जिस तरह सुल्तान अपने पिता और ससुर से भिन्न था, उसी तरह अब्दुल्लाह अपने पिता से बिल्कुल अलग था। एक संयमी, गंभीर पुत्र में पिता जैसी कोई बात नहीं थी बल्कि उल्टा वह तो ज़िन्दगी का हर म़जा उठाना चाहता था।
अब्दुल्लाह अभी नाबालिग था और हयात उसके स्वभाव को अच्छी तरह जानती थी। उसके पति सुल्तान ने मीर मोमिन की मौत के बाद उनकी जगह किसी और को पेशवा की जगह नियुक्त नहीं किया था। मीर मोमिन तो उन्हें सत्ता के साथ-साथ विरासत में मिला था। सुल्तान ने पेशवा का काम खुद ही संभाल लिया था। लेकिन लोग इस बात से बेखबर नहीं थे कि इस फैसले के पीछे हयात का ही हाथ था। राजसी मामलों में हयात की सहभागिता किसी से छुपी नहीं थी।
अब्दुल्लाह के रंग-ढंग देखकर हयात को समझ में आ गया था कि पति के होते उसकी राजसी मामलों की देख-रेख सिर्फ उस भूमिका के लिए उसका शिक्षुता-काल था, जिसका बोझ एका-एक उसके कंधों पर आ पड़ा था। हालांकि अब्दुल्लाह गोलकोन्डा का सुल्तान बन गया था, पर असली शासक हयात थी। भले ही शासन का काम संभालने के दौरान और उसके बाद भी वह सिर्फ सलाहें देती थी, फिर भी उसका नाम काफी मशहूर हो गया। कई बार भाग्य भी अपनी तस्वीरों में अजीब तरह से रंग भरता है।
शासन संभालने के बाद ईद के त्योहार पर अब्दुल्लाह ने अपने मनचाहे हाथी की सवारी करने का फैसला किया। मूसी नदी के किनारे बने नदी महल से वह वापिस किले की तरफ लौट रहा था। नदी का बहाव तेज था और उसकी लहरें पुल पर थपेड़े मार रही थीं। पुल के पास पहुंचते ही हाथी अपनी सूंड ऊँची करके इस तरह चिंघाडने लगा कि मानों वह आगे से भयभीत होकर मुँह मोड़ रहा था। जब महावत ने अंकुश मारकर उसे चलाने की कोशिश की तो उसने अपनी सूंड से महावत को नीचे पटक कर अपने पांव तले कुचल दिया। इसके बाद साथ चल रहे सैनिकों ने हथियारों से हाथी को शान्त करने की कोशिश की तो वह सुल्तान को पीठ में लिए-लिए वहां से भाग खड़ा हुआ। देखते-हीदेखते वह कहां चला गया, किसी को पता ही नहीं चला।
सुल्तान को ढूंढने के लिए चारों तरफ सैनिक दौड़ाए गए। पूरा दिन निकल गया, फिर रात भी, लेकिन हाथी और अब्दुल्लाह का कुछ पता नहीं चला। हयात बक्शी ने जंगल में पेड़ों के साथ पानी के थैले और खाने के पैकेट बांधने का हुक्म दिया ताकि अगर हाथी उधर से निकले तो अब्दुल्लाह उन्हें खाकर अपनी भूख-प्यास मिटा सके। सारे शहर में प्रार्थनाएँ रखीं गईं। हयात बक्शी ने मन्नत मानी कि यदि उसका बेटा सही-सलामत घर लौट आएगा, तो वह चालीस क्विंटल सोने की ़जंजीर बनाकर गरीबों में बांट देगी।
सातवें दिन घुड़सवारों ने आकर खबर दी कि हाथी का पता चल गया है। अब्दुल्लाह सही-सलामत हैं और किले पर पहुंचने वाला है। खबर सुनते ही हयात बक्शी नंगे पैर ही बेटे से मिलने भाग पड़ी। दरवाजे पर देखते ही उसे गले लगाया, फिर उसकी कमर के आस-पास सोने की जंजीर बांधी। हुसैनी अलम तक लाल कालीन बिछाया गया, जिस पर अब्दुल्लाह नंगे पांव चला। वहां पर लंगर का आयोजन किया गया और गरीबों में सोना बांटा गया।
तब से वह जगह लंगर के नाम से जानी जाती है। सन् 1918 तक सरकार की तरफ से मोहर्रम के पांचवे दिन वहां पर गरीबों को खाना खिलाया जाता था।
किशोर अब्दुल्लाह अपने दादा की तरह ़िजन्दगी की खूबसूरती के हर रंग का अनुभव करना चाहता था। उसका अधिकतर समय एक बाग से दूसरे बाग में घूमने में ही बीतता। दादा के कारण शहर में उद्यानों की कोई कमी भी नहीं थी। शासन के पहले महीने में ही उसने बाग लिंगम्मपल्ली में एक सप्ताह बिताया। उसके बाद वह वहां से नौबत पहाड़ गया, जहां कई दिन रुका। कोहेए-तूर में तो उसने दो महीने बिता दिए। यहां पर दुनिया के हर कोने से बेहतरीन मदिराओं का इंतजाम किया गया और शहर की खास नर्तकियों ने अब्दुल्लाह और उसके खास दरबारियों की शामों को रंगीन बनाया।
हालांकि शहर में वर्षा कम ही होती थीएक साल में लगभग 100 से.मी.लेकिन ये शहर के लिए काफी थी। चिलचिलाती गर्मी में शहर का रंग भूरा हो जाता था, परन्तु वर्षा की बूंदें गिरते ही चारों ओर हरियाली छा जाती। शहर भर में फैली चट्टानों के बीच तरह-तरह की झा़डियां उग कर प्रकृति की सुंदरता में अलग ही रंग भर देतीं। इसके साथ ही तरह-तरह के जानवर और पक्षी भी हर तरफ चहचहाते दिखाई देते।
लेकिन सन् 1632 के अकाल ने सब कुछ बदल दिया। लगातार पिछले तीन सालों से वर्षा कम हो रही थी, लेकिन चौथे साल तो पानी की बूंद तक नहीं गिरी। फसलें जल कर राख हो गईं। जहां एक हुन मे 15 क्विंटल अनाज खरीदा जा सकता था, अब सिर्फ 7 क्विंटल मिलने लगा और फिर केवल तीन।
भूख के मारे मौतें होने लगीं। अब्दुल्लाह ने तीन दिन तक व्रत रखने के आदेश जारी कर दिए। शुावार के दिन विशेष प्रार्थना सभा बुलाई गई, जिसमें अब्दुल्लाह ने भी भाग लिया। नदी महल के पास बने मैदान में लोग इकट्ठे हुए। मक्का से खास बुलाए गए काजी हसन ने प्रार्थना सभा की पैरवी की। लोगों में राशि बॉंटी गई, पर पैसों का भी वे क्या करते, क्योंकि खरीदने को तो अन्न का दाना तक नहीं था। कहीं-कहीं तो मुट्ठी भर सिक्कों की जगह केवल मुट्ठी भर अनाज ही मिल पा रहा था। जगह-जगह पर मुफ्त लंगर लगा दिए गए, लेकिन उससे भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। लोग मक्खियों की तरह मर रहे थे।
फिर सरकार ने मूल्य-निर्धारण नीति लागू करने का फैसला लिया। शायद पहली बार इस प्रकार की कोई नीति अपनाई जा रही थी। एक रुपये में 12 किलो चावल या चार किलो घी की सरकारी कीमत निर्धारित कर दी गई।
शहर की हर बस्ती में कुएँ खोदे गए, लेकिन कुछ में से ही पानी निकला। सरकार ने लगभग 10,000 मरने वालों के अंतिम संस्कार का बंदोबस्त किया। अकाल की ये सबसे बड़ी दर्दनाक घटना थी।
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