सुबह अखबारों पर उड़ती निगाह डाली। पहले रिश्तेदारी में एक अखंड-पाठ के भोज में जाना था और दो-तीन जगह प्रेस कांग्रेस थी। उनकी खबरें भेज कर सातेक बजे खाली हो गया था। यों सत्ता तो हर समय खबर में रहती है। क्या पता कब, कहॉं, क्या घट जाये? कोई दुर्घटना, पुलिस-रेड, धरना-प्रदर्शन, पचास तरह की घटनाएँ घट सकती हैं, खबर बनने के लिए। खबर फैक्स होने की ओ.के. रिपोर्ट देख कर मैं दिन के अखबारों को अच्छी तरह से पढ़ने लगा। भीतर के पन्नों पर बुड्डाबड़ की डेट लाइन से लगी सिंगल सुर्खी को देखकर चौंक उठा- दलितों के उजाड़े की साजिश के विरुद्ध प्रदर्शन कल। और खबर का विस्तार था- यहां पास की बस्ती पंडोरी मूसा में दलितों के घरों के साथ पड़ी शामलाट जमीन से उनके उजड़ने के विरुद्ध, कल ग्यारह बजे दशहरा ग्राउंड में रोष-प्रदर्शन होगा। दलित उजाड़ा विरोधी एक्शन कमेटी के प्रवक्ता सुखविंदर के अनुसार इसी प्रदर्शनी में सभी पक्षों के प्रतिनिधियों के साथ विचार-विमर्श कर संघर्ष का अगला कार्याम निश्र्चित किया जाएगा। उन्होंने इलाके के सभी इन्साफ पसंद लोगों को प्रदर्शन में शामिल होने का आमंत्रण दिया है। खबर बेशक छोटी-सी ही थी, परंतु इसने मेरे मन में बहुत उत्सुकता जगा दी। यह सुखविंदर कौन है? क्या पंडोरी मूसा को फिर हिंसा-टकराव के दौर से गुजरना होगा?
इस बस्ती के साथ कामरेड मेहर सिंह की वजह से मैं एक लंबे अर्से से जुड़ा रहा हूं। एक दौर में तो यहां की एक छींक तक का मुझे पता होता था। अब बेशक वह नजदीकी नहीं रही, परंतु खास-खास बातों का पता जैसे-तैसे चल ही जाता है। कभी किसी अखबार में खबर दिख जाती है। अखबारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता इतनी अधिक है कि प्रत्येक छोटी से छोटी घटना को भी कहीं न कहीं कवरेज मिल जाती है, अपितु कई बार तो राई के पहाड़ भी बनाये जाते हैं। यह चिंगारी तो फिर भी दो-ढ़ाई दशक से भी ज्यादा समय से सुलग रही थी…।
इस जगह पहले दलदल था। इससे मुरब्बेबंदी के समय इसे शामलाट में निकाल दिया गया। इसके साथ दक्षिण की तरफ से रास्ता निकलता था और रास्ते के किनारे जाकर दलदल की तरफ ही दलितों के घर थे। सत्तर के दशक में जब ड्रेन खोदी गयी, तो यहॉं सेम सूख गयी। दलितों के घरों के पास होने से उन्होंने यहां पशु बांधने शुरू कर दिये। किसी ने उपले पाथ दिये, पराली, भूसा लगा दिया और बच्चों के खेलने का ग्राउंड भी बन गया।
अस्सी के दशक में इसके सामने की राह से दूसरी तरफ अनाज मंडी बन गयी। मंडी बनने के साथ ही इस तरफ की जमीनों के भाव आसमान छूने लगे। मंडी के साथ-साथ दुकानें बनने लगीं, स्टोर बनने लगे। तब ही बुड्डाबड़ की पंचायत ने इस शामलाट जमीन पर मार्केट बनाने और पशुओं का अस्पताल बनाने का प्रस्ताव पास करके दलितों को यहां से अपना ईंधन आदि उठा लेने और पशु हटा लेने के लिए कहा। उन्होंने इन्कार कर दिया। इससे पहले उनके कब्जे से अपनी जमीन छुड़वाने की हिंसक कोशिश हो चुकी थी। उन्हें लगा कि यह भी उसी की एक कड़ी है। यदि वे इससे बेदखल हो गये, तो बात खेती-बाड़ी वाली जमीन की ओर मुड़ जाएगी, जिस पर कब्जे की लड़ाई के परिणामस्वरूप कामरेड मेहर सिंह और तीन अन्य लोग उम्र-कैद की सजा भुगत रहे हैं। वे बेशक जेल में होने से बस्ती से गैरहाजिर थे, परंतु फिर भी धनवान किसानों की जोर-जबरदस्ती करने की हिम्मत न हुई। मामला अदालत में चला गया। कानूनी पक्ष को देखते हुए बस्ती वालों की स्थिति कमजोर थी। कोई भी गरदावरी उनके नाम नहीं थी और न ही कब्जे का कोई दस्तावेजी सबूत ही था। यही कारण था कि वे केस हारते रहे। निचली अदालतों में भी और अब हाई कोर्ट में भी। पंचायत ने एक बार तो पुलिस ला कर दखल ले लिया था, परंतु तनाव उसी दिन से जारी था। इलाके में बड़ी स्पष्ट कतारबंदी हो गयी थी। मुझे बुड्डाबड़ के अपने परिचित पत्रकार सिद्धु से पता चला कि स्थिति विस्फोटक बनी हुई है। ऐसे अवसर पर कामरेड मेहर सिंह के नहीं होने का अहसास मुझे परेशान कर गया। यदि कामरेड मेहर सिंह जिंदा रहता, तो ऐसी घटनाएँ कैसे घटित होतीं। यदि मैं खुद लहर के साथ आज तक भी किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ हूँ, तो इसके पीछे भी कामरेड मेहर सिंह की शख्सियत का बड़ा हाथ है। काम की ज्यादती और पारिवारिक झमेलों की वजह से बेशक मेरी संगठनात्मक गतिविधियों में काफी कमी आयी है, परंतु फिर भी मन की ललक धुंधली नहीं पड़ी। यही कारण था कि खबर पढ़ते ही मैंने एकदम दूसरे दिन की तमाम व्यस्तताएँ भुला कर बुड्डाबड़ जाने का फैसला कर लिया।
कामरेड मेहर सिंह से मैं पहली बार सतासी-अठासी में मिला था। कॉलेज में यह मेरा पहला साल था। गांव में कम्युनिस्टों का प्रभाव होने से इस लहर के साथ लगाव था, परंतु कॉलेज में खालिस्तानियों का आतंक छाया हुआ था। उनके साथ कोई सहमति चाहे न भी रखे, परंतु उनके विरोध का साहस भी कम ही था। कैंपस से लेकर रीडिंग-रूम तक हर जगह खालिस्तान की चर्चा किसी न किसी रूप में मौजूद रहती। ऐसी स्थिति में हमारा ग्रुप अपने आपमें सिमट कर रहता था। विद्यार्थी हमें कामरेडों के पक्षधर के रूप में जानते तो थे, परंतु हमारी किसी भी गतिविधि में शामिल होने से इन्कार करते थे। हमारी गतिविधियों का केंद्र-बिंदु कैंपस से बाहर ज्यादा था। इसी दौर में खालिस्तानियों के विरोध में निकले पोस्टर का बंडल लेकर कामरेड मेहर सिंह को देने गया था। चला, तो संकोच-सा था, कामरेड, मुझे तो बुड्डाबड़ की राह का भी पता नहीं है, फिर कैसे देख पाऊँगा उसे? जो पोस्टर का बंडल नहीं पहुंचा सकते, वे जरूर इन्कलाब लाएँगे, कामरेड प्यारा सिंह ने व्यंग्य-बाण छोड़ा। फिर रास्ता समझाते हुए कहा, पोस्टर आज ही पहुंचने जरूरी हैं। राज्य स्तर की रैली में सिर्फ एक हफ्ता ही रह गया है। यदि इन्हें तहसील-दफ्तरों में भेज दिया गया, तब भी शायद ये समय पर नहीं लग पायें, इसलिए सीधे सभी सिाय कामरेडों को भेजे जा रहे हैं।
दो-तीन जगह से मिनी बसें बदल कर बुड्डाबड़ पहुंचा था। गांव में जिस जगह बस से उतरा, वहीं एक चाय की दुकान से कामरेड मेहर सिंह के ठिकाने के बारे में पूछा, तो पता चला कि वह तो डेढ़ किलोमीटर पीछे छूट गया है। अब उस बस्ती को कोठे पंडोरी मूसा कहते हैं। जब वहां पहुंचा, तो कामरेड गारे की कड़ाही भर-भर कर छत पर ले जा रहा था, जहां उसकी बेटी छत को लीप रही थी। कामरेड के मकान की दीवारें तो बेशक ईंट की थीं, परंतु उन पर पलस्तर नहीं हुआ था। उनकी खाली दर्जे झांक रहीं थीं। उत्तर की तरफ की दीवार के साथ सरकंडे का छप्पर था, पशु बांधने के लिए। मैंने जब जाकर जय जनता कहा, तो कामरेड ने मिट्टी में लिथड़े-लिथड़े ही किसी के साथ कड़ाही भरते हाथ रोक कर मेरी तरफ देखते हुए कहा, आप?
कामरेड जी, मुझे कामरेड प्यारा सिंह जी ने भेजा है, ये पोस्टर दे कर।
ठीक है, उसने कड़ाही भरकर कसी से गारा झाड़ा। कसी को घानी से बाहर रखकर अपने लिथड़े पैर भी झाड़ लिये और कोने में लगे नल से हाथ धो लिये। पैर वैसे ही लिथड़े रहे। मेरे पास आकर पोस्टर खोलते हुए, उसने पत्नी को चाय बनाने के लिए कहा और खुद दरेक के नीचे बिछी खाट पर बैठ कर पोस्टर पढ़ना शुरू किया।
हमारे गांव में इस पोस्टर का क्या अर्थ है? कहां है खालिस्तानियों का संघर्ष इस गांव में? मैंने कई बार कहा कि गरीबों को की पांच-पांच माले के प्लाट, सस्ती दर पर राशन सप्लाई और बी.डी.ओ. दफ्तर तथा थाने में परेशानी उठाने के विरुद्ध आवाज उठायें…. लोग आपके साथ जुड़ेंगे। पता नहीं क्यों, हम गलत कहना ही सीख चुके हैं। यह भी गलत, वह भी गलत, फलां मांग भी गलत… गलत-गलत के शोर-शराबे में हम क्या चाहते हैं, इसकी कोई बात नहीं करते… सरकारी जिप्सियों में घूमते नेताओं को पता ही नहीं चल सकता कि लहर कैसे बनती है?
ये जमीन आबाद करने वाले बहुत छोटे किसान मुजारे थे या फिर दलित। सात-आठ सालों में सारे इलाके में फसलें लहराने लगीं। यही वह समय था, जब दौरे वाले चौधरियों ने उस जमीन का मालिकाना हक जता कर आबादकारों को उजाड़ना चाहा। इस सारे इलाके में आधी से ज्यादा जमीन लगभग उनकी ही थी और बाकी कुछ अन्य लोगों की और कुछ सरकारी भी। सरकारी जमीन एक बहुत बड़ी फर्म ने नये बीजों की खोज के लिए फार्म बनाने के वास्ते लीज पर ले ली। चौधरी तो अलबत्ता अहसान करते थे, जब तक आप इसमें से फसलें खाते रहे हो, उसका हम कुछ नहीं मांग रहे, यदि ज्यादा चीं-चपड़ की, तो उन सालों का लगान भी वसूल किया जाएगा। उनकी हेकड़ी-धौंस इलाके की फिजा में गूँजने लगी। कामरेड मेहर सिंह ने इसके खिलाफ आबादकारों को संगठित किया। इनको मालिकाना हक तब क्यों न याद आये, जब जमीन उजड़ी पड़ी थी। सांपों के फन कुचल कर जमीन आबाद की है। क्या लगते हैं वे इसके…।
जितना मैं मंड के इलाके के आबादकारों की लहर को करीब से जान पाया, उतना ही ऊँचा होता चला मेरे मन में मेहर सिंह का कद और उसका आदर भी। उसने ही बताया था-
लहर के दिनों तीन साल तक पुलिस मुझे पकड़ नहीं पायी, अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद, बेशक मैं इसी इलाके में मौजूद था। बहुत से पुलिस वालों को मेरी शक्ल का भी पता नहीं था, इसलिए भी कई बार बचाव हो जाता। एक बार एक हवलदार और चार सिपाही बेड़ी से उतरे, मुझे उसी बेड़ी से दूसरी तरफ जाना था। उन्हें मैंने बीच दरिया में बेड़ी पर बैठे हुए देख लिया था। पुलिस ने रास्ते के किनारे हल चलाते उस हाली से पूछा, कामरेड मेहर को तो इधर नहीं देखा?
नहीं तो, वह तो बहुत दिनों से इधर नहीं दिखा, हलवाले ने सहज स्वर में कहा। पुलिस आगे चली गयी। मैंने सिर से परना उतारा, धूल भरे पैर और टांगें साफ कीं और बेड़ी में आकर बैठ गया।
एक बार मैं बेलीपराल गांव में गया हुआ था। पक्की सूचना मिलने पर पुलिस ने पूरी तैयारी के साथ सुबह-सुबह छापा मारा। साथ में घुड़सवार दस्ता भी था। जिस घर में ठहरा हुआ था, उस घर की बहू ने मुझे पड़ोसियों के गहीरे में जाकर छुपा दिया और आगे उपले चुन दिये। इतनी ही जगह छोड़ी जहां से मैं सांस ले पाऊँ। पूरा दिन पुलिस गांव में रही। पत्ता-पत्ता छान मारा। वहां देख कर भी गये, जहां मैं छिपा हुआ था, परंतु बच गया। इसे कहते हैं, लोगों के साथ पानी और मछली की साझ। लोगों के जंगल में आपको कोई नहीं ढूंढ सकता, यदि लोग आपके साथ हों।
जब कामरेड मेहर सिंह गांव के किसी गरीब आदमी के साथ बात कर रहा होता, तब वह साधारण-सा खेतों में काम करने वाला ही नजर आता और जब कोई उसे मीटिंग में बहस करते हुए सुनता, वह एक चिंतक लगता। वह बड़े मान से बताया करता, मैंने कामरेड स्वतंत्र का तीन दिनों का स्टडी सर्किल अटैंड किया है।
आबादकारों की लहर के दिनों वह पुलिस की मार से बच गया था। वह पकड़ा भी नहीं जा सका, परंतु जैलदारों के निंदी के कत्ल के समय उस पर बहुत जुल्म हुआ था। इस केस में कामरेड मेहर सिंह को खींच लिया गया। यातना देने का कोई ढंग ऐसा नहीं, जो उस पर नहीं आजमाया गया। थानेदार महंगा सिंह सिर्फ एक ही बात कहता था, तुम कह दो कि यह कत्ल तुमने ही किया है, यदि नहीं माने, तो मैं तुम्हें पीट-पीट कर मार दूंगा। यदि मान जाओगे, तो इससे बरी करवाने की जिम्मेदारी मेरी… यह तो तुम्हें पता ही है कि पुलिस क्या कुछ कर सकती है।
शायद इस कत्ल में उसे फंसा ही लिया जाता, परंतु थानेदार के निंदी की घरवाली के साथ संबंधों के सबूत सामने आने लगे और फिर यह कत्ल भी उन दोनों की साजिश ही निकला था। जब मैं पहली बार कामरेड से पोस्टर लेकर मिलने गया, तब उसे कत्ल केस में उम्र कैद काट कर लौटे हुए दो साल हो गये थे। यह कत्ल भी उस पर एक तरह से थोप दिया गया था। इमरजेंसी लगी, तो हर तरफ सरकारी दहशत का माहौल था। बिना किसी कारण राजनैतिक विरोधियों को जेलों में बंद कर दिया गया। कामरेड मेहर सिंह के घर भी पुलिस ने एक-दो बार छापा मारा, परंतु वह हाथ नहीं आया। इस माहौल में बुड्डाबड़ के चौधरियों ने अपनी जमीनें मुजारों से छुड़वानी शुरू कर दीं। बहुत से लोगों ने ट्रैक्टर ले लिए थे। कुछ ने तो दो-दो, तीन-तीन भी। ड्राइवर रख लिये गये थे। जीपें ले लीं, जो पूरा दिन धूल उड़ाती रहतीं। पहले तो यह शोशा छोड़ा कि प्रत्येक के पास जितनी जमीन है, दो हजार रुपये किल्ले के हिसाब से हम मुआवजा देते हैं… जमीन खाली कर दो। जिस जमीन का भाव चालीस-पचास हजार रुपये किल्ले है, उसके दो-दो हजार रुपये लेकर क्यों छोड़ दें, कानून के अनुसार हमारा हक बनता है, कोई भीख नहीं मांग रहे। कामरेड मेहर सिंह ने नेतृत्व संभाल लिया। बेशक! पार्टी उसके साथ ज्यादा सहमत नहीं थी… कामरेड, समय खराब है, ज्यादा टकराव में न आयें। कोई बीच का रास्ता निकाल लें, जिला लीडरशिप लड़ने के मूड में नहीं थी। जब धान की फसल कटी, एक दिन चार-पांच ट्रैक्टर उन खेतों में आ घुसे, जो पंडोरी मूसा के मुजारों के पास थे। उन्होंने एक जीप भी रास्ते में खड़ी देख ली। पलों में सभी मुसीबतजदा लोग कामरेड मेहर सिंह के आंगन में जुट गये। क्या किया जाये? सभी के चेहरे पर सवाल था।
ट्रैक्टरों वाले बिना कोई आहट किये इतनी तैयारी के साथ आये थे कि कुछ देर तो कामरेड मेहर सिंह भी दुविधा में पड़ गया था। रोके जाने का अर्थ निश्र्चय ही लड़ाई होगा, वह जानता था। परंतु रोके जाने के बिना और रास्ता भी नहीं था। सामने जमीन छिन जाती देख उनके अंदर भारी उथल-पुथल मची थी। चलो बात करके देखते हैं, हालांकि उसे पता था कि वे बात करने के लिए नहीं आये। वे तो कब्जा करने के लिए आये हैं और शायद लड़ाई की पूरी संभावना की तैयारी के साथ भी।
कामरेड मेहर सिंह उनके आगे-आगे चल दिया। रास्ते के किनारे खेत में चलता ट्रैक्टर पहले उन्होंने रोकना चाहा, परंतु ड्राइवर ने रुकने की जगह रेस ज्यादा दबा दी। जल्दी में इधर-उधर निकलते हुए भी किंदा आगे गिर गया। ट्रैक्टर उसकी दोनों टांगों के ऊपर से निकल गया। घुटनों के पास उसकी दोनों टांगें पिस गयीं और पीछे के फाल पेट में धंस गये। उसे तड़पता देख लोग इतने हिंसक हो गये कि छलांग लगा कर ड्राइवर को ट्रैक्टर से खींच लिया और दतार मार कर काट डाला। परे जीप के पास खड़े चौधरियों के मीना ने गोलियां चलायीं, परंतु किसी के लगी नहीं। इससे गुस्सा और भी भड़क गया और उन्होंने ट्रैक्टर को आग लगा दी, जिसके साथ ही जल कर राख हो गयी ड्राइवर की लाश भी। चिल्लाती उत्तेजित भीड़ को देख कर चौधरी बाकी ट्रैक्टर ले कर भाग लिये। उधर किंदा अस्पताल पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ गया था। कत्ल केस कामरेड मेहर सिंह और तीन अन्य लोगों पर बना। तय करके जो रुकावट बन रहे थे, उन्हें निशाने पर रखा गया। तीन साल वकीलों के चक्कर के बाद उन सभी को उम्र कैद हो गयी थी। पार्टी ने पूरे मन से केस की पैरवी तो क्या करनी थी, उल्टा अंदरूनी हलकों में कामरेड मेहर सिंह की निंदा ही की गयी। ऐसी मार्केबाजी में पहले ही बहुत नुकसान करवा चुके हैं। परंतु इस एक्शन ने इलाके में उसकी ऐसी पैठ बना दी थी कि बाहर इस एक्शन को रद्द करने का हौसला न हुआ। वह भी इस तरह पहले आबादकारों के संघर्ष और फिर इस एक्शन ने कामरेड मेहर सिंह को नायक बना दिया था।
ये सारी बातें मुझे बाद में टुकड़ों-टुकड़ों में ही पता चली थीं। कोई टुकड़ा कहीं से और कोई टुकड़ा कहीं से.., जिनके आधार पर मेरे मन में खाके बनते रहे, खाके बिखरते रहे। सबसे ज्यादा अक्स तिड़का था कामरेड प्यारा सिंह का..।
कामरेड प्यारा सिंह पचास-इकावन की मुजारा लहर के समय पढ़ाई बीच में ही छोड़कर पार्टी में शामिल हुआ था। जोरदार प्रवक्ता, दिलेर, ऊपर से पढ़ा-लिखा, जल्द ही शामिल हो गया था वह जिला स्तर के अग्रणी लोगों में। मुजारा लहर के बाद जब पहला चुनाव हुआ, उसमें वह विधायक बन गया था। मैंने तो उसे खालिस्तानी दौरे में ही देखा। तब आतंकवादियों के खिलाफ धीमे स्वर में भी बात करने से डरता था। मंचों पर उसका चुनौतियां फेंकता भाषण मेरे जवानी चढ़ रहे जज्बात में उसे नायक बना गया।
वह सुबह-सुबह तैयार होकर पार्टी के दफ्तर में आ जाता। सरकार से मिली जिप्सी और गनमैन साथ रहते।
उसे यह सब आतंकवाद के दौर में मिला था, जिसे कोई न कोई तिकड़म लगा कर वह आज भी बरकरार रख रहा था। दस बजे से वह कभी लेट न होता। दफ्तर आकर पहले चाय पीता। कामरेड जो काम करवाने आते थे, उनकी मुश्किलें व मामले सुनता था। किसी का डी.सी. दफ्तर में काम रुका होता, किसी का एस.एस.पी. के दफ्तर, किसी का कोई अन्य काम होता। चाय पीते-पीते वह पूरे दिन के कार्याम सुनिश्र्चित करता। किसी को साथ लेकर उसी समय चल देता। किसी को बाद में वहां पहुंच जाने के लिए कहता और खुद सीधा पहुंच जाता। किसी के लिए संबंधित अफसर को फोन कर देता। किसी का काम हुआ या नहीं, यह अलग बात है, परंतु ऐसा कभी नहीं होता कि कामरेड प्यारा सिंह किसी के साथ न चला हो, तय किये गये समय पर वहां पहुंचा नहीं हो। समय का और बनाये गये कार्यामों का वह पाबंद था।
परंतु मुझे कामरेड मेहर सिंह ज्यादा ठीक लगता था, जब वह कहता था कि, यह अफसरशाही लोगों की मालिक नहीं, नौकर है… इसे आकर हमारी बात सुननी चाहिए। हम इनके दरबार में फरियादी की तरह क्यों पेश हों, हम अपना अधिकार, अपने साथ इन्साफ चाहते हैं। मुझ पर कामरेड मेहर सिंह की काम करने की शैली और जीने की शैली का प्रभाव बढ़ता चला गया, दीपक, हमें यह अपने-आपके साथ पहले स्पष्ट निर्णय कर लेना चाहिए कि हमें किसके पक्ष में खड़े होना है, हम अमीर भी बनना चाहते हैं और कम्युनिस्ट लहरों का नेतृत्व भी करना चाहते हैं – ये दोनों बातें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। किसी एक के प्रति जरूर हम जाने-अनजाने वफा नहीं कर रहे होंगे। यह जो तुम्हारा प्यारा सिंह है न, यह मजदूरों का कम है और अमीर गन्ना-उत्पादकों का ज्यादा लीडर है। जिसने पचास-साठ या सौ एकड़ गन्ना बीज लिया हो, उसके हित और खेत-मजदूर के वर्ग-हित एक जैसे कैसे हो सकते हैं? प्यारा सिंह को सिद्धांत के तौर पर तो इसकी समझ है, परंतु व्यवहार में यह कुछ अलग है। कारण साफ है, वह उस जमात का है। गन्ना उत्पादन वालों की मुश्किलें ही उसे सबसे बड़ी लगती हैं और वही पीड़ित पक्ष… कांग्रेसी-अकाली नेताओं और इसमें फर्क क्या है, उन जैसा ही इसका रहन-सहन है। उन्हीं की तरह अफसरशाही के साथ रहता है। फर्क है तो बस यही कि यह रिश्र्वत नहीं खाता और जिला कमेटी की धनी किसानों की लाबी इसे जिला सचिव बनाये हुए है।
पिछले पंद्रह सालों से इसकी मैंबरशिप ही है, जो इलाके में लहर के विकास के राह की बाधा है। पार्टी कोई प्रबंधकीय ढांचा नहीं होता, जिसे चलाने के लिए अफसरनुमा प्रमुख की जरूरत होती है। नहीं, यह तो जमाती नजरिये से लड़ रहे लोगों का एक मंच है, वहां लड़ रहे लोगों के बीच तालमेल और दशा-दिशा के लिए उस आदमी की जरूरत होती है, जो आगे आकर उन्हीं की भांति लड़ रहा हो। ऐसी बातें कामरेड मेहर सिंह कभी-कभी मेरे साथ कर लेता था, किसी जिला कमेटी की मीटिंग में या किसी धरने-प्रदर्शन में शामिल होने के लिए जब भी यहां आता। वैसे वह अपना इलाका कम ही छोड़ता था और मेरा उसके क्षेत्र में काम कम ही होता था।
इसे कामरेड मेहर सिंह के व्यक्तित्व का प्रभाव समझ लिया जाए या लहरों के सामाजिक विकास के सिद्धांतों के बारे में पढ़-लिख कर मेरा घटनाओं को देखने का एक नजरिया बन गया है। मुझे लगता है कि बावजूद कमियों/ कमजोरियों के अभी भी कहीं मेहनती लोगों के हक में नारा लगाने वाला कोई दिखता है, तो वह कम्युनिस्ट ही है। ज्यादती, अन्याय के खिलाफ लड़ता, रोष-प्रदर्शन करता, जुलूस निकालता….। मेरी खास दिलचस्पी रहती है कि ऐसी गतिविधियों को मुनासिब जगह जरूर मिले। पूंजी किस तरह लोगों को साधनों और अवसरों से वंचित कर रही है, गांव के स्तर पर ऐसे तीखे हो रहे अंतर को मैं रोज-रोज देखता हूं। कितना कुछ बदलता रहा है, तेजी के साथ। मैं जब प्राइमरी में था, तो गांव के जिस स्कूल में पढ़ता था, वहां सरकारी प्राइमरी स्कूल में हमारे गांव के कर्नल विचित्र सिंह की पोती भी पढ़ती थी, यह बात अलग है कि उसके कपड़े साफ-सुथरे होते, घर का कोई नौकर बस्ता-तख्ती उठा कर उसे छोड़ने आता और छुट्टी के समय लेकर भी जाता। परंतु स्कूल तो एक ही था और पढ़ाने वाले अध्यापक भी। इस प्राइमरी स्कूल में अब कर्नल के परिवार का कोई बच्चा तो क्या पढ़ेगा… वह तो चंडीगढ़, देहरादून, डलहौजी के महंगे स्कूलों में पढ़ते होंगे। साधारण जाट के बच्चे भी शहर के मॉडल स्कूलों में जाने लगे हैं। गांव के सरकारी स्कूलों में रह गये हैं सिर्फ गांव के दलितों के बच्चे… और वे शिकार हो रहे हैं सरकार और अध्यापकों की लापरवाही का।
रिहायश मैंने आज भी गांव में ही रखी है। सुबह ग्यारह-बारह बजे आ जाता हूं, शहर के बनाये अखबार के सब-ऑफिस में। रात को नौ से दस बजे तक आमतौर पर खाली होकर गांव लौट आता हूं। यदि किसी विशेष कवरेज की वजह से लेट हो जाऊँ, तो रात को सब-ऑफिस में ही रह लेता हूं। वैसे अखबार के दफ्तर में भी मेरी पहचान कामरेड पत्रकार के तौर पर बनी हुई है।
जब कभी बीस दिन, महीने बाद किसी काम के सिलसिले में जाऊँ, तो संपादक से मिलने का अवसर भी मिल जाता है। उसने खास हिदायत की है, दीपक, जब भी आओ, मुझे बताना जरूर कि मैं दफ्तर में हूं, फिर वक्त निकालना मेरा काम। मैं जानता हूं कि इसके पीछे उनके व्यापारिक हित जुड़े हैं। पिछले पांच सालों में (जबसे इस अखबार से जुड़ा हूँ) यह मेरे इलाके का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार है। यह विश्र्वास बन गया है कि यदि विश्र्वसनीय खबर देखनी हो, तो इसे देखें। मुझे पता है कि मैं अखबार के व्यापारिक हितों को मजबूत कर रहा हूं, परंतु साथ ही मैं यह भी महसूस करता हूं कि इसके माध्यम से कुछ समस्याएँ, कुछ मुद्दे भी फोकस करने में सफल रहा हूं। जब कामरेड मेहर सिंह की दिमाग की नस फूट जाने से मृत्यु हुई थी, तो मैंने उस पर लंबा शब्द-चित्र लिखा था। शहादत के पैंसठ वर्षों का लंबा सफर अखबार के मैगजीन वाले हिस्से में पूरे एक पृष्ठ पर छपा था, तस्वीरों के साथ। इसके लिए बेशक मुझे संपादक महोदय से खासतौर पर निवेदन करना पड़ा था। लेख पर कुछ लोगों ने आपत्तियां उठायीं, बीमार होने पर प्राकृतिक मृत्यु को शहीद कैसे बना दिया?
फांसी चढ़ने वाले शहीद तो एक बार ही मरते हैं, परंतु मैंने उसे हर मोड़ पर मौत की आंखों में आंखें डाल कर देखते हुए देखा है, ऐसी जिंदगी जीना फांसी चढ़ने से ज्यादा मुश्किल होता है।
उसकी शहादत को पांच साल से ज्यादा समय हो गया है। इस बीच एकाध बार बुड्डाबड़ की तरफ गया भी, लेकिन कामरेड मेहर सिंह के घर तक नहीं जा पाया। वैसे वह हर मोड़ पर मुझे याद जरूर रहा है, उसका मौत की आंखों में आंखें डाल कर देखने का अन्दाज…।
और अब, जब उसकी बस्ती के रोष की खबर पढ़ी है, तो मैंने एकदम कल वहां जाने का फैसला कर लिया। मैं देखना चाहता हूं कि कामरेड मेहर सिंह की बस्ती के लोगों की आंखों में कितना रोष है और कैसे वहां के लोग कामरेड मेहर सिंह के सपनों को आगे बढ़ा रहे हैं…।
– बलबीर परवाना
अनुवाद- तरसेम गुजराल
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