कहानी हैदराबाद की

मस्जिद की परियोजना काफी बड़ी थी, लेकिन निर्माण का काम उतनी तेजी से नहीं हो रहा था। सुल्तान अपने जीते-जी इसे पूरा नहीं कर पाया। यहां तक कि उसके बाद आए शासक भी उसे न कर सके। लगभग 75 सालों के बाद जब मुगल शहंशाह औरंगजेब हैदराबाद में विजयी होकर आया, तब भी मस्जिद को पूरा करने के लिए पैसों की जरूरत थी। धनराशि के लिए जब औरंगजेब से प्रार्थना की गयी तो उसने काफी चिढ़ कर अपनी बात पर्शियन में लिखे शेर के रूप में कही –

कारे दुनिया, कसे तमाम नकरद

हरचे गीरद मुख्तसर गीरद ।।

यानि कोई भी इंसान सारे काम पूरे नहीं कर सकता। इसलिए इंसान को थोड़ा ही काम करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

अपनी भड़ास निकालने और चेतावनी देने के बाद उसने अपेक्षित धनराशि मंजूर कर दी और इस तरह दक्षिण भारत की सबसे बड़ी मस्जिद का काम पूरा हो सका।

उधर अब्दुल्लाह की शिक्षा-दीक्षा का काम अच्छी तरह से हो रहा था। महीने, साल गुजरते गए और देखते-देखते बारहवां साल भी आ गया। पिता और पुत्र दोनों उस दिन का बेसब्री से इंत़जार करने लगे, जिस दिन वे एक-दूसरे को मिल पायेंगे।

एक रात अब्दुल्लाह ने अजीब-सा स्वप्न देखा। उसने देखा कि वह एक बहुत ही सुंदर बागीचे में जा पहुंचा है, जहां हर तरह के पेड़-पौधे हैं और वह जिस तरफ भी निगाह डालता, पेड़-पौधे उसी तरफ उसे झुक कर मानों सलाम करने लगते। जब वह उनके पास से गुजरता, तो वे हर्षोन्माद से ऐसे झूमने लगते मानों वे उसका अभिनन्दन कर रहे हों।

प्रातः होते ही उसने अपने गुरु मौलवी मौअज्जम को बुला भेजा, जो उसे धर्म-शिक्षा देता था।

“”मौलवी साहब, इस सपने का क्या मतलब है?”

“”क्या उस बागीचे में आपके अलावा कोई और भी था?”

“”नहीं।”

“”सुबह उठकर आपने कैसा महसूस किया?”

“”मैं अब तक उसकी सुगंध और तरो-ताजगी को महसूस कर रहा हूं।”

“”राजकुमार, आपके लिए ये सपना बड़ा शुभ है। लेकिन मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप इसका जिा किसी से न करें।”

“”क्या मां साहिबा से भी नहीं?”

“”उनसे तो बिल्कुल नहीं। जल्द ही नई ा़र्ंिजन्दगी के दरवाजे आपके लिए खुलने वाले हैं।” मौलवी ने कहा।

“”बिल्कुल”, राजकुमार ने खुशी से चहकते हुए कहा, “”क्योंकि मैं जल्द ही अपने पिता से मिलने वाला हूं। बारह वर्ष खत्म होने में अब कुछ ही दिन बचे हैं।”

बूढ़े मौलवी उसकी बात सुनकर हौले से मुस्कुराए। वह रात मौलवी साहब की आखिरी रात थी। नींद में ही उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

नक्षत्रों के आदेश पर पिता और पुत्र की जुदाई अब खत्म होने को थी। इस शुभ अवसर को मनाने के लिए दरबार का विशेष सत्र बुलाने की तैयारी होने लगी। पिता और पुत्र राजदरबार में मिलने वाले थे।

लेकिन इस समारोह की तैयारी के दौरान सुल्तान एक दिन अपने अनुचरों के साथ महल के गलियारे से गु़जर रहा था कि उधर से राजकुमार आता हुआ दिखाई दिया। एक क्षण के लिए दोनों रुके, फिर आगे चल पड़े। इस प्रकार दोनों की मुलाकात सुनिश्र्चित समय से पहले ही हो गयी। लेकिन इस घटना पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि ये सब बारहवें साल के आखिरी महीने में हुआ था।

खुशी-खुशी तीन महिने बीत गए। सुल्तान ने हर क्षेत्र में अपने बेटे की परीक्षा ली। खुश होकर उसने सायगोन से खास मंगाए गए दो हाथी   “मूरत’ और सूरत अपने पुत्र को तोहफे में दिए।

शिकार और मौजमस्ती के लिए एक दिन निश्र्चित किया गया, लेकिन अचानक उस दिन सुल्तान को बुखार चढ़ गया। चौथे दिन उसका बुखार और भी तेज हो गया। इस हालत में हकीम की सलाह ली गयी। यूनानी अपने तरीके से इलाज करना चाहते थे और हकीम अपने तरीके से। आखिरकार सुल्तान की माता ने फैसला लिया कि सुल्तान का इलाज भारतीय हकीम ही करेंगे। लेकिन फिर भी उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ और एक सप्ताह बाद सुल्तान को सन्नीपात हो गया।

कुछ दिनों बाद जब सुल्तान को होश आया तो उसने अपनी मां से कहा कि उसकी अलमारी में रखी 3500 सोने की मोहरें बाहर निकाल कर गरीबों में बांट दी जाएँ। साथ ही साथ वह अपने पोते के राज्याभिषेक की भी तैयारी शुरु कर दें। फिर उसने कुरान के सुरा फजर सुनने की इच्छा जाहिर की। काजी ने आयतें 27 और 28 पढ़े- जब तुम्हें अल्लाह पर पूरी आस्था है, तो तुम उसके पास वापिस जाओ। तुम्हें वहां जाकर आनंद मिलेगा और वह तुम्हारा स्वागत करेगा। फिर उसने आयत 29 पढ़ीˆ “तुम मेरे चहेतों के साथ मेरे स्वर्ग में आ जाओ। कुतुब शाही राजवंश के छठे शासक सुल्तान मोहम्मद कुतुब शाह ने हौले से कहा, “”अल्लाह हू अकबर” ˆ अल्लाह महान है! और अपनी आँखें हमेशा के लिए मूंद लीं। सन् था 1626 और उसकी उम्र केवल 33 वर्ष की थी।

हयात बक्शी की उम्र तीस साल भी नहीं थी, जब वह विधवा हो गई। अब्दुल्लाह का स्वप्न साकार हुआ तो हयात का राख हो गया। उसका जीवन मानो शुरु होने से पहले ही खत्म हो गया। लेकिन जल्द ही हयात ने अपने-आप को संभाल लिया। अपने दुःख को एक तरफ रख वह बेटे की राज्याभिषेक की तैयारियों में जुट गई। अब वह महारानी से राजमाता “मां साहिबा’ बन गई थी। उसे पता था कि अगर इस समय उसने अब्दुल्लाह का ध्यान नहीं रखा तो अब्दुल्लाह राजगद्दी के साथ-साथ हर चीज खो देगा। जहां तक अब्दुल्लाह की बात थी तो उसकी दुनिया उसकी मॉं से शुरु होकर मॉं पर ही खत्म होती थी। पिछले बारह सालों में अगर किसी ने उसका ध्यान रखा था तो वह थी उसकी मॉं। इस दौरान पिता का तो उसने सिर्फ नाम ही सुना था। पिता की उंगली थामे बगैर ही उसका बचपन बीता था और शायद इसीलिए पिता के स्वभाव का एक भी अंश उसमें नहीं था।

(शेष अगले रविवार)

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