कहॉं गई महंगाई?

बढ़ती महॅंगाई का मुद्दा लगता है राजनीति के परिदृश्य से बाहर चला गया है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब इस मुद्दे पर वामपंथी आसमान सिर पर उठाये हुए थे और विपक्ष की भाजपा तमतमायी हुई ़जमीन पर अपने पॉंव पटक रही थी। वामपंथियों और भाजपाई दोनों ने दो-चार दिन यहॉं-वहॉं कुछ धरना-प्रदर्शन कर खानापूरी कर ली और आम आदमी की जिन्दगी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला यह मुद्दा एकाएक नेपथ्य के हवाले कर दिया गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनावी वर्ष में यह मुद्दा इन दोनों पक्षों को, सरकार को पूरी तरह घेरने में अक्षम समझ में आया हो? अगर ऐसा नहीं है तो महंगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को परे ठेलकर अमेरिकी न्यूक डील को क्यों राजनीति के केन्द्र में डाल दिया गया है।

जो भी हो, यह सही है कि महंगाई की चर्चा अब न विपक्ष की भाजपा कर रही है और न ही ़गरीबों की मसीहायी करने वाले वामपंथी इसे उठाने की जहमत मोल लेते दिखाई दे रहे हैं। राजनीति की दुनिया से बाहर आकर देखा जाय तो मीडिया भी अब इसे सुर्खियों में रखने को तैयार नहीं है। इसके बाबत अब अगर कोई ़खबर आ भी रही है, तो उसे मुखपृष्ठ की जगह भीतर के पृष्ठों पर, किसी कोने-अंतरे कोई जगह दे दी जाती है। इलेक्टॉनिक मीडिया के ़खबरिया चैनल अभी कुछ दिनों पहले तक इस मुद्दे पर हंगामाखे़ज चर्चाओं का आयोजन कर रहे थे, अब महंगाई का भूत उनके भी सर से उतर गया है। अब हर चैनल या तो आरुषि कांड में मुब्तिला है अथवा यह आकलन पेश करने में जुटा है कि लोकसभा में संख्या का गणित सरकार बचाने के पक्ष में है अथवा उसके खिलाफ। जहॉं तक कांग्रेसनीत संप्रग सरकार का प्रश्र्न्न है, वह शुरू से बढ़ती महंगाई के मुद्दे पर अपने को असहज पा रही थी। सच पूछा जाय तो आम आदमी की जिन्दगी से ताल्लुक रखने वाले इस मुद्दे पर आम आदमी की कसम खाकर सत्ता में आने वाली संप्रग सरकार के पास इस मुद्दे पर उठते सवालों का कोई जवाब न था और न है। हद से हद वह यही कह सकती है और कहा भी यही है कि इसको काबू में करने के सभी आवश्यक उपाय सरकार कर रही है। फिर भी मार्च से अब तक हर हफ्ते बढ़ती मुद्रास्फीति ने उसके प्रयासों को मुँह चिढ़ाने का ही काम किया है। अतएव यह तो माना ही जा सकता है कि सरकार के अर्थशास्त्रियों के पास महंगाई के मुद्दे पर निरुत्तर रह जाना ही एकमात्र विकल्प है।

अब जब यह मुद्दा चर्चा से बाहर चला गया है तो निश्र्चित रूप से सरकार और उसका अमला राहत महसूस कर सकते हैं। सच्चाई यह है कि इस मसले पर सरकार न हमला करने की स्थिति में थी और न ही बचाव। किसी भी पक्ष से उछाले गये इस बाबत किसी भी सवाल का कोई जवाब उसके पास नहीं था। अतः इस मसले का परिदृश्य से बाहर चला जाना हर दृष्टि से उसके हित में है। खूबी यह भी है कि स्थानापन्न के रूप में जिस मुद्दे ने महंगाई को ढकेल कर परिदृश्य से बाहर किया है, वह मुद्दा सरकार के लिए फिलवक्त सबसे ज्यादा मनपसंद और मुफीद है। वह मन ही मन वामदलों को धन्यवाद भी दे रही हो सकती है कि उन्होंने उसकी जानबख्शी का एक नायाब रास्ता ढूंढ निकाला है। न्यूक डील का मुद्दा अब राजनीति के केन्द्र में है। इस मुद्दे पर भारतीय राजनीति में नये-नये समीकरणों के नये-नये प्रयोग देखने में आ रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने कैम्ब्रिजवादी अर्थशास्त्र को चौतरफा घिरा देख कर लड़ाई को न्यूक डील के मैदान में लड़ने की बेहद चालाक योजना को सफलता पूर्वक लागू किया है। अब इस मुद्दे पर वे आाामक होकर मरणांतक युद्घ लड़ सकते हैं। 22 जुलाई के विश्र्वासमत परीक्षा में अगर वे सफल हुए तो उनकी विजय दुंदुभी के शोरो-़गुल में महंगाई का अरण्य-रोदन दब जाएगा। हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम आगामी वर्ष चुनाव तक तो इसके दबे रहने की उम्मीद की ही जा सकती है। अगर सरकार विश्र्वासमत में पराजित होती है तो कम से कम अगला चुनाव लड़ने के लिए उसकी यह शहादत एक मुद्दा तो दे ही जाएगी। वर्ना डर तो इसी बात का था कि अगर अगले चुनाव तक महॅंगाई, जो हर हफ्ते कुछ न कुछ इजाफा करती जा रही है, मुद्दा बनी रही तो संप्रग को सरकार में लौटने की कौन कहे, अपने को राजनीति के परिदृश्य में बनाये रखना भी मुश्किल होता।

इस देश की साठ-साला राजनीति के अनुभवों ने देश के राजनीतिज्ञों को यह समझा दिया है कि चुनाव मुद्दा नहीं बल्कि समीकरण जीतता है। यह समीकरण गठबंधन की राजनीति के चलते दलीय भी हो सकता है और जातिगत भी। हर दल सस्ते और भावुकतापूर्ण नारों के साथ इसी समीकरण को धार देने में जुटा है। इसलिए मुद्दे तो उभरते हैं अथवा उभारे जाते हैं लेकिन समय के साथ उन्हें तिरोहित होते भी देर नहीं लगती है। फिर भी यह प्रश्र्न्न अपनी जगह रह ही जाता है कि क्या देश का आम मतदाता इलेक्टॉनिक मशीन की बटन दबाने के पहले अपनी ़खुद की जिन्दगी को नहीं तौलेगा? क्या उसे यह बात नहीं अखरेगी कि बढ़ती महंगाई उसकी थाली की रोटियों में लगातार कटौती करती जा रही है? क्या वह यह नहीं सोचेगा कि इस महीने की बच्चों की स्कूल-फीस देने के लिए हो सकता है उसे घर का कोई सामान बंधक रखना पड़े अथवा किसी के सामने हाथ फैलाना पड़े? क्या महंगाई का राजनीति के परिदृश्य से बाहर चले जाने को उसकी अंतिम विदायी मान लिया जाय?

You must be logged in to post a comment Login