कहीं दुनिया ही गोल न हो जाए

फ्रांस-स्विट्जरलैंड की सीमा पर स्थित यूरोपियन ऑर्गेनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सीईआरएन) के मुख्यालय पर बीती 10 सितंबर को जैसे ही सुबह के 9:30 बजे, वैसे ही जमीन के 100 मीटर नीचे मानव इतिहास का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग शुरू हो गया। अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है, तो ब्रह्मांड के बारे में विशेष रूप से 4 ऐसे रहस्यों पर से पर्दा उठ जाएगा, जिसकी संभावना बहुत अधिक है, जो सदियों से इंसान के लिए अनसुलझी गुत्थी बने हुए हैं। लेकिन अगर इस प्रयोग में जरा-सी भी गड़बड़ होती है, तो पृथ्वी नष्ट भी हो सकती है यानी कयामत वक्त से पहले 2012 तक आ सकती है। यही डर है, जिसकी वजह से विरोधियों ने इस प्रयोग में शामिल वैज्ञानिकों को जान से मारने की धमकी दी है।

दिलचस्प बात यह है कि लगभग 387 अरब रुपये (9 अरब डॉलर) के इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में भारत का भी महत्वपूर्ण योगदान है, हालांकि प्रयोग के असफल होने पर सबसे ज्यादा खतरा भी भारतीय उपमहाद्वीप को ही है। गौरतलब है कि जिस महामशीन के जरिए यह प्रयोग किया जा रहा है उसे बनाने में तकरीबन 20 साल लगे हैं और इसमें 36 देशों के 5,000 वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और टेक्नीशियनों ने अपना खून-पसीना एक किया है। इन लोगों ने जमीन के 100 मीटर भीतर चट्टान और रेतीले पत्थरों को काटकर लार्ज हैडोन कोलिडर (एलएचसी) का निर्माण किया है जो कि एक भीमकाय मशीन है। यह दो बड़े बीमों पर बांयें से दायें और दायें से बायें घूमकर काम करती है। यह बीम विशेष रूप से बनाए गए एक 27 किलोमीटर के भूमिगत रिंग पर घूमते हैं। इनके घूमने की रफ्तार प्रकाश की गति के बराबर है। हर एक बीम प्रति सेकेंड के हिसाब से मशीन के 11,245 चक्कर लगाता है।

बहरहाल, जो लोग इस प्रयोग से डरे हुए हैं, उन्हें फिलहाल कोई खतरा महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि हाई-एनर्जी प्रयोग 21 अक्तूबर, 2008 के बाद ही शुरू होंगे जब एलएचसी का औपचारिक उद्घाटन किया जाएगा। अगले कुछ सप्ताह में चरणबद्घ कार्याम के तहत छोटे-छोटे प्रयोग किए जाएंगे और उनसे डाटा लेने के बाद सुरक्षा का विश्लेषण किया जाएगा। इसके बाद ही पूरी क्षमता के साथ प्रयोग शुरू किए जाएंगे। सीईआरएन कोई बड़े प्रयोग से पहले जनता के लिए और स्वयं भी यह सुनिश्र्चित करना चाहता है कि एलएचसी की वजह से ऐसे ब्लैक होल निर्मित न हों जो पृथ्वी ग्रह को ही निगल जाएं। इसलिए गणना व विश्लेषण करने के लिए एक पैनल गठित किया गया है ताकि यह सुनिश्र्चित किया जा सके कि खतरा लगभग असंभव है। फ्रांस ने भी अपनी सुरक्षा जांच की है।

लेकिन अगर, खुदा न खास्ता, प्रयोग असफल हो गया तो जगह-जगह पर भूकम्प और सुनामी आ सकती हैं। साथ ही छोटे-छोटे ब्लैक होल भी बन सकते हैं जो दुनिया को नष्ट कर देंगे। ब्लैक होल बनने का सबसे ज्यादा खतरा हिन्द महासागर में है जिससे भारतीय उपमहाद्वीप के तटीय क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं। ध्यान रहे कि अगर एक बार ब्लैक होल बन जाता है तो वैज्ञानिकों के बस में उसको नियंत्रण करना नहीं होगा और प्रलय आ जाएगी। एक अनुमान यह है कि प्रयोग के असफल होने पर उसके नतीजे लगभग 4 वर्ष बाद ही सामने आएंगे। इसलिए अगर इस प्रयोग की असफलता के कारण कयामत आती है, तो 2012 में ही आएगी।

बहरहाल, वैज्ञानिकों का मानना है कि लगभग 14 बिलियन वर्ष पहले एक ़जबरदस्त विस्फोट (बिग बैंग) हुआ जिससे यह ब्रह्मांड वजूद में आया। लेकिन बेहद गर्म ब्रह्मांड आश्र्चर्यजनक रूप से ठंडा हो गया और इसका आकार भी बढ़ गया। इसका तापमान भी कुछ ही सेकेंडों में खरब डिग्री सेल्सियस से अरब डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया। अब इस प्रयोग में वैज्ञानिक ऐसी ही स्थितियां उत्पन्न करना चाहते हैं जिनके कारण ब्रह्मांड का जन्म हुआ ताकि ज्ञान की नई सीमाओं को पार करके इस ब्रह्मांड के बारे में सबसे गहरे रहस्यों के ऊपर से पर्दा उठाया जा सके। वैज्ञानिक मुख्य रूप से ब्रह्मांड के बारे में 4 रहस्यों को ऐसा मानते हैं जिन्हें वह अब तक सुलझा नहीं पाए हैं। उम्मीद है कि इस प्रयोग में इन चारों ही रहस्यों पर से पर्दा उठ जाएगा।

सबसे पहले तो वैज्ञानिक यह जानना चाहते हैं कि भार की उत्पत्ति कैसे हुई? दूसरा यह कि बेहद गर्म ब्रह्मांड का तापमान कुछ ही सेकेंडों में आश्र्चर्यजनक तरीके से कम कैसे हो गया? तीसरा यह कि कुछ ही मिनटों में ब्रह्मांड में हाइडोजन और हीलियम का अनुपात कैसे तय हो गया और आज भी यह लगभग वैसा ही क्यों है? और अंतिम यह कि ब्रह्मांड में सिर्फ 4 प्रतिशत ही ऐसा मैटर है जो दिखायी देता है। बाकी डार्क मैटर और डार्क एनर्जी है, ऐसा क्यों है?

इसके अलावा शोधकर्ता सुपरसिमिटी और हीग़्ज बोसोन के प्रश्नों को भी हल करना चाहते हैं। भौतिकशास्त्री वर्षों से इस पहेली को सुलझाने में लगे हुए हैं कि कोई भी पार्टिकल मास कैसे हासिल करता है। 1964 में ब्रिटेन के भौतिकशास्त्री पीटर हिग़्ज ने एक विचार दिया था कि कोई पृष्ठभूमीय क्षेत्र होगा जो टीएकल की तरह काम करता है। जब पार्टिकल्स इससे गुजरते हैं तो किसी मध्यस्थ की वजह से मास हासिल कर लेते हैं। इस मध्यस्थ को हिग़्ज बोसोन या ईश्र्वरीय पार्टिकल कहते हैं क्योंकि यह आज तक किसी के हाथ नहीं लगा है। उम्मीद है कि इस प्रयोग में यह ईश्र्वरीय पार्टिकल भी खोज लिया जाएगा। जबकि सुपरसिमिटी हिग़्ज बोसोन से भी आगे की ची़ज है। इसके तहत माना जाता है कि स्टैंडर्ड मॉडल में पार्टिकल्स से संबंधित लेकिन उससे बहुत बड़े उसके काउंटरपाट्र्स भी होते हैं। इन पार्टिकल्स से यह मालूम हो जाएगा कि ब्रह्मांड में दिखायी देने वाला मैटर सिर्फ 4 प्रतिशत ही क्यों है और बाकी डार्क मैटर और डार्क एनर्जी क्यों है?

यहां यह बताना भी आवश्यक है कि महाकाय मशीन में पार्टिकल्स प्रतिशत के 10वें लाख हिस्से में प्रकाश की गति प्राप्त कर लेंगे और उनका जो तापमान होगा वह सूरज के तापमान से 1 लाख गुना अधिक होगा। साथ ही पार्टिकल्स जिन्हें हैडोन्स कहा जाता है, वह 14 टैराइलेक्टॉन वोल्ट्स से जुड़ेंगे। यह रफ्तार पिछले प्रयोगों (फर्नीलैब के टैवाटोन) की तुलना में 7 गुना अधिक है। इस रफ्तार, वोल्ट और तापमान की विशालता से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर यह प्रयोग वैज्ञानिकों के नियंत्रण से बाहर निकल गया, तो दुनिया पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, बल्कि सही बात तो यह होगी कि यह जानने के लिए दुनिया ही शेष नहीं रहेगी। यही वजह है कि चिंतित लोग फोन व ई-मेल के जरिए इस प्रयोग में लगे वैज्ञानिकों को मौत की धमकियां दे रहे हैं। यह धमकियां लिनइवान्स और एक अन्य वैज्ञानिक ब्रायन कॉक्स को मिली हैं। ये दोनों ही वैज्ञानिक इस प्रयोग के एक तरह से लीडर हैं।

इसमें शक नहीं है कि इस ऐतिहासिक प्रयोग के सफल होने पर मास, गुरुत्वाकर्षण, रहस्यमय डार्क मैटर और हमारा ब्रह्मांड जैसा दिखता है वैसा क्यों दिखायी देता है, के बारे में बहुमूल्य जानकारियां मिल सकती हैं। लेकिन अगर प्रयोग के असफल होने पर पृथ्वी ग्रह ही नष्ट हो जाता है तो फिर यह अद्भुत जानकारियां किस काम की?

 

– डॉ. एम.सी. छाबड़ा

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