वर्ष 1985 को असम के इतिहास का एक निर्णायक वर्ष माना जाता है। इसी वर्ष केन्द्र सरकार और अखिल असम छात्र संघ (आसू) के बीच ऐतिहासिक असम समझौता हुआ था। इससे पहले अवैध विदेशी घुसपैठियों को राज्य से बाहर निकालने के लिए आसू के नेतृत्व में छह वर्षों तक असम आंदोलन चलाया गया था। समझौते के बाद युवा नेता प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व में असम में असम गण परिषद की सरकार सत्ता में आई और जनता में उम्मीद जागी कि नई पीढ़ी के नेता राज्य में शांति, विकास और समृद्घि के नए युग की शुरुआत करेंगे।
लेकिन सत्ता में आते ही युवा नेता भ्रष्टाचार में डूब गए। नौसिखिया नेताओं द्वारा चलाए जा रहे कम़जोर प्रशासन का लाभ उठाते हुए विद्रोही संगठन संयुक्त मुक्ति वाहिनी असम (उल्फा) ने संरक्षित वन इलाकों पर कब्जा कर लिया और पुलिस की आँखों के सामने अपने शिविर स्थापित कर लिए। मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत और उल्फा के बीच गुप्त समझौता हुआ था जिसके तहत महंत ने उल्फा को अपनी गतिविधियां चलाने के लिए खुली छूट दे दी थी। उल्फा के प्रचार सचिव रह चुके सुनील नाथ उर्फ सिद्घार्थ फुकन ने आत्मसमर्पण करने के बाद बताया कि महंत सरकार के साथ हुए समझौते की वजह से उल्फा उस समय वनों में समानांतर रूप से सरकार चलाने लगा था। उस समय जब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य के कुछ जिलों को अशांत क्षेत्र घोषित करने और अर्द्घ सैनिक बलों का अभियान चलाने के लिए महंत सरकार से अनुमति मांगी थी लेकिन महंत सरकार ने मंत्रालय को अनुमति नहीं दी थी। उस समय असम गण परिषद केन्द्र की वीपी सिंह सरकार में घटक दल के रूप में शामिल थी और उसे खुली छूट मिली हुई थी। इस तरह उल्फा को पनपने के लिए अनुकूल माहौल मिल गया था। उसी दौरान वीपी सिंह की सरकार गिर गई और चन्द्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से केन्द्र में सरकार बनाई। 27 नवम्बर, 1990 की आधी रात को नई सरकार ने महंत सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्य में राष्टपति शासन लागू कर दिया। इसके साथ ही उल्फा पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की गई और उसके खिलाफ सैनिक अभियान शुरू कर दिया गया। चुनाव होने पर हितेश्र्वर सैकिया राज्य के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने अपने शासनकाल में उल्फा के खिलाफ सैनिक अभियान जारी रखा। सैकिया ने उल्फा नेताओं को बातचीत का न्योता भी दिया। सैकिया अपने साथ उल्फा के चार वरिष्ठ नेताओं को नई दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हराव से वार्ता करने के लिए भी लेकर गए। उल्फा नेताओं ने नरसिम्हराव को आश्र्वासन दिया कि बांग्लादेश में मौजूद अपने साथियों से विचार-विमर्श करने के बाद वे वार्ता का सिलसिला आगे बढ़ाएंगे। बाद में वे अपने वादे से मुकर गए और बातचीत करने के लिए नहीं लौटे। सैनिक अभियान के बढ़ते दबाव और अपने नेतृत्व के वार्ता में भाग न लेने के अड़ियल रवैये को देखते हुए बड़ी संख्या में उल्फा के सदस्यों ने 31 मार्च, 1992 को हितेश्र्वर सैकिया के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्होंने मुख्यमंत्री से आत्मसमर्पणकारी विद्रोहियों के पुनर्वास की व्यवस्था करने का अनुरोध किया ताकि वे मुख्यधारा में शामिल होकर स्वाभाविक रूप से जीवनयापन कर सकें। उस समय आम समर्पणकारी विद्रोहियों के लिए केन्द्र या राज्य सरकारों के पास किसी तरह की पुनर्वास योजना या नीति नहीं थी। सैकिया सरकार ने बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से विचार-विमर्श करने के बाद 100 फीसदी विशेष मार्जिन मनी स्कीम की घोषणा उल्फा के पूर्व सदस्यों के पुनर्वास के लिए की। इस स्कीम को जून, 1992 को तीन वर्षों की अवधि के लिए लागू किया गया। इस स्कीम के तहत घोषणा की गई कि पूर्व विद्रोहियों को 1,50 लाख रुपये तक का बैंक ऋण मिल सकता है, जिसमें 50 ह़जार रुपए मार्जिन मनी के रूप में राज्य सरकार मुहैया कराएगी। इस तरह पूर्व विद्रोही को कुल दो लाख रुपए मिलेंगे। 1 दिसम्बर, 1992 तक 2830 उल्फा के पूर्व सदस्यों ने स्वरोजगार योजनाओं का प्रशिक्षण प्राप्त किया और पुनर्वास योजनाओं का लाभ उठाया। बैंक ऋण की गारंटी देने की जवाबदेही राज्य सरकार ने ले ली। एक ह़जार पूर्व विद्रोहियों को तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग की सरकारी नौकरियां योग्यता के आधार पर प्रदान की गईं।
जब 20 फरवरी, 1993 को वोडो समझौता हुआ तो पुनर्वास योजना का लाभ आत्मसमर्पण करने वाले बोडो उग्रवादियों को भी प्रदान किया गया। पुनर्वास योजना की अवधि 1995 में समाप्त हो रही थी जिसे 1998 तक बढ़ा दिया गया। जून, 1992 से 31 मार्च, 1997 तक 4843 पूर्व विद्रोहियों ने पुनर्वास योजना का लाभ उठाया। इस योजना पर बैंकों ने जहॉं 69 करोड़ रुपए ऋण दिए वहीं मार्जिन मनी के तौर पर राज्य सरकार ने 30 करोड़ रुपए मुहैया करवाए। जैसी उम्मीद की गई थी उस तरह उद्यमियों की जमात तैयार नहीं हो पाई। कुछ पूर्व उल्फा नेताओं के पास पर्याप्त धन था जिसका निवेश उन्होंने परिवहन, व्यवसाय, होटल, शराब की दुकान आदि कारोबार चलाने के लिए किया। वहीं सामान्य कैडरों के पास न तो पर्याप्त शिक्षा थी, न ही व्यवसाय शुरू करने का कोई अनुभव ही था। इसीलिए वे बैंकों के ऋण का सदुपयोग नहीं कर पाए। ऐसे पूर्व विद्रोही बैंकों को ऋण भी नहीं लौटा पाए।
इसके बावजूद पुनर्वास योजना ने कई विद्रोहियों को हथियार डालने और मुख्यधारा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। कई पूर्व विद्रोही अब ठेकेदार बन गए हैं और सफलतापूर्वक सड़कों व पुलों का निर्माण कर रहे हैं।
समय-समय पर पूर्व विद्रोहियों पर आरोप लगाया जाता है कि वे व्यापारियों, ठेकेदारों आदि को डराते-धमकाते हैं, ़जरूरत पड़ने पर धन उगाही करते हैं और धड़ल्ले से कानून अपने हाथ में लेते हैं। जानकारों का कहना है कि आत्मरक्षा के नाम पर पूर्व विद्रोहियों को अपने पास हथियार रखने की छूट देकर सरकार ने गलती की है। चूंकि वे हथियार का बेजा इस्तेमाल करते हैं। वैसे सभी पूर्व विद्रोहियों पर आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। उनमें से कइयों ने विवाह कर लिया है और सही तरीके से उपार्जन करते हुए स्वाभाविक जिंदगी गुजार रहे हैं।
– दिनकर कुमार
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