुलिंदे सौंप दिये गये। तभी मोहन सर वापस आ गये और कहा, बेलीराम तुमसे गलती हो गई है। वह तो इलेक्शन ड्यूटी वालों की पार्टी थी। और फिर धीरे-से फुसफुसा कर प्रोफेसर गोपाल के कान में कहा, तीर ऐन निशाने पर बैठा है।
इसके बाद पर्चियों के आदि-स्रोत पर धावा बोलने की गरज से प्रोफेसर मोहन बोलीराम चपरासी को साथ लेकर कॉलेज के मुख्य-द्वार की ओर चल पड़े। वहॉं अंजीर के एक पेड़ की छाया में पूरा दफ्तर लगा था। पर्चियां लिखने वाले लड़के उन्हें देखकर सकपका गये। वाह, क्या लिखाई है! और सहयोग की स्पिरिट के तो कहने ही क्या। मोहन सर ने कहा तो लड़के झेंप गये। बच्चों कितना अच्छा होता, जो आप किसी दफ्तर में बैठकर इसी तन्मयता से काम करते और जनता की प्रशंसा के पात्र बनते। सहमे खड़े लड़कों ने उन्हें बैठने के लिए जगह दी। नहीं, नहीं, मैं बैठूँगा नहीं, मैं तो सिर्फ यह देखने आया था कि हमारे बच्चों में सहयोग और सहायता का कैसा जज्बा है और वे कितनी लगन और मेहनत से भाईचारे का दायित्व निभाते हैं। मुझे पता लगा था कि आप भूखे-प्यासे हैं, सुबह से इस काम में लगे हुए हैं। कहते हुए मोहन सर ने बेलीराम को कॉलेज की कैंटीन से छः समोसे और तीन कप चाय लाने का आदेश दिया। नहीं-नहीं सर, हम घर जा रहे हैं। कहते हुए वे तीनों लड़के अपना दफ्तर समेटने लगे और परीक्षा केंद्र के इस सारे नाटक का पटाक्षेप हो गया।
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