किताब कोन

मनुष्यता की श्लोक-गाथा

पुस्तक – भूमिका

कवि – डॉ. सी. नारायण रेड्डी

अनुवाद – प्रो. माणिक्याम्बा “मणि’

प्रकाशक – सौरभ प्रकाशन, हैदराबाद

मूल्य – 100 रु. मात्र

डॉ. सी. नारायण रेड्डी मूलतः तेलुगू कवि होने के बावजूद लगभग समस्त भारतीय भाषाओं की आधुनिक काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं। हिन्दी जगत तो उनकी काव्य प्रतिभा का अवदान बहुत पहले प्राप्त कर चुका है। हिन्दी का सर्वोच्च गरिमामय पुरस्कार “भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ के रूप में उन्हें प्राप्त हो चुका है। यह पुरस्कार उनकी काव्यकृति “विश्वम्भरा’ को प्राप्त हुआ, जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ. भीमसेन निर्मल ने किया था। उसके बाद उनकी बहुत-सी कृतियों का तेलुगू से हिन्दी में अनुवाद हुआ। आलोच्य कृति “भूमिका’ भी हिन्दी में अनूदित पुस्तक है। इस अनुवाद को प्रो. माणिक्याम्बा मणि ने बड़ी कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किया है। “भूमिका’ के विषय में स्वयं अनुवादक ने अपने वक्तव्य में कहा है – “मुझे लगता है कि आपके परवर्ती कई महत्वपूर्ण रचनाओं के बीज इस लंबी कविता में हैं। तेलुगू में लंबी कविताओं को आगे बढ़ाने का श्रेय भी इसी कविता को है।”

“भूमिका’ यथार्थतः एक भूमिका है, उस परम चैतन्य की, जो सृष्टि की रहस्यमयता को काव्यात्मक बनाता है। यह काव्यत्मकता सृष्टि के उद्भव और विकास के साथ निरंतरता को भी उद्गीत करती है। मानवीय सभ्यता का विकास भी इसी के गर्भ से उद्भूत हुआ है, जो जड़ पाशविकता का दलन करती हुई अपनी संस्कृति के धरातल पर प्रतिष्ठित होती है। किन्तु सबके बावजूद है यह एक यात्रा ही, एक ऐसी यात्रा, जो हमारी जिज्ञासा को अनुभूतियों और अनुभवों के गुफा खोह से निकालकर अंतरिक्ष की आकाशगंगाओंं तक ले जाती है। कवि इस काव्य यात्रा का सहगामी है और वह इतिहास को अनगात की वेदी पर प्रतिष्ठित करने की जय यात्रा का ध्वजारोही भी बनने की आकांक्षा रखता है। कवि की जिजीविषा भी इस चेतना के संग उद्दाम गति का प्रवाह बनती है। फलश्रुति यही निकलती है कि विकास के विविध सोपानों चढ़ती सभ्यता का शिखरबिन्दु काव्यात्मक है, गद्यात्मक नहीं। जब-जब इसे गद्यात्मक बनाने के प्रयास हुए हैं, तब-तब सभ्यताओं का पतन हुआ है और वे विनाश गर्त में गिरी हैं।

इसे कवि की स्थापना स्वीकार किया जा सकता है कि वह मनुष्यता के गतिमान प्रथम-चरण को काव्य-चरण मानता है और यह भी मानता है कि अब तक का मानवीय विकास बहुआयामी होने के बावजूद वास्तविकता में मानव-मन की काव्यानुभूतियों का ही आरोहण है। विकासाम के अनुसार अलग-अलग समाजों की भाषायें अलग-अलग हो सकती हैं, किन्तु प्रज्ञा कवि डॉ. सी.नारायण रेड्डी की स्थापना है कि मनुष्यता की मातृभाषा कविता है।

अंग सौष्ठव सम्पदा से

नवीन काव्य रीतियों से

विश्व की प्रिय नीतियों से

तरंगायित

प्रवाहित होती कविता

हर मानव की मातृभाषा है।

कविता यदि मानव मात्र की मातृभाषा है तो उसका एक ही अर्थ है कि मनुष्य के परिचय के मानदंड भले ही दूसरे हों, लेकिन मनुष्यता की पहचान कविता है। कविता हो कर वह संस्कृतियों को वरण करती है, मनुष्यता को मूल्यों की संपदा से विभूषित करती है और उसके भीतर की नकारात्मक जड़ प्रवृत्तियों का निर्मूलन कर उसे सच्चिदानन्द स्वरूप में प्रतिष्ठित करती है। उसका एक छोर अगर भगवत्ता से जुड़ा है तो दूसरे छोर पर पुरुषार्थ की परमोज्वल महागाथायें भी उसे ही समर्पित हैं। प्रज्ञा के अर्थ में वह ऋचा बन जाती है और संवेदना के तल पर “मानिषाद’ बन कर एक झंकृति को जन्म देती है। एक ऐसी झंकृति जो आाोश को भी महाकरुणा की निर्झरिणी बना देती है।

करुणा से एक विचित्र लय का जन्म हुआ

श्लोक-श्लोक बन स्वर रंजित हो गया।

तमसा पुलकित, सत्व की विजय से

वायुतरंगित, करुणा का आगार बना?

अथवा

उस चीत्कार ने प्रकृति के

अन्तर को रख दिया छेद कर।

उस शोक की झंझा ने

वन पूरा झकझोर दिया।

सही अर्थों में कविता सनातन मूल्यों की जननी है। उसे अंतिम अभीप्सा भी कहा जा सकता है और अंतिम आकांक्षा भी। जीवन का सत्य विरोधाभासों की अन्विति से बंधा है लेकिन अवतरण सिर्फ प्रकाश का ही होता है। अतः संस्कृति के गर्भ से जो सभ्यतायें रागात्मक वृत्तियों के साथ उभरती हैं और मानवीय संबंधों को पारस्परिक प्रेम का अवदान देती हैं, उन्हें ही सनातन मूल्य कहा गया है। ये मूल्य जीवन-चेतना को समर्पित होते हैं और कविता बन जाते हैं।

कविता का जन्म किसी भी रूप में हो

उसकी चरम आकांक्षा है

सत्य का निरुपण

उसकी परम आत्मा है

हिंसा का प्रतिरोध।

“हिंसा का प्रतिरोध’ का सीधा अर्थ है जड़ता का प्रतिरोध, पाशविकता का प्रतिरोध, नकारात्मकताओं का प्रतिरोध और विसंगतियों का प्रतिरोध। इस अर्थ में कविता वह सब कुछ है जो इस प्रतिरोध की संज्ञा बनती है। अगर तलाशा जाय तो अब तक “मानिषाद’ से बड़ा कोई प्रतिरोध इतिहास नहीं खोज सका है। क्योंकि मनुष्यता का प्रवाह अपनी धारा में इस महाकरुणा को समेटे बिना आगे बढ़ ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त अवमूल्यित होती सभ्यताओं के खिलाफ युद्घ के लिए इससे सक्षम किसी शस्त्र का आविष्कार भी नहीं किया जा सकता। संभवतः इसी हथियार का नाम बुद्घ भी है और गांधी भी। जनाांतियों की पुण्य भूमि बनती इस काव्य-चेतना ने हमेशा सर्जना को स्वतंत्र-चेता बनाने का काम किया है।

चलते मेरे पैरों में चाहे शूल गड़ जायें

चाहे कांटे चुभ जायें

कुंठित नहीं है मेरी गति

वह रुकी तो रुक जाएगी युग की प्रगति।

अथवा

मेरे हाथ बेड़ियों में

चूर-चूर होने पर भी

अनवरत है मेरा सृजन

वह रुक जाये तो जन ाांति ही रुक जाती।

डॉ. सी नारायण रेडी ने जीवन की जैविक प्रिाया को गीतात्मक स्वीकार किया है। अब यह बात और है कि वह शब्दों में उतर पाती है या नहीं, लेकिन गीतात्मकता की अर्न्तध्वनि बनने के लिए शब्दों को इस प्रिाया से गुजरना ही पड़ता है।

कविता वह थपकी नहीं है जो खुमारी लाये

कविता नहीं जड़ता का आकार

वह एक नये उद्बोधन की गीतिका है,

वह एक गतिशील दावाग्नि की कील है।

“भूमिका’ डॉ. सी नारायण रेड्डी की कविता भर नहीं है, अपितु वह सृष्टि के विकास ाम की काव्य-परक भूमिका है। वह कविता का वह पक्ष है जिसने सृष्टिकर्त्ता को कवि होने का गौरव दिया है। सबसे बड़ी बात डॉ. सी. नारायण रेड्डी के पक्ष में यह है कि उन्होंने कविता को उसकी ललित भूमिका में ही नहीं देखा है, उन्होंने निर्माण की परिकल्पना के साथ विध्वंस की भूमिका में उतरी आद्याशक्ति का भी अवलोकन किया है। संस्कृतियों की उस धात्री का कायिक अस्तित्व सही अर्थों में “सेनारे’ की इस कविता के अतिरिक्त हो भी क्या सकता है। कविता होने के इस ाम में यदि उनका अर्ध्य पूतना और वेमना को अर्पित होता है तो इसे सिर्फ उनकी ही नहीं, एक काव्य परम्परा की धन्यता स्वीकार किया जाएगा।

उसका पद्य एक मंदिर का घंटा रव है

वह हर तेलुगू घर में मुखरित है।

हर जीभ पर यही पद है

“दुगलउन्दुलेडनि’

– रामजी सिंह “उदयन’

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